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॥श्री अग्र भागवत ॥

 

अष्टम अध्याय

 

तपस्या

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
तं पार्थिवोऽथ संक्लिश्यन् छिन्नमूल इव द्रुमः। 
प्रपच्छ वाक्यं हेत्वर्थसंयुतार्थं शुचो हरन्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे जनमेजय! तब एक दिन पुनः श्री अग्रसेन जी को विगत घटनाओं का स्मरण होने पर वे जड़ से कटे वृक्ष की भांति शुष्क दिखाई दे रहे थे। उन्हें क्लेश युक्त देख कर महामुनि गर्ग ने युक्ति संगत एवं परम हितकारी प्रयोजन पूर्ण श्रेष्ठ मार्गदर्शक वचन कहे—

 

॥ गार्ग्य उवाच ॥ 
त्यज राजन्निमं शोकं मिथ्यासन्तापकारणम्। 
इयं सा त्यज्यतां चिन्ता पुरुषार्थविनाशिनी॥२॥

महर्षि गर्ग ने कहा— हे राजन्! इस संतापकारी मिथ्या शोक को त्यागो! और अपने हृदय को व्यर्थ चिंताओं से मुक्त करो! क्योंकि चिंता पुरुषार्थ का विनाश करती है, अतः चिंता का त्याग करना ही योग्य है।

 

अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः परं सुखम्। 
अनिर्वेदो हि सततं सर्वार्थेषु प्रवर्तकः॥३॥ 

हे वत्स! हताश न होकर उत्साह को बनाए रखना ही समृद्धि का मूल कारण है और परम सुख का आधार भी। उत्साह ही प्राणियों को सर्वदा सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त करता है।

 

करोति तत्फलं जन्तोः कर्म यच्च कृतं पुरा।
न विषादस्य कालोऽयमिति सत्त्वं समाश्रय॥४॥

वत्स! उत्साह पूर्ण किए गए कार्यों में सफलता निश्चित ही मिलती है। यह विषाद करने का समय नहीं है, अतएव धैर्य का आश्रय ले अपने तेजमय आत्मबल को जागृत करो।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
हीनश्रियो ममोद्धारे नोपायो दृश्यते मुने। 
परित्राणाय मे ब्रूहि रहस्साधनमद्भुतम्॥५॥

तदनंतर गर्दन झुकाए हुए नीचे मुख किए चिंता से युक्त दुःख से कांतिहीन प्रतीत होते हुए श्री अग्रसेन ने कहा— मुनिवर! आप इस महद् दुःख से पारित्राण हेतु उपयुक्त अद्भुत रहस्य को कहिये। महर्षे! मुझे वह रहस्य बताइये, जिससे मैं इस अपार दुःख के सागर को पार कर सकूँ।

 

॥ गार्ग्य उवाच ॥ 
इदमाख्यातवान् वत्स! ममाख्यानं महामुनिः। 
मार्कण्डेयः पुरा राजन् गङ्गाकूले कथान्तरे॥६॥

महर्षि गर्ग ने कहा— राजन्! पूर्वकाल में गंगा के किनारे कथावार्ता के मध्य महामुनि मार्कण्डेय जी ने मुझे जो उत्तम आख्यान सुनाया था, वह ही मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

 

शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि चेष्टितं सुरथस्य हि। 
अमात्यैर्बलिभिः दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः॥७॥

वत्स अग्रसेन! पूर्वकाल में एक सुरथ नाम का नीतिवान राजा था। कोलध्वंसी राजाओं द्वारा परास्त हो जाने पर उसका बल क्षीण हो गया। तब उसके बलवान लेकिन दुष्ट व दुरात्मा मंत्रियों ने राज्य की सेना तथा कोष पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। तब दुःखी राजा सुरथ ने जो किया वह तुम सुनो।

 

स तद्राज्यापहरणं सुहृत्त्यागं च सर्वशः। 
वने च तं परिध्वंसं प्रेक्ष्य चिन्तामुपेयिवान्॥८॥

तब राजा सुरथ अपने राज्य के छिन जाने के कारण तथा सभी सुहृदयों द्वारा त्याग दिये जाने के कारण अपने विनाश की कल्पना करते हुए चिंताग्रस्त होकर वन में चले जाने का विचार करने लगे। ज्ञातव्य है कि दुःख के समय परछाई भी अपना साथ छोड़ देती है, उसी तरह स्वजनों से भी ऐसी परिस्थिति में सहानुभूति की अपेक्षा, उपेक्षा ही उपलब्ध होती है।

 

स ततो मृगयाव्याजात् हृतस्वाम्यो नृपोत्तमः। 
सन्तप्तस्सन् जगामाथ मुनेर्मेधाविनो वनम्॥९॥

इस प्रकार नष्टप्राय प्रभुत्ववाला वह संतप्त 'राजा सुरथ' अंततः शिकार खेलने का बहाना कर मेधा मुनि के आश्रम में आ गया।

 

समाधिर्नाम वैश्योऽपि सङ्गतस्तेन तत्र हि। 
सुरथस्तं नमस्कृत्य तान् मुनीनब्रवीद् वचः॥१०॥

तदनंतर राजा सुरथ व समाधि नामक वैश्य, जो कि अपनी दुष्ट पत्नी व पुत्रों द्वारा धन के लोभ में घर से निकाल दिया गया था, और वह धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्रादि से विहीन हो गया था। (दुर्गा सप्त.॥१॥२२॥) वहाँ आकर मेधा मुनि के चरणों में नमन करके महामुनि से अपनी व्यथा कहने लगे।

 

॥ सुरथ उवाच ॥
बहुदुःखपरिक्लेशं मानुष्यमिह दृश्यते। 
मानवा येन हृष्यन्ति तमुपायं मुने वद॥११॥

सुरथ ने कहा— हे महामुने! मानव मात्र इस प्रकार अनेकों दुःखों से क्लेश को प्राप्त होते दिखाई देते हैं। हे प्रभो! मानव सुख और आनन्द को प्राप्त कर सके, कृपया ऐसा कोई उपाय बताइये।

 

॥ मार्कण्डेय उवाच ॥
श्रुत्वा मुनेस्तस्य वाक्यं वरीवर्ति भ्रमो वृथा। 
इति यो वक्ति को वक्ता यस्मादेतत् तमाश्रये॥१२॥ 

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा— तब मेधा मुनि के द्वारा ज्ञान कराए जाने पर उनका वह भ्रम दूर हो गया और उन्हें माया के मोह में जकड़े जगत् का वास्तविक ज्ञान हुआ, इस प्रकार मेधा मुनि ने उन आश्रयहीनों को आश्रय प्रदान किया।

 

महामायाप्रभावेण तया संमोह्यते जगत्। 
ज्ञानिनामपि चेतांसि हरेश्चैषा दुरत्यया॥१३॥

मेधा मुनि ने उन्हें बताया कि यह सारा जगत् महामाया के प्रभाव से ही सम्मोहित हो रहा है। यह जगदीश्वर भगवान विष्णु की माया ही है, जिससे बड़े बड़े ज्ञानी तथा ध्यानी भी मोहित हो जाते हैं।

 

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति। 
तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्॥१४॥

राजन्! महामाया ज्ञानियों के चित्त को भी बलपूर्वक आकृष्ट कर मोहजाल में डाल देती है (ज्ञातव्य महामाया ने ही भगवान् द्वारा विनय किये जाने पर मधुकैटभ को भी मोह में डालकर उनमें अभिमान उत्पन्न कर दिया था और वहीं उनके विनाश का कारण बना।) वस्तुतः सम्पूर्ण चर-अचर जगत् महामाया के द्वारा ही रचा गया है।

 

सा विद्या हि परा भुक्तेर्मुक्तेर्हेतुः शिवेश्वरी। 
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये॥१५॥

वे ही परा विद्या है, वे ही मोक्ष की हेतुभूता (कारणीभूत) हैं, तथा वे ही सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं। वे प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मोक्ष (अक्षय धाम) का वरदान तक देती हैं।

 

एतत्ते कथितं सर्वं देवीमाहात्म्यमुत्तमम्। 
एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥१६॥

इस प्रकार राजन्! मैंने तुमसे देवी के उत्तम महात्म का वर्णन किया। देवी का ऐसा प्रभाव है कि वे अपने प्रभाव से ही जगत् को धारण कर रखी है।

 

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया। 
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥१७॥
 
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे। 
शरणं त्वं तामुपैहि भोगस्वर्गापवर्गदाम्॥१८॥

वे ही विद्या की देवी हैं, ज्ञान वे ही उत्पन्न करती हैं। भगवान् विष्णु की माया स्वरूप महामाया महालक्ष्मी के द्वारा ही, राजन्! तुम तथा यह वैश्य ही नहीं, प्रत्युत अन्यान्य बड़े बड़े विवेकी जन भी उनकी माया से मोहित होते रहते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होते रहेंगे। तुम उन्हीं देवी की शरण में जाओ। वे ही जगत् के समस्त ऐश्वर्य, भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष की प्रदाता हैं।

 

॥ सुरथ उवाच ॥
आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरूपं येन वा मुने। 
विधिना ब्रूहि तत्सर्वं यथावत्प्रणतस्य मे॥१९॥

सुरथ ने कहा— हे मुनिवर! आपके श्री चरण ही हमारा आश्रय स्थल हैं। मैं आपके ही आश्रित हूँ, अतः मुझे देवी के जिस स्वरूप की आराधना करना चाहिये और उसका विधान क्या है, कृपया यह सब संपूर्ण रूप से बताइये।

 

॥ ऋषिरुवाच ॥
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किंचित्तवावाच्यं नराधिप॥२०॥

मेधा ऋषि ने कहा—हे नराधिप! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं कहा गया है तथापि तुम मुझमें भक्ति भावना रखते हो अतः तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है। (अर्थात् इस परम गोपनीय रहस्य को मैं तुम्हें बताता हूँ।)

 

॥ ऋषिरुवाच ॥
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥२१॥

मेधा ऋषि ने कहा— हे नराधिप! त्रिगुण (सत, रज, तम) मयी परम ईश्वरी (मूलप्रकृति) महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण है (आद्य है)। वे ही संपूर्ण जगत् को अपने दृश्य और अदृश्य रुपों से व्याप्त करके स्थित हैं।

 

त्रिगुणा सा महालक्ष्‌मीः रूपसौभाग्यशालिनी।
चतुर्भुजा बहुभुजा सा पूज्या हि सनातनी॥२२॥

त्रिगुणा महालक्ष्मी कांति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं, वे ही सत्य सनातन हैं। यद्यपि उनकी असंख्य भुजाएँ हैं तथापि उन्हें चार भुजाओं से युक्त मानकर ही उनकी पूजा करना चाहिये।

 

सहस्रभुजा सा वरदा गदार्यब्जैरलङ्कृता। 
पद्मा च कमला लक्ष्मीः श्रीश्च रुक्‌माम्बुजासना॥२३॥

सहस्त्रभुजा महालक्ष्मी की चतुर्भुजाएँ वरद (वरदान से युक्त), चक्र, गदा तथा शंख से अलंकृत हैं। वे इंदिरा, कमला, महालक्ष्मी, श्री तथा स्वर्ण कमलासन पर विराजमान (रुकमाम्बुजासना) आदि नामों से पूजी जाती हैं। 

 

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥२४॥

राजन्! ये महालक्ष्मी ही भगवान विष्णु के साथ इस जगत् का पालन पोषण करती हैं, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो ये तीनों लोक उपासक के आधीन कर देती हैं।

 

निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्। 
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥२५॥

हे राजन्! वे महालक्ष्मी ही निराकार और साकार रूप में (अनन्त) नानाप्रकार के रूप धारण करती हैं। सगुण वाचक (सत्य, ज्ञान, चित्त महामाया आदि) विभिन्न नामान्तरों से महालक्ष्मी के स्वरूप का निरूपण करना चाहिये। वैसे तो केवल नाम मात्र से ही नहीं, अपितु अन्य प्रत्यक्ष प्रमाणादि से भी उनके संपूर्ण स्वरूप का वर्णन कदापि संभव नहीं है।

 

॥ मार्कण्डेय उवाच ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः। 
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने॥२६॥

मार्कण्डेय मुनि ने कहा— महामुने! इस प्रकार मेधा मुनि के द्वारा (इस अत्यंत गोपनीय रहस्य को जानकर) ये वचन सुनकर वह नर श्रेष्ठ सुरथ तथा उसके साथ वैश्य समाधि (तपस्या) के लिये चले गए।

 

परितुष्टा जगद्धात्री समाराधयतोस्तयोः। 
इति प्राप्तां नृपो वैश्यो यथाभिलाषितं वरम्॥२७॥

उन दोनों ने ही आत्मा से देवी की आराधना कर अपनी तपस्या से जगत् को धारण करने वाली (दुर्गा स्वरूपा) देवी को परितुष्ट (प्रसन्न) किया। इसप्रकार राजा सुरथ ने (अपनी मनोकामना के अनुकूल स्थिर राज्य) तथा समाधि वैश्य ने (परम मोक्ष का ज्ञान) अपने मनोवांछित वरदान के रूप में प्राप्त किये।

 

॥ गार्ग्य उवाच ॥
अग्रसेन यथाऽऽख्यातम् ऋषिभिः प्रतिबोधितम् । 
महालक्ष्मीमुपास्स्व त्वं जप गुह्यं जयावहम्॥२८॥

महर्षि गर्ग ने कहा— हे अग्रसेन! जैसा पूर्व में ऋषियों द्वारा अनुशंशित है, वह सब (श्री महालक्ष्मी का स्वरूप, प्रभाव, महात्म) मैंने तुम्हें कह सुनाया। वस्तुतः श्री महालक्ष्मी का यह महात्म अत्यन्त गोपनीय है, गूढ़ है, जप किये जाने योग्य है और जय प्रदान करने वाला है।

 

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं पुण्यदं परमं शिवम्। 
इदं रहस्यं परमं दिव्यमूर्तेरभीष्टदम्॥२९॥

राजन्! श्री महालक्ष्मी की दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवांछित फल प्रदान करने वाला व सर्वमंगल, मांगल्य का कारणीभूत, पुण्यदायी, श्रेष्ठतम तथा परम कल्याणकारी अत्यंत गोपनीय रहस्य है।

 

चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्।
महालक्ष्म्याऽ ऽराधनं तत् सर्वैश्वर्यप्रदायकम्॥३०॥

राजन्! श्री महालक्ष्मी का आराधन चिन्ता शोकादि का प्रशामन कर आयु बढ़ाने वाला तथा परम ऐश्वर्य का प्रदायक उत्तमोत्तम है।

 

सर्वशक्त्यात्मिका चैव सृष्टिं व्याप्य व्यवस्थिता। 
प्राणशक्तिः परा ह्येषा सर्वेषां प्राणिनां भुवि॥३१॥

ये श्री महालक्ष्मी ही सर्व शक्तियों में आत्मा (प्राण) स्वरूप व्याप्त हैं, और इस प्रकार वे ही सकल सृष्टि में व्याप्त हैं। वे ही सारे जगत् को व्यवस्थित रखने वाली जगत् की प्राणशक्ति और वे ही जगत् के समस्त प्राणियों में पराशक्ति के रूप में विद्यमान हैं।

 

यो यो जगति पुम्भावः स विष्णुरिति निश्चयः। 
या या नारीभावमाप्ता सा सा लक्ष्मीर्व्यवस्थिता॥३२॥

भगवान् विष्णु जब भी जगत् के प्रति जो-जो हृदय में निश्चित किया करते हैं, उनके संकल्पमात्र से वह सभी नारी भाव से श्री महालक्ष्मी वो-वो, वहाँ-वहाँ व्यवस्थापित कर देती हैं।

 

तत्पार्श्वस्थां महालक्ष्मीं सम्पूज्य श्रीधरप्रियाम्।
कारणत्वे न तिष्ठन्ति जगत्यस्मिंश्चराचरे॥३३॥

हे राजन्! इसलिये तुम सकल चर और अचर जगत् की उत्पत्ति और विनाश की कारण स्वरूपा श्री महालक्ष्मी के इस गूढ़. रहस्यात्मक स्वरूप का चिन्तन मनन कर आश्रयस्वरूपा भगवान विष्णु की प्रिया श्री महालक्ष्मी का पूजन करो।

 

उपासते यथा बालाः मातरं क्षुधयार्दिताः।
उपासते तथा श्रेयस्कामास्ते देहिनः श्रियम्॥३४॥

जिस प्रकार भूख से व्यथित बच्चे माँ के पास जाकर विनय करते हैं, उसी प्रकार कल्याण की इच्छा रखनेवाले प्राणी (सकाम भक्त) इस जगत् में मातेश्वरी श्री महालक्ष्मी की ही उपासना करते हैं।

 

पराप्रकृतिरेवैका श्रीरन्याः करुणाश्रयाः। 
न हि तद् विद्यते लोके तपसा यन्न लभ्यते॥३५॥

श्रीमहालक्ष्मी ही एकमात्र प्रकृतिस्वरूप, पराविद्या, सभी ऐश्वर्यों से युक्त और करुणामयी आश्रय प्रदाता देवी हैं। उनकी तपस्या करने से जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अलभ्य हो अर्थात् सर्वस्व उनकी कृपा पर ही अवलंबित है।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य मुनेरमिततेजसः।
॥ अग्रसेन उवाच ॥
सर्वमेतत् करिष्यामि त्वयोक्तं परमं हितम्॥३६॥

जैमिनी जी कहते हैं— इस प्रकार महामुनि गर्ग के मार्गदर्शक वचन सुनकर श्री अग्रसेन ने कहा— हे पितृवत मुनिवर! मेरा परम हित करने हेतु आपने जिस प्रकार बताया है, मैं उसी प्रकार (श्री महालक्ष्मी को प्रसन्न करने हेतु तपस्या, जप आदि) सब कुछ करूँगा। 

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
कृत्वा मृत्तिकयाऽथ श्रीविग्रहं सुमनोहरम्। आस्थाप्य बहुभिर्मन्त्रैर्विधिनात्राऽभ्यपूजयत्॥३७॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे जनमेजय! तदनंतर श्री अग्रसेन ने उसी आश्रम में माटी से श्री महालक्ष्मी के मनोहारी श्रीविग्रह (मूर्ति) का निमार्ण करके उसकी मंत्रोक्त विधिवत स्थापना की।

 

समारेभे तपोऽश्विन्या मासे याम्ये जयप्रदे। 
अग्रसेनो ध्यायति स्म महालक्ष्मीं तपस्यया॥३८॥

और तब देवी की स्थापना व पूजन के उपरांत अश्विन मास के शुक्लपक्ष की (विजय प्रदाता) उस जयाप्रदा (दशमी) को जप- तप प्रारंभ किया तथा वे श्रीमहालक्ष्मी का ध्यान करते हुए जप-तप में लीन हो गए।

 

संहृत्य मनसाऽऽत्मानं हितकाम्यप्रवृत्तिकः।
विमुक्तगतकल्माष एकाग्रे तपसि स्थितः॥३९॥

मन और बुद्धि को आत्मा में विलीन कर के हित की कामना से सब प्रकार की आसक्तियों से विमुक्त होकर पूर्व संतापो के पाप- ताप से रहित एकाग्रचित्त होकर श्री अग्रसेन तपस्या में स्थिर हो गए।

 

संयुज्य मनसाऽऽत्मानम् अग्र एकपदे स्थितः। 
कर्मणोग्रेण सन् योगी नियमान् सोऽनुपालयन्॥४०॥

इस प्रकार एक ही पैर पर खड़े होकर तपस्या में रत महायोगी श्री अग्रसेन नियमपूर्वक उग्र (घोर) तपस्या करने लगे।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥ 
प्रतोष्यामि महालक्ष्मीम् यथोक्तमृषिभिः पुरा।
बहुरूपा विरूपा च भक्तानां परिरक्षिणी॥४१॥
 
(ध्यान करते हुए) श्री अग्रसेन ने कहा—
निराकार तथा अनन्त साकार रूपों में भक्तों की सदैव रक्षा करने वाली देवी श्री महालक्ष्मी का पूर्व में ऋषियों द्वारा जिस प्रकार स्तवन किया गया था, उसी के अनुरूप मैं जगत् जननी माँ महालक्ष्मी का स्तवन करता हूँ।

 

॥ महालक्ष्मीस्तवः ॥
उपासते यथा बालाः मातरं क्षुधयार्दिताः।
श्रेयस्कामो जगन्मातः प्रार्थये त्वां तथा श्रियै॥४२॥

 

॥ (महालक्ष्मी स्तवन) ॥

जिस प्रकार क्षुधार्त (भूख से पीड़ित) होने पर बालक माता के पास जाकर विनती करते हैं, उसी प्रकार हे जगन्माते! (जगत् के द्वारा क्लेशित हुआ) मैं श्रेयस्कामना से आपकी वन्दना कर रहा हूँ।

 

यथा स्तनन्धयान् माता शिशून् पाति हि शैशवे। 
तथा त्वं सर्वदा मातः सर्वेषां सर्वरूपिणी॥४३॥

हे माँ! जिस प्रकार अबोध बालक को माता उसके पोषण हेतु स्वयं ही अपने स्तन बालक के मुख में दे देती है, उसीप्रकार हे जगन्माते! मातृरूप में आप सदा ही हमारा पोषण कीजिये।

 

मातृहीनो विना स्तन्यं कश्चित् जीवति दैवतः। 
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम्॥४४॥

हे माते! मातृ स्तन दुग्ध के बिना भी कोई शिशु दैवकृपा से जीवित रह सकता है, किन्तु हे जगन्माते! आपकी कृपा के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। यही अटल सत्य है। 

 

प्रसन्ना सुप्रसन्ना च देवी मय्यऽम्बिक भव। 
सर्वसिद्धि च विषयं देहि मह्यं सनातनी॥४५॥

हे जगन्माते! आप सनातन है। आप ही परम प्रसन्न स्वरूपा है! हे माते! कृपया आप मुझपर प्रसन्न होकर मुझे सर्व सिद्धियाँ तथा उन सभी सिद्धियों के संचालन के विषय प्रदान कीजिये। 

 

अहं यावत्त्वया हीनो नाप्तः सौभाग्यमीसितम्।
प्रभावश्च प्रतापश्च तव सर्वाधिकारिता॥४६॥

हे माते! मैं अभी तक आपकी कृपा दृष्टि से वंचित हूँ। हे माते! आप सभी प्रकार के सौभाग्यों की प्रदाता हैं। हे जगन्माते! मुझमें अपनी शक्ति का प्रभाव उत्पन्न करें, जिससे मैं प्रतापी और सर्व अधिकारों से सम्पन्न हो सकूँ।

 

जयं पराक्रमं सर्वं परमैश्वर्यमेव च।
सोऽभीष्ट फलमाप्नोति त्वत्तः सत्यं न संशयः॥४७॥

हे जगन्माते! जय, पराक्रम, सभी प्रकार के परम ऐश्वर्य तथा सभी प्रकार की मनोकामनाओं को आप ही फलित करने वाली है, यही सत्य है, इसमें किंचित भी संशय नहीं। 

 

मयि तिष्ठ तथा नित्यं यथेन्द्रादिषु तिष्ठसि ।
अभयं कुरु मे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥४८॥

हे माते! जिस प्रकार इन्द्र आदि देवताओं के यहाँ आप नित्य निवास करती हैं, उसी प्रकार हे जगन्माते! आप मेरे यहाँ निवास करें। हे देवी महालक्ष्मी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। कृपया मुझे अभय करें।

 

ॐ नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते। 
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥४९॥

हे माते! आप ओमकार स्वरूपा है, श्रीपीठ पर विराजने वाली देवताओं द्वारा नित्य पूजिता हैं, हे महामाये! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अपने वरद् हस्तों में शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाली हे महालक्ष्मी देवी! आपको नमस्कार है।

 

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि। 
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५०॥

गरुङ़ पर आरूढ़ होकर कोलासुर को भयभीत कर देने वाली तथा प्रसन्न होने पर समस्त पापों को हर लेने वाली हे महालक्ष्मी माँ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपको नमस्कार है।

 

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्ति प्रदायिनि ।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५१॥

हे जगन्माते! आप मंत्रों सी निरंतर पवित्र हैं, आप सभी अष्ट सिद्धियों, निर्मल बुद्धि, जगत् के सर्व ऐश्वर्य, भोग तथा परमपद-मोक्ष की प्रदाता हैं, हे महालक्ष्मीदेवी! आपको नमस्कार है।

 

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टनिवारिणि ।
सर्वसिद्धिप्रदे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५२॥

हे महालक्ष्मी! आप सर्वज्ञ हैं! आप ही अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष आदि समस्त ऐष्णाओं की प्रदाता हैं, आप सभी दुष्टों तथा दुष्ट प्रकृतियों से जगत् को मुक्त कराने वाली हैं। सर्व सिद्धियों की प्रदायक हे देवी महालक्ष्मी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। 

 

आद्यन्तरहिते देवि आदिशक्ते महेश्वरि।
योगज्ञे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५३॥

हे आद्यशक्ति महेश्वरी! आप योग से प्रकट हुई हैं तथा योग से परिपूर्ण हैं। आदि व अंत से रहित हे देवी महालक्ष्मी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

स्थूले सूक्ष्मे महारौद्रे महाशक्ते महोदरे। 
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५४॥

हे माते! आप स्थूल, सूक्ष्म तथा महारौद्र सभी रूपों में विद्यमान हैं। आप ही महाशक्ति हैं, महोधरा हैं, बड़े से बड़े पापों का नाश करने वाली, हे महालक्ष्मीदेवी! आपको नमस्कार है। 

 

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्म स्वरूपिणि। 
परमेशि जगन्मातः महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५५॥

हे देवी! आप पद्मासन पर विराजमान हैं, आप ही परम ब्रह्म स्वरूपा हैं, आप ही परम ईश्वरी हैं। हे जगन्माते महालक्ष्मी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

 

स्वर्णाम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते। 
जगत्स्थिते जगन्मातः महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते॥५६॥

हे जगन्माते! आप स्वर्णिम वस्त्रों को धारण करने वाली नाना अलंकारों से सुशोभित हैं, यह सारा चर-अचर जगत् आपमें ही स्थित है, हे महालक्ष्मी देवी! मैं आपकी वंदना करता हूँ। आपको बारंबार नमस्कार है।

 

प्रसीद श्रेयसां दोग्ध्रि अम्ब मे नयनाग्रतः। 
कृपादृष्ट्यावलोकस्व जगन्मातः प्रसीद मे॥५७॥

हे जगदम्बिके! आप प्रसन्न होकर कृपापूर्वक मेरे नयनों के सम्मुख साक्षात् प्रकट होकर मुझे कृपया अपने श्रेयप्रद दर्शन दीजिये। जगन्माते! आप प्रसन्नतापूर्वक मुझ पर अपनी कृपादृष्टि डालें। मेरी यही कामना है।

 

भवतीं शरणं गत्वा कृतार्थाः ते पुरातनाः। 
इति सञ्चिन्त्य मनसा त्वामहं शरणं गतः॥५८॥

हे माते! पूर्वकाल में भी जो कोई आपकी शरण में आया, वह आपकी कृपा से कृतार्थ हो गया। मन में यही चिंतन करके हे दयामयी! मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे माँ! आप मुझे भी कृतार्थ करें।

 

यदि स्यां तव पुत्रोऽहं माता त्वं यदि मामिका। 
दयापयोधरस्तन्यसुधाभिरभिषिञ्च माम्॥५९॥

हे माते! निश्चय ही यदि मैं आपका पुत्र हूँ और यदि आप ही मेरी माता हैं तो हे परमदयालु अम्बे! अपने दयारूपी पयोधरों की सुधाधार से मुझे अभिसिंचित कीजियेगा।

 

दीनानामह‌मेवाग्य्रो दयालूनां त्वमग्रणीः। 
दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये॥६०॥ 

हे माते! मैं दीनों में सबसे अधिक दीन हूँ, मैं दीनता में सबसे आगे हूँ और आप दयालुओं में परमदयालु हैं। हे अम्बे!  तीनों लोकों में आपके अतिरिक्त और कौन है? जिसकी कृपा दृष्टि मात्र से दीनता समाप्त हो जाए।

 

प्रत्यक्षं कुरु मे रूपं रक्ष मां शरणागतम्। 
समागच्छ महालक्ष्मि समागच्छ ममाग्रतः॥६१॥

हे जगन्माते! आप साक्षात् प्रत्यक्ष प्रकट हों। मैं आपकी शरणागत हूँ। हे शरणागत वत्सला! मैं आपकी शरण में हूँ कृपया आप साक्षात् प्रत्यक्ष प्रकट हों। हे देवी महालक्ष्मी! आइये! आप सम्मुख साक्षात् प्रत्यक्ष प्रकट होइये! हे माँ! आप साक्षात् प्रत्यक्ष प्रकट हों!

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
हरिप्रियां हृदि ध्यात्वा तपस्तेपेऽग्र आत्मना। 
स्तुवंस्तां निरहङ्कारो मौनव्रतमथास्थितः॥६२॥

जैमिनी जी कहते हैं— हरिप्रिया श्री महालक्ष्मी को हृदय में धारण करके श्री अग्रसेन अहंकार से रहित मौन व्रत का आश्रय लेकर समाधिस्त हो जगत्जननी महालक्ष्मी की स्तुति करते हुए तपस्या में लीन हो गये।

 

शताधिकसहस्त्रेऽथ दिने देव्यकरोत् कृपाम्।
ततः प्रीताऽथ जननी तस्य संयमनाद्रमा॥६३॥

इस प्रकार तपस्या में रमे श्री अग्रसेन को सतत, संयमित तप करते हुए ग्यारह सौ दिवस पूर्ण हो गए। तब उनके इस कठिन तप से जगत् जननी महालक्ष्मी अत्यंत प्रसन्न हुई।

 

साऽऽगता सहसा तत्र देवी पीताम्बरावृता।
शङ्खचक्रगदाहस्ता पद्मासनमुपास्थिता॥६४॥

 

और .... तब प्रसन्न होकर वे प‌द्मासन पर विराजमान पीतांबर धारण किए हुए हाथों में शंख, चक्र व गदा धारे देवी महालक्ष्मी सहसा.... वहाँ श्री अग्रसेन के सम्मुख साक्षात् प्रकट हो गईं।

 

नभो वितिमिरं कुर्वत्यम्बुदान् पाटयन्त्यपि।
नादैर्दिशः पूरयन्ती महामेघरवोपमैः॥६५॥

आकाश, जो कि अमावस्या के गहन अंधकार में डूबा हुआ था वह सहसा माँ महालक्ष्मी के आगमन पर उनके दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो गया, महामेघों के घोर नाद से मानो सभी दिशाएँ सम्पूरित हो गईं और दिव्य प्रकाश चारों ओर फैल गया।

 

दिव्यज्योतिस्सुसङ्कीर्णा द्योतमानाऽर्ककान्तिवत्। 
स्वयैव प्रभया तत्र द्योतिता सा सुरेश्वरी॥६६॥

देवी महालक्ष्मी वहाँ अपनी दिव्यप्रभा से इस प्रकार प्रकाशित हो रही थीं, जैसे अनंत दिव्य ज्योतियों से प्रभाकर समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। देवी के दिव्य तेज से सम्पूर्ण चर अचर जगत्, अमावस्या की उस गहन रात्रि में भी सतेज प्रकाशित हो गया।

 

तारारूपाणि दृश्यन्ते यानीह द्युतिमन्ति वै।
तनोति च सहस्त्राणि दीपवद् विप्रकर्षणाद्॥६७॥

श्री महालक्ष्मी की दिव्यप्रभा की द्युति ऐसी झलमल-झलमल झलक रही थीं, जैसे नभ पर तारे टिमटिमा रहे हों या मानो धरा पर एक साथ सहस्त्रों दीपक जगमगा रहे हों।

 

अग्रसेनस्सविनयोऽपश्यद् दीप्तिमतीं च ताम्। 
साऽऽदौ तत्र प्रभास्वान्ती रूपवत्यास तेजसाम्॥६८॥

तब विनय से नमित श्री अग्रसेन ने दिव्यप्रभा से युक्त परम तेजमयी, अनंत आभा युक्त, सौम्य स्वरूपणी उन आगता जगदम्बा माँ महालक्ष्मी के साक्षात् दर्शन किये।

 

ततो ददर्शाग्रसेनः साक्षात् तां परमेश्वरीम्।
स वशी सिद्धिमानासीत् हर्षादश्रुपरिप्लुतः॥६९॥

और... तब मन तथा इंद्रियों को वश में रखने वाले वे श्री अग्रसेन अपनी तपस्या सिद्ध होने पर जगदम्बा महालक्ष्मी के साक्षात् दर्शन कर हर्षातिरेक से अश्रुपूरित हो गए।

 

हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत तन्मनाः।
अथाग्रसेनस्तां देवीमभ्यवन्दत सादरः॥७०॥

श्री अग्रसेन ने अपने अतृप्त तथा हर्ष से उत्फुल्लित नयनों से निर्निमेष श्री महालक्ष्मी की अनुपम शोभा के दर्शन किए। और बार-बार जगदम्बे का अभिवादन करने लगे।

 

संस्तूयमाना गन्धर्वैः सुरैः सिद्धैश्च चारणैः। 
पुष्पगन्धवहैः पुण्यैर्वायुभिश्चानुवीजिता॥७१॥

उस समय गंधर्व, देवगण व सिद्धगण स्तुति गायन करने लगे। नभ से पुष्पों की वर्षा होने लगी। धरा पर पुण्यदायिनी परम सुवासित वायु बहने लगी।

 

॥ महालक्ष्मीरुवाच ॥
तपसा परितुष्टाऽस्मि साऽहम् अग्र त्वयाऽधुना।
तां भुङ्क्ष्व सुकृतैर्लब्धां तपसा द्योतितां श्रियम्॥७२॥

तब प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने कहा— 'वत्स अग्र! मैं तुम्हारे तप से परम तुष्ट हूँ। तुमने अपनी सेवा अर्चना से मुझे संतुष्ट किया है। अब अपने तप की प्रकाशित दिव्य ज्योति की प्रभा से तुम सुकृत्य करो और.. उनका सुफल भोगो।'

 

यस्त्विष्टो वरदाया मे प्रत्यक्षं तस्य तेऽभवम्। 
यत्प्रार्थ्यते त्वया सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥७३॥

वत्स! तुमने अपनी तपस्या से मुझे परितुष्ट किया। जिसके प्रभाव से मैं तुम्हें वरदान देने के लिये स्वयं तुम्हारे समीप प्रत्यक्ष आ गई हूँ। हे वत्स! मैं तुम्हें तुम जो भी मांगोगे, वह सब प्रदान कर तुम्हे संतुष्ट करूँगी।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
अर्थिनां कल्पवृक्षोऽसि वरदा सर्वदा शुभा।
वरदा यदि मे देवी वरार्हो यदि वाप्यहम्॥७४॥

श्री अग्रसेन ने कहा— हे माँ! आप कामना करने वालों के लिये तो साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं। आप सदा ही अर्थ, धर्म, काम तथा दुर्लभ मोक्ष प्रदान करने वाली वरदात्री देवी हैं। आप यदि वर देना चाहे और यदि मैं वर मांगूं तो कृपया वर दीजिये कि

 

त्वय्येव भक्तिरचला भूयाद् भूतेषु मे दया। 
दिने दिने क्षणं चित्तं त्वयि संस्थं भवत्विति॥७५॥

हे जगन्माते! आप में मेरी भक्ति सदा अविचल रहे, स्थायी रहे, अटल रहे। मेरे हृदय में सकल सृष्टि के समस्त जीव मात्र के प्रति सदा ही दया का भाव बना रहे। नित्य प्रति हर पल मेरा ध्यान आपके श्रीचरणें में लगा रहे।

 

जाग्रत्स्वप्नेषु सर्वत्र त्वय्येवास्तु मनो मम। 
लोकबाधाप्रशमनं त्वं त्रिलोक्या अधीश्वरी॥७६॥

हे जगन्माते! जाग्रत् अवस्था में सुप्त अवस्था में व स्वप्न में भी हमेशा मेरा चित्त आपकी भक्ति में लगा रहे। हे त्रयलोक अधीश्वरी! आप जग की समस्त बाधाओं को दूर करें।

 

महादेवि महालक्ष्मि त्वां यः स्तौत्यब्धिसम्भवे। 
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम॥७७॥

हे जगदम्बिके महालक्ष्मी! आप ही महादेवी हैं। जो भी जन आपका यथा संभव स्मरण करें, हे माते! आप उनका कभी परित्याग न करें। मैं आपसे यह दूसरा वर मांगता हूँ।

 

जयेयं लोभमोहौ च क्रोधं चाऽहं सदाश्रये। 
चित्ते तपसि सत्ये च मनो मे सततं भवेत्॥७८॥

हे माते श्रिये! मैं लोभ, मोह और क्रोध पर सदैव विजय प्राप्त करूँ तथा मेरे मन व चित्त में सदा ही सत्य व तप विद्यमान रहें। कृपया मुझे यह आशीर्वाद प्रदान करें।

 

॥ महालक्ष्मीरुवाच ॥
वत्स तेऽर्थाच्च कामाच्च ह्यानृशंस्यं परं मतम्। 
संसिद्ध्यै ते यश्च वरो देयो मे सोऽभिवाञ्छितः॥७९॥

जगदम्बा श्री महालक्ष्मी जी बोलीं— हे वत्स अग्र! तुम्हारी स्वहित से परे मानवता के विकास की कामना अत्यंत श्रेष्ठ है। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम्हारी अभिवांच्छित सभी अभिलाषाएँ पूर्ण हों।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे लक्ष्मीः साक्षाल्लोकविभाविनी। 
अग्रसेनः प्रहृष्टस्तु गार्ग्याश्रमम् उपेयिवान्॥८०॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे महाराज जनमेजय! इस प्रकार वरदान देकर वे अक्षयलोक निवासिनी महालक्ष्मी अन्तर्ध्यान हो गईं। माँ जगदम्बे का वरदान पाकर अति प्रसन्न श्री अग्रसेन महर्षि गर्ग के आश्रम में लौट आए।

 

इदं यः स्तवनं लक्ष्म्याः सर्वपापविमोचनम्।
यः पठेद् भक्तिसंयुक्तस्तस्य नश्यति किल्विषम्॥८१॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे धर्मज्ञ जनमेजय! श्री महालक्ष्मी का यह स्तवन सभी पापों, त्रिविध तापों व संतापों का नाश करने वाला है। इसका भक्तिपूर्वक पाठ करने वालों के सभी संकट व दुःख समाप्त हो जाते हैं।

 

यस्य लक्ष्म्यां भक्तिरस्ति निश्चला भावना च सा।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलाश्रयम्॥८२॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! भक्ति भावना से युक्त श्री महालक्ष्मी की निरंतर कृपा की कामना से जिस कुल ने जगदम्बा श्रिया का आश्रय लिया, उसके घर को श्री महालक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती।

 

सर्वकामप्रदो ह्येष स्तवोऽग्रेण प्रकीर्तितः।
यः पठेत् स समान् कामानवाप्नोति न संशयः॥८३॥

 

जैमिनी जी कहते हैं— हे जनमेजय! श्री अग्रसेन जी का यह कथन है कि श्री महालक्ष्मी का यह स्तवन सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला है। महालक्ष्मी की कीर्ति का भक्तिपूर्वक गान करने वालों के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं, इसमें किंचित भी संदेह नहीं।

 

सत्यं दिव्यं च परमम् ऋषीणां वचनं यथा। यश्चैतत् सम्पठेत् श्रूयात् सर्वार्थान् स प्रविन्दति॥८४॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे धर्मज्ञ जनमेजय! जैसा कि ऋषियों ने भी कहा है कि यह स्तवन परम श्रेष्ठ है, सत्य है, अति दिव्य है। जो इसका पठन या श्रवण करते हैं, उन्हे सवार्थ सिद्धि प्राप्त होती है।

 

आधिव्याधिभयं चैव पूजिता शमयिष्यति।
भविष्यति महालक्ष्मीर्वरदा कामरूपिणी॥८५॥

महाप्राज्ञ जनमेजय! इस स्तवन के यथाविधि पूजन व पाठ से समस्त आधि, व्याधि एवं भव भय का विनाश होता है तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली भक्तवत्सला महालक्ष्मी स्वयं उन्हे वर प्रदान करती हैं।

 

॥ इति जैमिनीये जपभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते अष्टमोऽध्यायः॥ 
॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।