Best Historical and Knowledgeable Content here... Know More.

  • +91 8005792734

    Contact Us

  • amita2903.aa@gmail.com

    Support Email

  • Jhunjhunu, Rajasthan

    Address

श्रीमद्भगवदगीता (अध्याय:-9), राजविद्याराजगुह्ययोग

श्रीमद्भगवदगीता(अध्याय:-9)

अथ नवमोऽध्याय

राजविद्याराजगुह्ययोग

~~~~~~~~~~~~~~~~~~

परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वरका विस्तार
****************************
श्रीभगवानुवाच

 

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥१॥

भावार्थ :

श्रीभगवान् बोले—तुझ दोषदृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसारसे मुक्त हो जायगा॥1॥

 

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌॥२॥

भावार्थ :

यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है॥2॥

 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥३॥

भावार्थ :

हे परंतप! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्रमें भ्रमण करते रहते हैं॥3॥

 

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः॥४॥

भावार्थ :

मुझ निराकार परमात्मासे यह सब जगत्‌ जलसे बर्फके सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पके आधार स्थित हैं, किन्तु वास्तवमें मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥4॥

 

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥५॥

भावार्थ :

वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किन्तु मेरी ईश्वरीय योगशक्तिको देख कि भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला और भूतोंको उत्पन्न करनेवाला भी मेरा आत्मा वास्तवमें भूतोंमें स्थित नहीं है॥5॥

 

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥६॥

भावार्थ :

जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान्‌ वायु सदा आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान॥6॥                                           

 

जगत्‌की उत्पत्तिका विषय

 

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌॥७॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! कल्पोंके अन्तमें सब भूत मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ प्रकृतिमें लीन होते हैं और कल्पोंके आदिमें उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥

 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌॥८॥

भावार्थ :

अपनी प्रकृतिको अङ्गीकार करके स्वभावके बलसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बार-बार उनके कर्मोंके अनुसार रचता हूँ॥8॥

 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥९॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! उन कर्मोंमें आसक्तिरहित और उदासीनके सदृश (जिसके सम्पूर्ण कार्य कर्तृत्व भावके बिना अपने आप सत्तामात्रसे ही होते हैं, उसका नाम 'उदासीन के सदृश' है।) स्थित मुझ परमात्माको वे कर्म नहीं बाँधते॥9॥

 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥१०॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाताके सकाशसे प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत्‌को रचती है और इस हेतुसे ही यह संसारचक्र घूम रहा है॥10॥                                   

 

भगवान्‌का तिरस्कार करनेवाले आसुरी प्रकृतिवालोंकी निन्दा और देवी प्रकृतिवालोंके भगवद्भजनका प्रकार 
***************************

 

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌॥११॥

भावार्थ :

मेरे परमभावको (गीता अध्याय ७ श्लोक १४ में देखना चाहिये) न जाननेवाले मूढ़लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान्‌ ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात्‌ अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं॥11॥

 

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥१२॥

भावार्थ :

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको (जिसको आसुरी सम्पदाके नामसे विस्तारपूर्वक भगवान्‌ने गीता अध्याय १६ श्लोक ४ तथा श्लोक ७ से २१ तकमें कहा है।) ही धारण किये रहते हैं॥12॥

 

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्‌॥१३॥

भावार्थ :

परन्तु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके (इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय १६ श्लोक १ से ३ तकमें देखना चाहिये) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं॥13॥

 

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥१४॥

भावार्थ :

वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं॥14॥

 

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥१५॥

भावार्थ :

दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्मका ज्ञानयज्ञके द्वारा अभिन्नभावसे पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकारसे स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वरकी पृथक् भावसे उपासना करते हैं।।15।।                                      

 

सर्वात्मरूपसे प्रभावसहित भगवान्‌के स्वरूप का वर्णन
****************************

 

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌॥१६॥

भावार्थ :

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, ओषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥

 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥१७॥

भावार्थ :

इस सम्पूर्ण जगत्‌का धाता अर्थात्‌ धारण करनेवाला एवं कर्मोंके फलको देनेवाला, पिता, माता, पितामह, जाननेयोग्य, (गीता अध्याय १३ श्लोक १२ से १७ तकमें देखना चाहिये।) पवित्र ओङ्कार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥

 

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌॥१८॥

भावार्थ :

प्राप्त होनेयोग्य परम धाम, भरण-पोषण करनेवाला, सबका स्वामी, शुभाशुभका देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेनेयोग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलयका हेतु, स्थितिका आधार, निधान (प्रलयकालमें सम्पूर्ण भूत सूक्ष्मरूपसे जिसमें लय होते हैं, उसका नाम 'निधान' है।) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥18॥

 

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥१९॥

भावार्थ :

मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, वर्षाका आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्‌-असत्‌ भी मैं ही हूँ॥19॥                                          

 

सकाम और निष्काम उपासनाका फल
****************************

                                           

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌॥२०॥

भावार्थ :

तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्गप्राप्तिके प्रतिबन्धक देवऋणरूप पापसे पवित्र होना समझना चाहिये।) मुझको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप स्वर्गलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं॥20॥

 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं-
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना-
गतागतं कामकामा लभन्ते॥२१॥

भावार्थ :

वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं॥21॥

 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌॥२२॥

भावार्थ :

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम (भगवत्‌स्वरूपकी प्राप्तिका नाम 'योग' है और भगवत्‌प्राप्तिके निमित्त किये हुए साधनकी रक्षाका नाम 'क्षेम' है।) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ॥22॥

 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌॥२३॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धासे युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात्‌ अज्ञानपूर्वक है॥23॥

 

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥२४॥

भावार्थ :

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझ परमेश्वरको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे गिरते हैं अर्थात्‌ पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं॥24॥

 

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌॥२५॥

भावार्थ :

देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करनेवाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता (गीता अध्याय ८ श्लोक १६ में देखना चाहिये।)॥25॥                                    

 

निष्काम भगवद्भक्तिकी महिमा

****************************

 

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥२६॥

भावार्थ :

जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥

 

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌॥२७॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर॥27॥

 

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥२८॥

भावार्थ :

इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्‌के अर्पण होते हैं—ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा। ॥28॥

 

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌॥२९॥

भावार्थ :

मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट (जैसे सूक्ष्मरूपसे सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनोंद्वारा प्रकट करनेसे ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्तिसे भजनेवालेके ही अन्तःकरण में प्रत्यक्षरूपसे प्रकट होता है।) हूँ॥29॥

 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥३०॥

भावार्थ :

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात्‌ उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है॥30॥

 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥३१॥

भावार्थ :

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता॥31॥

 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌॥३२॥

भावार्थ :

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं॥32॥

 

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌॥३३॥

भावार्थ :

फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर॥33॥

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥३४॥

भावार्थ :

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा॥34॥

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥

____________________________