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Jhunjhunu, Rajasthan
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भावार्थ :
श्रीभगवान्ने कहा—हे अर्जुन! समस्त ज्ञानोंमें भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञानको मैं तेरेलिये फिरसे कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत-मुनियोंने इस संसारसे मुक्त होकर परम-सिद्धिको प्राप्त किया हैं॥1॥
भावार्थ :
इस ज्ञानमें स्थिर होकर अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूपको प्राप्त हुए पुरुष न तो सृष्टिके प्रारम्भमें फिरसे उत्पन्न ही होते हैं और न ही प्रलयकालके समय व्याकुल होते हैं॥2॥
भावार्थ :
हे भरतवंशी! मेरी यह आठ तत्त्वोंवाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओंको उत्पन्न करनेवाली योनि (माता) है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपमें चेतन-रूपी बीजको स्थापित करता हूँ। इस जड़-चेतनके संयोगसे ही सभी चर-अचर प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है॥3॥
भावार्थ :
हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करनेवाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभीको धारण करनेवाली ही जड़ प्रकृति माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीजको स्थापित करनेवाला पिता हूँ॥4॥
भावार्थ :
हे महाबाहु अर्जुन! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण भौतिक प्रकृतिसे ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुणोंके कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीरमें बँध जाती हैं॥5॥
भावार्थ :
हे निष्पाप अर्जुन! सत्त्वगुण अन्य गुणोंकी अपेक्षा अधिक शुद्ध होनेके कारण पाप-कर्मोंसे जीवको मुक्त करके आत्माको प्रकाशित करनेवाला होता है, जिससे जीव सुख और ज्ञानके अहंकारमें बँध जाता है॥6॥
भावार्थ :
हे कुन्तीपुत्र! रागरूप रजोगुणको कामनाओं और लोभके कारण उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फलकी आसक्ति) में बँध जाता है॥7॥
भावार्थ :
हे भरतवंशी! तमोगुणको शरीरके प्रति मोहके कारण अज्ञानसे उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपनमें व्यर्थके कार्य करनेकी प्रवृत्ति), आलस्य (आजके कार्यको कलपर टालनेकी प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्थामें न करनेयोग्य कार्य करनेकी प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है॥8॥
भावार्थ :
हे अर्जुन! सत्त्वगुण मनुष्यको सुखमें बाँधता है, रजोगुण मनुष्यको सकाम कर्ममें बाँधता है और तमोगुण मनुष्यके ज्ञानको ढककर प्रमादमें बाँधता है॥9॥
भावार्थ :
हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुणके घटनेपर सत्त्वगुण बढ़ता है, सत्त्वगुण और रजोगुणके घटनेपर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सत्त्वगुणके घटनेपर रजोगुण बढ़ता है॥10॥
भावार्थ :
जिस समय इसके शरीरमें तथा सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) में ज्ञानका प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सत्त्वगुण विशेष वृद्धिको प्राप्त होता है॥11॥
भावार्थ :
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ! जब रजोगुण विशेष वृद्धिको प्राप्त होता है तब लोभके उत्पन्न होनेके कारण फलकी इच्छासे कार्योंको करनेकी प्रवृत्ति और मनकी चंचलताके कारण अशान्ति और विषय-भोगोंको भोगनेकी अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है॥12॥
भावार्थ :
हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष वृद्धिको प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मोंको न करनेकी प्रवृत्ति, पागलपनकी अवस्था और मोहके कारण न करनेयोग्य कार्य करनेकी प्रवृत्ति बढने लगती हैं॥13॥
भावार्थ :
जब कोई मनुष्य सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर मृत्युको प्राप्त होता है, तब वह उत्तम कर्म करनेवालोंके निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होता है॥14॥
भावार्थ :
जब कोई मनुष्य रजोगुणकी वृद्धि होनेपर मृत्युको प्राप्त होता है तब वह सकाम कर्म करनेवाले मनुष्योंमें जन्म लेता है; और उसी प्रकार तमोगुणकी वृद्धि होनेपर मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्नयोनियोंमें जन्म लेता है॥15॥
भावार्थ :
सत्त्व गुणमें किये गये कर्मका फल सुख और ज्ञानयुक्त निर्मल फल कहा गया है, रजोगुणमें किये गये कर्मका फल दुःख कहा गया है और तमोगुणमें किये गये कर्मका फल अज्ञान कहा गया है॥16॥
भावार्थ :
सत्त्वगुणसे वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुणसे निश्चितरूपसे लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुणसे निश्चितरूपसे प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं॥17॥
भावार्थ :
सत्त्वगुणमें स्थित जीव स्वर्गके उच्च लोकोंको जाता हैं, रजोगुणमें स्थित जीव मध्यमें पृथ्वी-लोकमें ही रह जाते हैं और तमोगुणमें स्थित जीव पशु आदि नीच योनियोंमें तथा नरकको जाते हैं॥18॥
भगवत्प्राप्तिका उपाय और गुणातीत पुरुषके लक्षण
भावार्थ :
जब कोई मनुष्य प्रकृतिके तीनों गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता है और स्वयंको द्रष्टारूपसे देखता है तब वह प्रकृतिके तीनों गुणोंसे परे स्थित होकर मुझ सच्चिदानन्दघनस्वरूप परमात्माको तत्त्वसे जानकर मेरे दिव्य स्वभावको ही प्राप्त होता है॥19॥
भावार्थ :
जब शरीरधारी जीव प्रकृतिके इन तीनों गुणोंको पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा तथा सभी प्रकारके कष्टोंसे मुक्त होकर इसी जीवनमें परम-आनन्द स्वरूप अमृतका भोग करता है॥20॥
अर्जुन उवाच
भावार्थ :
अर्जुनने पूछा—हे प्रभु! प्रकृतिके तीनों गुणोंको पार किया हुआ मनुष्य किन लक्षणोंके द्वारा जाना जाता है और उसका आचरण कैसा होता है; तथा वह मनुष्य प्रकृतिके तीनों गुणोंको किस प्रकारसे पार कर पाता है?॥21॥
श्रीभगवानुवाच
भावार्थ :
श्रीभगवान्ने कहा— हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको (अन्तःकरण और इन्द्रियादिकोंमें आलस्यका अभाव होकर जो एक प्रकारकी चेतनता होती है, उसका नाम 'प्रकाश' है।) और रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको (निद्रा और आलस्य आदिकी बहुलतासे अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें चेतनशक्तिके लय होनेको यहाँ 'मोह' नामसे समझना चाहिये।) भी न तो प्रवृत्त होनेपर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है ( जो पुरुष एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही नित्य, एकीभावसे स्थित हुआ इस त्रिगुणमयी मायाके प्रपञ्चरूप संसारसे सर्वथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरुषके अभिमान रहित अन्तःकरणमें तीनों गुणोंके कार्यरूप प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहादि वृत्तियोंके प्रकट होने और न होनेपर किसी कालमें भी इच्छा-द्वेष आदि विकार नहीं होते हैं, यही उसके गुणोंसे अतीत होनेके प्रधान लक्षण है)॥22॥
भावार्थ :
जो उदासीन भावमें स्थित रहकर किसी भी गुणके आने-जानेसे विचलित नहीं होता है और गुण ही गुणोंमें बरतते ( त्रिगुणमयी मायासे उत्पन्न हुए अन्तःकरणके सहित इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंमें विचरना ही 'गुणोंका गुणोंमें बरतना' है।) हैं—ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है एवं उस स्थितिसे कभी विचलित नहीं होता॥23॥
भावार्थ :
जो सुख और दुःखमें समान भावमें स्थित रहता है, जो निरन्तर अपने आत्म-भावमें स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्णको एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुतिमें अपना धीरज नहीं खोता है तथा समान भाववाला है॥24॥
भावार्थ :
जो मान और अपमानको एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रुके पक्षमें समान भावमें रहता है तथा जिसमें सभी कर्मोंके करते हुए भी कर्तापनका भाव नही होता है, ऎसे मनुष्यको प्रकृतिके गुणोंसे अतीत कहा जाता है॥25॥
भावार्थ :
और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोगके (केवल एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर वासुदेव-भगवान्को ही अपना स्वामी मानता हुआ स्वार्थ और अभिमानको त्यागकर श्रद्धा और भावके सहित परमप्रेमसे निरन्तर चिन्तन करनेको 'अव्यभिचारी भक्तियोग' कहते हैं) द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है ॥26॥
भावार्थ :
क्योंकि उस अविनाशी ब्रह्म-पदका मैं ही अमृतस्वरूप, शाश्वतस्वरूप, धर्मस्वरूप और परम-आनन्दस्वरूप एकमात्र आश्रय हूँ॥27॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
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