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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*युद्धकाण्ड*

 

*चौरानबेवाँ सर्ग*

 

*राक्षसियोंका विलाप*

 

अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले भगवान् श्रीरामके द्वारा उनके तपाये हुए सुवर्णसे विभूषित चमकीले बाणोंसे रावणके भेजे हुए हजारों हाथी, सवारोंसहित सहस्रों घोड़े, अग्निके समान देदीप्यमान एवं ध्वजोंसे सुशोभित सहस्रों रथ तथा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, सुवर्णमय ध्वजसे विचित्र शोभा पानेवाले और गदा-परिघोंसे युद्ध करनेवाले हजारों शूरवीर राक्षस मारे गये—यह देख-सुनकर मरनेसे बचे हुए निशाचर घबरा उठे और लङ्कामें जा राक्षसियोंसे मिलकर बहुत ही दुःखी एवं चिन्तामग्न हो गये॥१-४॥

जिनके पति, पुत्र और भाई-बन्धु मारे गये थे, वे अनाथ राक्षसियाँ झुंड-की-झुंड एकत्र होकर दुःखसे पीड़ित हो विलाप करने लगीं—॥५॥

'हाय! जिसका पेट धँसा हुआ और आकार विकराल है, वह बुढ़िया शूर्पणखा वनमें कामदेवके समान रूपवाले श्रीरामके पास कामभाव लेकर कैसे गयी—किस तरह जानेका साहस कर सकी?॥६॥

'जो भगवान् राम सुकुमार और महान् बलशाली हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते हैं, उन्हें देखकर वह कुरूपा राक्षसी उनके प्रति कामभावसे युक्त हो गयी—यह कैसा दुःसाहस है? यह दुष्टा तो सबके द्वारा मार डालनेके योग्य है॥७॥

'कहाँ सर्वगुणसम्पन्न, महान् बलशाली तथा सुन्दर मुखवाले श्रीराम और कहाँ वह सभी गुणोंसे हीन, दुर्मुखी राक्षसी! उसने कैसे उनकी कामना की?॥८॥ 

'जिसके सारे अङ्गोंमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, सिरके बाल सफेद हो गये हैं तथा जो किसी भी दृष्टिसे श्रीरामके योग्य नहीं है, उस दुष्टाने हम लङ्कावासियोंके दुर्भाग्यसे ही खर, दूषण तथा अन्य राक्षसोंके विनाशके लिये श्रीरामका धर्षण (उन्हें अपने स्पर्शसे दूषित करनेका प्रयास) किया था॥९-१०॥

'उसके कारण ही दशमुख राक्षस रावणने यह महान् वैर बाँध लिया और अपने तथा राक्षसकुलके वधके लिये वह सीताजीको हर लाया॥११॥

'दशमुख रावण जनकनन्दिनी सीताको कभी नहीं पा सकेगा; परंतु उसने बलवान् रघुनाथजीसे अमिट वैर बाँध लिया है॥१२॥

'राक्षस विराध विदेहकुमारी सीताको प्राप्त करना चाहता है, यह देख श्रीरामने एक ही बाणसे उसका काम तमाम कर दिया। वह एक ही दृष्टान्त उनकी अजेय शक्तिको समझनेके लिये काफी था॥१३॥

'जनस्थानमें भयानक कर्म करनेवाले चौदह हजार राक्षसोंको श्रीरामने अग्निशिखाके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा कालके गालमें डाल दिया था और सूर्यके सदृश प्रकाशमान सायकोंसे समराङ्गणमें खर, दूषण तथा त्रिशिराका भी संहार कर डाला था; यह उनकी अजेयताको समझ लेनेके लिये पर्याप्त दृष्टान्त था॥१४-१५॥

'रक्तभोजी राक्षस कबन्धकी बाँहें एक-एक योजन लम्बी थीं और वह क्रोधवश बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद करता था तो भी वह श्रीरामके हाथसे मारा गया। वह दृष्टान्त ही श्रीरामचन्द्रजीके दुर्जय पराक्रमका ज्ञान करानेके लिये पर्याप्त था॥१६॥

'मेरुपर्वतके समान महाकाय बलवान् इन्द्रकुमार वालीको श्रीरामचन्द्रजीने एक ही बाणसे मार गिराया। उनकी शक्तिका अनुमान लगानेके लिये वह एक ही उदाहरण काफी है॥१७॥

'सुग्रीव बहुत ही दुःखी और निराश होकर ऋष्यमूक पर्वतपर निवास करते थे; परंतु श्रीरामने उन्हें किष्किन्धाके राजसिंहासनपर बिठा दिया। उनके प्रभावको समझनेके लिये वह एक ही दृष्टान्त पर्याप्त है॥१८॥ 

'विभीषणने जो धर्म और अर्थसे युक्त बात कही थी, वह सभी राक्षसोंके लिये हितकर तथा युक्तियुक्त थी; परंतु मोहवश रावणको वह अच्छी न लगी। यदि कुबेरका छोटा भाई रावण विभीषणकी बात मान लेता तो यह लङ्कापुरी इस तरह दुःखसे पीड़ित हो श्मशानभूमि नहीं बन जाती॥१९-२०॥

'महाबली कुम्भकर्ण श्रीरामके हाथसे मारा गया। दुःसह वीर अतिकायको लक्ष्मणने मार गिराया तथा रावणका प्यारा पुत्र इन्द्रजित् भी उन्हींके हाथसे मारा गया तथापि रावण भगवान् श्रीरामके प्रभावको नहीं समझ रहा है॥२१॥

'हाय, मेरा बेटा मारा गया।' 'मेरे भाईको प्राणोंसे हाथ धोना पड़ा।' 'रणभूमिमें मेरे पतिदेव मार डाले गये।' लङ्काके घर-घरमें राक्षसियोंके ये शब्द सुनायी देते हैं॥२२॥

'समराङ्गणमें शूरवीर श्रीरामने जहाँ-तहाँ सहस्रों रथों, घोड़ों और हाथियोंका संहार कर डाला है। पैदल सैनिकोंको भी मौतके घाट उतार दिया है॥२३॥

'जान पड़ता है, श्रीरामका रूप धारण करके हमें साक्षात् भगवान् रुद्रदेव, भगवान् विष्णु, शतक्रतु इन्द्र अथवा स्वयं यमराज ही मार रहे हैं॥२४॥

'हमारे प्रमुख वीर श्रीरामके हाथसे मारे गये। अब हमलोग अपने जीवनसे निराश हो चली हैं। हमें इस भयका अन्त नहीं दिखायी देता, अतएव हम अनाथकी भाँति विलाप कर रही हैं॥२५॥

'दशमुख रावण शूरवीर है। इसे ब्रह्माजीने महान् वर दिया है। इसी घमंडके कारण यह श्रीरामके हाथसे प्राप्त हुए इस महाघोर भयको नहीं समझ पाता है॥२६॥

'युद्धस्थलमें श्रीराम जिसे मारनेको तुल जायँ, उसे न तो देवता, न गन्धर्व, न पिशाच और न राक्षस ही बचा सकते हैं॥२७॥

'रावणके प्रत्येक युद्धमें जो उत्पात दिखायी देते हैं, वे रामके द्वारा रावणके विनाशकी ही सूचना देते हैं॥२८॥

'ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर रावणको देवताओं, दानवों तथा राक्षसोंकी ओरसे अभयदान दे दिया था। मनुष्योंकी ओरसे अभय प्राप्त होनेके लिये इसने याचना ही नहीं की थी॥२९॥

'अतः मुझे ऐसा जान पड़ता है कि यह निःसन्देह मनुष्योंकी ओरसे ही घोर भय प्राप्त हुआ है, जो राक्षसों तथा रावणके जीवनका अन्त कर देनेवाला है॥३०॥

'बलवान् राक्षस रावणने अपनी उद्दीप्त तपस्या तथा वरदानके प्रभावसे जब देवताओंको पीड़ा दी, तब उन्होंने पितामह ब्रह्माजीकी आराधना की॥३१॥

'इससे महात्मा ब्रह्माजी संतुष्ट हुए और उन्होंने देवताओंके हितके लिये उन सबसे यह महत्त्वपूर्ण बात कही॥३२॥

'आजसे समस्त दानव तथा राक्षस भयसे युक्त होकर ही नित्य-निरन्तर तीनों लोकोंमें विचरण करेंगे'॥३३॥

'तत्पश्चात् इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर त्रिपुरनाशक वृषभध्वज महादेवजीको संतुष्ट किया॥३४॥

'संतुष्ट होनेपर महादेवजीने देवताओंसे कहा—'तुम लोगोंके हितके लिये एक दिव्य नारीका आविर्भाव होगा, जो समस्त राक्षसोंके विनाशमें कारण होगी॥३५॥

'जैसे पूर्वकल्पमें देवताओंद्वारा प्रयुक्त हुई क्षुधाने दानवोंका भक्षण किया था, उसी प्रकार यह निशाचरनाशिनी सीता रावणसहित हम सब लोगोंको खा जायगी॥३६॥

'उद्दण्ड और दुर्बुद्धि रावणके अन्यायसे यह शोकसंयुक्त घोर विनाश हम सबको प्राप्त हुआ है॥३७॥

'जगत्में हम किसी ऐसे पुरुषको नहीं देखती हैं, जो महाप्रलयके समय कालकी भाँति इस समय श्रीरघुनाथजीसे संकटमें पड़ी हुई हम राक्षसियोंको शरण दे सके॥३८॥

'हम बड़े भारी भयकी अवस्थामें स्थित हैं। जैसे वनमें दावानलसे घिरी हुई हथिनियोंको कहीं प्राण बचानेके लिये जगह नहीं मिलती, उसी तरह हमारे लिये भी कोई शरण नहीं है॥३९॥

'महात्मा पुलस्त्यनन्दन विभीषणने समयोचित कार्य किया है। उन्हें जिनसे भय दिखायी दिया, उन्हींकी शरणमें वे चले गये'॥४०॥

इस प्रकार निशाचरोंकी सारी स्त्रियाँ एक-दूसरीको भुजाओंमें भरकर आर्तभाव एवं विषादग्रस्त हो गयीं और अत्यन्त भयसे पीड़ित हो अति भयंकर क्रन्दन करने लगीं॥४१॥

 

*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें चौरानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९४॥*