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॥श्री अग्र भागवत॥
अठारहवाँ अध्याय
हर्ष
॥जैमिनिरुवाच॥
मुक्ताफलचतुष्केऽथ तेऽग्रसेनश्च माधवीम्।
सभायां नागराजस्य ह्युपावेश्याभ्यपूजयन्॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं—विवाह के उपरांत नागराज महीधर की उस सभा में मोतियों की चौकी पर नागकन्या माधवी को जामाता श्री अग्रसेन सहित बैठाकर उनका पूजन सत्कार इत्यादि किया गया।
तदा स्वल्पेन कालेन गार्ग्येण सह दम्पती।
अथाध्वविधिना तौ तु सप्तरात्रोषितौ पथि॥२॥
विदाई के पश्चात वे दोनों (श्री अग्रसेन और माधवी जी) महर्षि गर्ग को आगे कर (नेतृत्व में) सभी सहयोगियों के साथ (आग्रेय वापिस पहुँचने हेतु यात्रा करने लगे। मार्ग में नियमानुसार चलते हुए उन्होंने बीच-बीच में सात रात्री विश्राम किया।
जग्मतुः सहितौ सर्वैर्मुदा परमया युतौ।
पुरम् आग्रेयमाप्तौ तावग्रसेनश्च माधवी॥३॥
इस प्रकार परमानन्द से सम्पन्न वे दोनों उन सभी के साथ थोड़े ही दिनों में अपने गणराज्य में जा पहुँचे।
यथोचितं पुरी सैव यथा सम्यग्व्यशोभत।
तयोर्नवोढयोर्हेतोर्यथैवेन्द्रपुरी तथा॥४॥
सर्वां पुरी सा प्रहृष्टा मुदिता परमशोभत।
मुदितास्ते स्म गायन्ति राजमार्गेषु गायकाः॥५॥
वह आग्रेय पुरी यथोचित रीति से उनके स्वागत में जुटी थी। उस नवदम्पत्ति के आगमन से वह पुरी इन्द्रोत्सव के समान शोभा से सम्पन्न हो हर्ष से खिल उठी। वहाँ सर्वत्र अति आनंद छाया हुआ था। राज्य मार्ग पर गायक प्रसन्नतापूर्वक मंगल गान कर रहे थे।
माधवी चाग्रसेनश्च सम्प्राप्तौ लोकविश्रुतौ।
विचेता मलिनो दीनो न कश्चिद् तत्पुरे तदा॥६॥
लोक विख्यात यह नव दम्पत्ति श्री अग्रसेन और नागसुता माधवी देवी दीन, मलिन व उदास चित्त लोगों से सर्वथा रहित अपनी आग्रेय पुरी में पधारे।
ततः काले शिवे पुण्ये ह्यग्रसेनस्य तौ पुरा।
प्रविष्टौ हृष्टवदनौ चन्द्रादित्याविवाचलम्॥७॥
तदनंतर मंगलमय पुण्य मुहुर्त में उन्होंने आग्रेय नगरी में उसी प्रकार प्रवेश किया जिस प्रकार मानो सूर्य और शशि सुमेरू पर्वत की गुफा में प्रवेश कर रहे हों। उस समय उन दोनों के मुख प्रसन्नता से मुखरित थे।
प्रविशन्तौ पुरीं वीक्ष्य नागरो हि महाजनः।
हर्षेण महता युक्तः सम्मुखोऽभूज्जनाधिप॥८॥
नगर में प्रवेश करते हुए उस नव-दंपत्ति को देखकर नागरिकों का विपुल जन समूह अत्यंत हर्ष से उल्लासित होकर उनका स्वागत करने के लिये उनके समक्ष आ उपस्थित हुआ।
प्रत्याययुश्च तौ प्राप्तौ सर्वे सौम्यपुरोगमाः।
आवृतौ ददृशुर्हृष्टा लोकैर्बहुविधैर्धनैः॥९॥
जब महाराजा श्री अग्रसेन विवाह करके नगर के निकट पहुँचे, तब माता वैदर्भी तथा अनुज शौर्यसेन के साथ ही उनके संरक्षक व प्रतापपुर के पूर्व पुरोहित सौम्य ऋषि पुरजनों के साथ उनकी अगवानी करने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक महाराजा अग्रसेन, नागसुता माधवी देवी और उनके बारातीदल को अनेक प्रकार के धनों (घोड़े, हाथी, स्वर्ण रत्नादि) के साथ आते देखा।
गृहीत्वा माधवीं देवीमागच्छन्तं जनाः प्रभुम्।
ददृशुः कामसङ्काशं कान्तया सह सङ्गतम्॥१०॥
नागकन्या माधवी देवी को साथ लेकर महाराजा अग्रसेन अपने मनोहारी नगर में आए। उस समय वे अपनी प्रिय भार्या के साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे मानो रति और कामदेव हों।
पश्यन्तो हृष्टवदनाः पिबन्तो नयनैश्च ते।
तं विनीतमुखं दृष्ट्वा प्रशशंसुः पदे पदे॥११॥
दर्शक पुलकित होकर नयनों से उनकी रूप माधुरी का रसपान कर रहे थे। श्री अग्रसेन उनके नयनों के लिये उत्सव स्वरूप हो गए थे। वे लजाते हुए पग-पग आगे बढ़ रहे थे और महारानी के विनीत मुखारविंद के दर्शन कर रहे थे।
सोऽभ्यानमत् प्रसूपादौ वैदर्भ्यानन्दवर्धनः।
पुत्रमाश्लिष्य माताऽपि हर्षादश्रूण्यवर्तयत्॥१२॥
राजमाता वैदर्भी का आनंद बढ़ाने वाले श्री अग्रसेन ने निकट आकर माता भगवती के चरणों में प्रणाम किया। अपने पुत्र (अग्रसेन) का आलिंगन कर माता वैदर्भी के नयनों से हर्ष के अश्रु बह पड़े।
शौर्यसेनोऽग्रसेनस्य ववन्दे चरणौ रुदन्।
वाष्पैः पिहितकण्ठश्च व्याहर्तुं नाशकत् तदा॥१३॥
प्रसन्नता के अश्रु छलकाते हुए रूदन करते हुए शौर्यसेन ने श्री अग्रसेन के चरणों में वन्दन किया। आँसुओं से उनका गला रुंध सा गया था और तब उनसे कुछ बोला न जा सका।
श्वश्रूरवोचद् विनतां स्नुषां चोत्थाप्य सादरम्।
परिष्वज्योपसङ्गृह्य स्नेहाद् गद्गदभाषिणी॥१४॥
तदनंतर नागकन्या माधवी जी ने भी अपनी श्वासुमाता वैदर्भी के श्रीचरणों में अभिवादन किया। तब माता भगवती ने उन्हें उठाकर स्नेह से गले लगा लिया तथा सर्वतोभावेन अपनाकर स्नेहयुक्त वाणी से उनका स्वागत किया।
प्रहर्षमतुलं लब्ध्वा भगवत्यब्रवीत् तदा।
जैमिनी जी कहते हैं—जनमेजय! तदनंतर अत्यंत हर्ष विभोर होकर माता भगवती ने कहा—
॥वैदर्भी उवाच॥
प्रवेशयैनां भवनं पूज्यां ज्येष्ठां स्नुषां मम॥१५॥
माता वैदर्भी ने कहा—यह मेरी आदर के योग्य ज्येष्ठ बहु है, इन्हें भवन के भीतर ले चलें।
अहो धन्यतरास्मीति वीरपुत्रसमागमात्।
अद्य मे सफलः कामः पूर्णों मेऽद्य मनोरथः॥१६॥
अहो! आज वधु के साथ पुत्र के मिल जाने से इस दूनी प्रसन्नता को प्राप्त कर मैं तो परम धन्य हो गई। अब मेरी समस्त कामनाएँ सफल हो गईं। मेरा सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो गया।
चिरप्रणष्ट पुत्रस्य दर्शनं प्रियाया सह।
आगच्छ पुत्र भवनं सभायाः प्रविशेह च॥१७॥
यह मेरा परम सौभाग्य ही तो है कि चिरकाल से बिछुड़े हुए पुत्र का आज सहसा मुझे उसकी प्रिय पत्नी के साथ दर्शन हुआ। आओ पुत्र! अपनी पत्नी के साथ ही तुम भी भवन में प्रवेश करो।
॥जैमिनिरुवाच॥
स पञ्चमे ततो वर्षे मात्रा सङ्गम्य सानुजः।
सर्वकामैः सुसिद्धार्थो लब्धवान् परमां मुदम्॥१८॥
जैमिनी जी कहते हैं—इस प्रकार श्री अग्रसेन पाँच ही वर्षों में अपने प्रिय अनुज एवं माता से मिलकर सम्पूर्ण कामनाओं (स्वनिर्मित राज्य, नागकन्या परमसुंदरी सुशीला भार्या, परम ऐश्वर्य, जगदम्बा महालक्ष्मी की कृपा, महर्षि गार्ग्य का दिशादर्शन एवं श्रेष्ठ प्रजा) को प्राप्त कर सफल मनोरथ हो अत्यंत आनन्दमग्न हो गए।
ततः प्रतिगृहीता सा स्त्रीभिराचारमङ्गलैः।
क्रीडन्ति स्म प्रगायन्ति नार्यो मदवशं गताः॥१९॥
तदनंतर वहाँ उपस्थित महिलाओं ने मंगलाचारपूर्वक वधु माधवीजी को ग्रहण किया। वहाँ नारियाँ आनन्द में मत्त होकर नाचने लगीं, गाने लगीं, तथा भाँति-भाँति की मोहक क्रीड़ाएँ करने लगीं।
माधवी क्षौमसंवीता कृतकौतुकमङ्गला।
कृताभिवादना श्वश्र्वास्तस्थौ प्रह्वा कृताञ्जलिः॥२०॥
रेशमी वस्त्र धारण किए हुए महारानी माधवी देवी सभी मांगलिक कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् श्वासुमाता (सास) के श्रीचरणों में अभिवादन कर उनके पास विनीत भाव से खड़ी हो गईं।
रूपलक्षणसम्पन्ना शीलाचारसमन्विता।
माधवीमवदत् प्रेम्णा श्वश्रूराशीर्वचः स्नुषाम्॥२१॥
सुन्दर रूप तथा उत्तम लक्षणों से सम्पन्न शील और सदाचार से सुशोभित अपनी पुत्रवधु माधवी जी को माता भगवती प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देती हुई कहने लगीं—
॥वैदर्भी उवाच॥
पतिव्रता च सुभगा बहुसौख्यसमन्विता।
यथा नारायणे लक्ष्मीस्तथा त्वं स्या ममात्मजे॥२२॥
माता वैदर्भी ने कहा—हे पुत्रवधु! तुम अनन्त सौख्य से सम्पन्न होकर सौभाग्यशालिनी अर्धांगिनी एवं पतिव्रत का पालन करने वाली रहो। जिस प्रकार महालक्ष्मी भगवान् नारायण में भक्तिभाव एवं प्रेम रखती हैं, उसी प्रकार तुम अपने पति अग्रसेन में सदैव अनुरक्त रहो।
कल्याणि त्वं गुणवती सुखिनी शरदां शतम्।
पत्या त्वमभिषिच्यस्व राज्ञा त्वं धर्मवत्सला॥२३॥
हे कल्याणमयी, गुणवन्ती वधु! तुम सुखपूर्वक सौ शरद आनन्द से बिताओ। पति के अनुकूल ही तुम्हारा राजरानी के पद पर अभिषेक हो। धर्म के प्रति तुम्हारे हृदय में स्वभाविक स्नेह हो।
अखण्डसौभाग्यवती शुभा वंशविवर्धनी।
जीवसूर्वीरसूर्भद्रे भूया इत्यभिनन्दनम्॥२४॥
हे भद्रे! तुम अखण्ड सौभाग्यवती हो! तुम शुभ वंश का वर्धन करने वाली बनो। जब तुम दीर्घजीवी वीर पुत्रों की जननी बनोगी, उस समय भी मैं तुम्हारा पुनः अभिनन्दन करूँगी।
॥जैमिनिरुवाच॥
महाभागा माधवी च सखीभिः परिवारिता।
रमते परया प्रीत्या चाग्रसेनेन सङ्गता॥२५॥
जैमिनी जी कहते हैं—वहाँ महाभागा, सौभाग्यवती माधवीजी सखियों से सेवित हो उनसे घिरी रहती थीं, और महाराजा अग्रसेन के साथ बड़ी प्रसन्नता से आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करती थीं।
मदनः किं शिवाद् भीतः प्रविष्टस्तां विभाति मे।
नराणामपि नारीणां वेषैर्दिव्यैर्मनोरमाम्॥२६॥
नर-नारियों की दिव्य विविध वेशभूषाओं के कारण यह नगरी अत्यंत मनोरम लगने लगी। ऐसा प्रतीत होता था मानो शिवजी से भयभीत होकर कामदेव साक्षात् आग्रेय नगरी में प्रविष्ट होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे हों।
अथाग्रसेनः कल्याण्या रममाणस्तु कानने।
अम्लानपङ्कजा किञ्चिद् अपश्यत् सुमहत्सरः॥२७॥
एक दिन महाराजा अग्रसेन नागकन्या (माधवीजी) के साथ वन में विहार कर रहे थे। वहाँ उन्होंने अम्लान (बिना मुरझाई) कमलिनियों से सुशोभित सुंदर सरोवर को देखा।
॥अग्रसेन उवाच॥
इमां माधवि पश्य त्वं रविभार्यामनिन्दिताम्।
निजकान्तं वञ्चयित्वा भ्रमरान् रमयत्यहो॥२८॥
तब श्री अग्रसेन ने (हास्य करते हुए) कहा—माधवीदेवी! तुम सूर्य की इस अनन्त सुन्दरी भार्या कमलिनी को देखो। यह निर्लज्ज अपने पति को धोखा देकर रसलोलुप भ्रमरों के साथ रमण कर रही है।
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रसेन वचः श्रुत्वा माधवी वाक्यमब्रवीत्।
स्मितं कृत्वा विशालाक्षी वक्रोक्त्या तं नृपं प्रति॥२९॥
(इस परिहास में नारी के चरित्र पर कमलिनी के माध्यम से श्री अग्रसेन ने व्यंग किया है।)
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार श्री अग्रसेन के नारी चरित्र पर संदेहात्मक व्यंग्य वचनों को सुनकर विशाल नेत्रों वाली माधवी जी मुस्कुरा कर उन राजेन्द्र श्री अग्रसेन से वक्रोक्ति पूर्वक कहने लगीं।
॥माधव्युवाच॥
स्वसुतानागतान् मत्वा पुष्णात्येषा गृहागतान्।
पुत्रपौत्रादिकान् नाथ षट्पदादीन् नृपुङ्गव॥३०॥
माधवी देवी ने कहा—हे नरश्रेष्ठ! यह कमलिनी (नायिका) इन भ्रमरों को घर वापिस आए पुत्र जानकर वात्सल्य भाव से ही इनका पोषण करती है। (पति तो सूर्य हैं) ये भ्रमरादि तो इसके पुत्र-पौत्र आदि हैं, जिनका यह पद्मिनी पालन पोषण करती है।
स्तनौ रुदन्तौ पद्मिन्याः पिबतो भ्रमराविमौ।
प्राणनाथ समीपे तु षट्पदौ बालकाविव॥३१॥
हे प्राणनाथ! देखिये न! उस (पद्मा) कमलिनी के समीप वे दोनों भ्रमर बालकों की तरह रो रहे हैं और वह पद्मा माता की भाँति उन्हें स्तनपान करा रही है।
प्राणनाथोदिते भानौ पद्मिनी विकचा यदि।
विलोक्य नलिनीं नाथ विस्मितोऽसि कुतोऽधुना॥३२॥
हे प्राणनाथ! अपने प्रियतम सूर्य के आगमन (उदित होने) पर उसके सम्पर्क से यह पद्मिनी विकसित होती है (और उससे ही कमल की उत्पत्ति होती है।) हे नाथ! अब आप ही बताइयेगा—पद्मिनी को देखकर आप इस तरह विस्मित क्यों हो गए? (क्या यह पुरुषों में विद्यमान रहने वाली दुर्भावना नहीं?)
दोषः कश्चात्र राजेन्द्र रुचिरं क्रियतेऽनया।
न तु नाथं वञ्चयति पद्मिन्याश्चरितं महत्॥३३॥
हे नरेन्द्र! इसमे दोष की क्या बात है? वह तो बहुत अच्छा कर रही है। (पुत्र स्नेहयुक्त वात्सल्यमूर्ति, ममतामयी कमलिनी के इस उपक्रम में दोष कहाँ?) वह अपने पति सूर्य को धोखा नहीं दे रही। (वह तो उसके दर्शन मात्र से प्रफुल्लित हो खिल उठती है और उसके परदेश चले जाने पर दुःख से मुरझा जाती है) हे नाथ! कमलिनी का तो यह महान् चरित्र है।
रात्रौ विरहिणी बालं गृहीत्वा पश्य षट्पदम्।
नित्यं निद्रां न कुरुते ह्येष धर्मः सनातनः॥३४॥
देखिये न नाथ! यह विरहिणी पद्मिनी नित्य ही (अपने पति के लिये चिन्तामग्न हो अन्तोगत्वा बेचारी) अपने भ्रमर रूपी बालकों को गोद में लेकर अपने जीवन की कष्टमय रात गुजारती है। यही तो नारी का सनातन धर्म है।
॥जैमिनिरुवाच॥
इति तस्या वचः श्रुत्वा त्वग्रस्तोषसमन्वितः।
तया सुसङ्गतो जातः पुत्रदर्शनलालसः॥३५॥
जैमिनी जी कहते हैं—राजन्! महारानी माधवी देवी के इस प्रकार सार गर्भित वचनों से महाराजा श्री अग्रसेन परम संतुष्ट तथा आनंदित हुए और.....उनके हृदय में भी पुत्र–पौत्रादिक दर्शन की लालसा उत्पन्न हो गई।
प्रजाः स्वस्था ह्यवर्तन्त विप्रा वेदपरायणाः।
फलन्ति सततं वृक्षा लताः पुष्पफलन्विताः॥३६॥
राजन्! उस समय आग्रेय राष्ट्र की समस्त प्रजा स्वस्थ (शरीर और मन दोनों से) थी। ब्राह्मण वेदाध्यन में रत रहते थे, वृक्ष सदा फलित होते थे, लताएँ सदा पुष्पित रहती थीं।
नराः सत्यव्रतास्तत्र नार्यश्च पतिसेविकाः।
चिन्तनं श्रीमहालक्ष्म्याः नान्यां चिन्तां प्रकुर्वते॥३७॥
वहाँ के निवासी पुरुष सत्यव्रती और नारियाँ पति-परायणा तथा सेवाभावी थीं। वहाँ के नर-नारी जगन्माता महालक्ष्मी के चिन्तन के अतिरिक्त किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करते।
यथातृप्ति पयः पीत्वा वत्सा यत्रोपरेमिरे।
गोपाला दुदुहस्तत्र घटोध्नीर्गाः शुभास्तदा॥३८॥
वहाँ बछड़े (गोवास) तृप्ति पर्यन्त दूध पीकर ही गायों के थनों से विलग होते थे। उस समय गोपालक (ग्वाले) घड़ों के समान थनों वाली सुन्दर गायों को ही दुहते थे।
पुण्यं धनं सुखं धर्मो देवोद्यानञ्च कौतुकम्।
सम्पत्तिर्बहुला यत्र हासश्रीस्तत्र जायते॥३९॥
वह आग्रेय राज्य पुण्य, धन, सुख और धर्म से परिपूरित है, वहाँ की वाटिकाएँ देवोद्यान सी प्रतीत होती हैं। वहाँ की विपुल सम्पदाएँ मानो तीनों लोकों का उपहास कर रही हों।
यत्राग्रेयजनाः पुण्यप्रिया धनविभूषिता।
रमारूपास्तु कामिन्यो नरा माधवरूपिणः॥४०॥
आग्रेय निवासी पुण्य से प्रेम करने वाले तथा धर्म के आभूषणों से युक्त हैं। राजन्! वहाँ नारियाँ साक्षात् लक्ष्मी का स्वरूप और नर नारायण के समान हैं।
आग्रेये मध्यदेशे च महालक्ष्मालयः शुभः।
तन्मध्ये च श्रियं नित्यं पूजयेन्निशि वा दिवा॥४१॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! आग्रेय के मध्य-स्थल पर श्री महालक्ष्मीजी का शुभ मंदिर है, जिसमें अहोरात्र (रात-दिन) देवी महालक्ष्मी का पूजन-अर्चन होता रहता है।
किमत्र वर्ण्यतेऽग्रस्य पुरे श्रीर्जनमेजय।
सर्वा व्याप्य दिशो याऽत्र स्वभाभिर्भासतेऽभितः॥४२॥
हे राजेन्द्र जनमेजय! आग्रेय की किस-किस वस्तु के सौंदर्य का, वैभव का वर्णन किया जाए। महाराजा अग्रसेन की इस पुरी में साक्षात् महालक्ष्मी सभी वस्तुओं में अपनी अनंत कलाओं सहित व्याप्त होकर समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हुए विराजमान हैं।
सुचित्रं सुखसम्पूर्णं नित्योत्सवविभूषितम्।
द्वितीयमिव वैकुण्ठं स्थापितं विष्णुना हि तत्॥४३॥
सुख से परिपूर्ण वह (आग्रेय) सुन्दर, सुसज्जित और प्रतिदिन उत्सवों से विभूषित रहता है। वहाँ तो ऐसा प्रतीत होता है– मानो भगवान् विष्णु ने भूतल पर दूसरा 'वैकुण्ठ' ही स्थापित कर दिया हो।
य एतद् अग्रसेनस्य माधव्याश्चरितञ्च यद्।
शुणुयात् सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः॥४४॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे परम जिज्ञासु महाप्राज्ञ जनमेजय! जो प्राणी नागसुता सहित श्री अग्रसेन के इस पावन चरित्र को सुनता-सुनाता है, उसके सम्पूर्ण पाप विनिष्ट हो जाते हैं—इसमें कोई संदेह नहीं।
॥जैमिनिरुवाच॥
इदमाख्यानमायुष्यं यः शृणोति मुनीश्वर।
परमं जायते सौख्यं पुण्यं तस्य नरस्य हि॥४५॥
हे महाप्राज्ञ जनमेजय! श्री अग्रसेन के इस पुण्य प्रदान करने वाले आख्यान को सुनने वालों को (श्री अग्रसेन की तरह ही) सभी सुख, सौख्य सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं और उस मनुष्य को सर्वत्र परम आनन्द की प्राप्ति होती है।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते अष्टादशोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।