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॥श्री अग्र भागवत॥

 

उन्नीसवाँ अध्याय

 

संधि

 

॥जैमिनिरुवाच॥

धर्मतो धर्मविद् राजा नृधर्मो विग्रही यथा। 

चातुर्वर्ण्यं स्वकर्मस्थं स कृत्वा पर्यपालयत्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! महाराजा अग्रसेन चारों वर्णों को अपने-अपने कर्म में स्थापित करके उनका सदैव धर्मपूर्वक पालन करते थे। वे न केवल मानवोचित धर्म के ज्ञाता थे; अपितु साक्षात् धर्म के स्वरूप थे।

 

ररक्ष वसुधादेवीं श्रीमानतुलविक्रमः। 

द्वेष्टि कञ्चन न द्विष्टो द्वेष्टारस्तस्य नाभवन्॥२॥

हे जनमेजय! उनके पराक्रम की तो कोई तुलना ही नहीं की जा सकती थी। वे श्री सम्पन्न होकर वसुधा देवी का संरक्षण (पालन पोषण) करते थे। उनका किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं था और न ही कोई उनसे द्वेष रखने वाला।

 

समः सर्वेषु भूतेषु प्रजापतिरिवाभवत्। 

सुदर्शः सर्वभूतानामासीत् सोम इवापरः॥३॥

हे धर्मज्ञ जनमेजय! वे महाराजा अग्रसेन दूसरे चंद्रमा के समान सब प्राणियों के लिये सुलभ एवं उनका दर्शन सबके के लिये सुखद था। वे प्रजापति ब्रह्मा के समान ही समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखते थे।

 

लोकस्य चैव सर्वस्य प्रियः आसीत्स चाग्रराट्। 

राजधर्मार्थकुशलो युक्तः सर्वगुणैर्वृतः॥४॥

हे जनमेजय! महाराजा श्री अग्रसेन सम्पूर्ण जगत् के सभी लोगों के प्रेम पात्र थे। राजधर्म तथा अर्थनीति में पारंगत वे समस्त सद्गुणों से संयुक्त थे। अर्थात् उनमें सभी सद्‌गुण विद्यमान थे।

 

अकृष्टपच्या पृथिवी प्रजा आनन्द‌निर्भराः। 

गावश्च घटदोहिन्यो यदा नागसुतापतिः॥५॥

जब से आग्रेय राज्य में नागसुता माधवी देवी राजरानी के आसन पर अधिष्ठित हुई हैं, तब से यहाँ की भूमि जोते बिना ही अन्न उत्पन्न करने लगी। प्रजा आनन्द में मग्न रहने लगी। गायें घड़े भर-भर के दूध देने लगीं।

 

ऊर्ध्वसस्याभवद् भूमिः सस्यानि रसवन्ति च। 

यथर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमाः॥६॥

हे राजन! पृथ्वी पर खेती की उपज बहुत बढ़ गई। सभी अन्न सरस होने लगे, बादल उचित समय पर वर्षा करते, वृक्ष अत्यधिक फूलों और फलों से युक्त हो गए।

 

मानक्रोधविहीनाश्च नरा धर्मोत्तरक्रियाः। 

अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्धन्त प्रजास्तदा॥७॥

तथापि वहाँ के लोग अहंकार और क्रोध से रहित तथा उनके आचार व्यवहार में धर्म की ही प्रधानता थी। एक दूसरे को प्रसन्न रखते हुए वे सतत उन्नति के पथ पर बढ़ रहे थे।

 

न ववर्षाथ सहसा सहस्राक्षः कदाचन। 

कमुपायमुपादाय वार्याऽश्रीरित्यचिन्तयत्॥८॥

हे जनमेजय! तब अचानक उस वर्षा सत्र में देवराज इन्द्र ने आग्रेय राज्य में वर्षा बन्द कर दी। सभी लोग ये सोचने लगे कि किस उपाय से और कैसे इस त्रासदी से मुक्ति पाई जा सकती है?

 

यथाशक्ति ददात्यन्नमग्रो राजा विमत्सरः। 

न च वर्षीत पर्जन्यः कथमन्नं भविष्यति॥९॥

तब प्रजाजनों में चर्चा होने लगी कि – यद्यपि महाराजा अग्रसेन यथा शक्ति (जितना अन्न संचित है) ईर्ष्यारहित श्रद्धापूर्वक अन्न तो दे ही रहे हैं; किन्तु यदि मेघ इस प्रकार जल वर्षा नहीं करेंगे तो भविष्य में अन्न कैसे उत्पन्न होगा? अर्थात् अकाल की काली छाया पड़ सकती है।

 

इत्येवमुक्ते वचने सोऽग्रसेनः प्रतापवान्। 

प्रसाद्य परमोद्विग्नान् तान् नॄन् प्रोवाच सादरम्॥१०॥

प्रजाजनों द्वारा इस प्रकार अपना मनोगत अभिव्यक्त करने पर प्रतापी राजा अग्रसेन ने उन अत्यंत उद्विग्न लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा—

 

॥अग्रसेन उवाच॥

अन्यथाऽभ्यर्थनामिन्द्रो न करिष्यति कामतः।

पुरुषार्थं साधयिष्ये जीवयिष्यामि च प्रजाः॥११॥

महाराजा अग्रसेन ने कहा—प्रजाजनों! यदि देवराज इन्द्र हमारी जल बरसाने के लिये की गई प्रार्थना को अन्यथा लेंगे। और वे हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं स्वयं इस हेतु उत्तम पुरुषार्थ (उपाय) करूँगा तथा समस्त प्रजा की रक्षा करूँगा।

 

वर्षिष्यतीह वा देवो न वा वर्षं भविष्यति। 

यो यदाहारजातश्च स तथैव भविष्यति॥१२॥

प्रजाजनों! इन्द्रदेव यहाँ वर्षा करें अथवा वर्षा न हो, मैं आप लोगों को विश्वास दिलाता हूँ, जो (मनुष्य, पशु और पक्षी) जिस आहार से उत्पन्न हुआ है, उसे वही आहार प्राप्त होगा। आप लोग चिन्ता न करें।

 

॥माधव्युवाच॥

नावमन्ये न गर्हे च देवं नाथ कथंचन। 

आर्ताऽहं प्रलपामीदं सुमनास्त्वं निबोध मे॥१३॥

तब महारानी माधवी देवी ने विनीत निवेदन करते हुए कहा—हे नाथ! मैं ना तो देवों की अवहेलना कर रही हूँ, ना ही उनकी निन्दा ही। प्रजा की पीड़ा से शोकार्त होकर आपके समक्ष मैं प्रलाप कर रही हूँ; कृपया आप प्रसन्न चित्त होकर मेरे भी विचार सुनें।

 

तदेवाभिप्रपद्येत न विहन्यात् कदाचन। 

यत् स्वकर्मवशात् किश्चित् तत् पौरुषमिति श्रुतम्॥१४॥

हे महाराज! दैवकृपा की कामना पर आश्रित होकर के ही मनुष्य को कर्म का कदापि परित्याग नहीं करना चाहिये। मनुष्य स्वयं प्रयत्न करके जो अर्जित करता है, उसे ही तो पुरुषार्थ कहा जाता है।

 

पर्जन्ये जलमस्त्येव नद्यामपि च सिद्धये। 

बुद्ध्या जलार्थान् जानीयादुपायं कर्मणाऽऽप्नुते॥१५॥

हे नरेन्द्र! जैसे वर्षा के बादलों में जल है, वैसे ही नदियों में भी तो जल है। बादलों का जल दैव कृपा पर ही संभव है; जबकि नदियों का जल स्वयं के प्रयत्न से सिद्ध किया जा सकता है। अभीष्ट जल प्राप्ति के लिये बुद्धिपूर्वक योग्य विचार विमर्श करके जो उचित उपाय हो उसके लिए यथोचित प्रयत्न किया जाना चाहिये। मेरा तो यही विचार है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ततः कालोऽत्यगात् क्लिष्टः कृतं प्रावर्तत क्षणात्। 

आरेभिरे जलार्थे च युक्तं कर्म जनास्तदा॥१६॥

जैमिनी जी कहते हैं—राजरानी माधवी देवी की इस योग्य सलाह के अनुकूल योग्य उपाय का निर्णय कर समय को व्यर्थ न गँवाते हुए उन आग्रेय जनों ने कर्म प्रवृत्त हो जल प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक योग्य कर्म आरम्भ किया।

 

कुल्या जलावहास्तत्र जलेनापूर्यतावनी। 

मङ्गलस्वस्तिवृध्द्या च प्रजानां हर्ष आभवत्॥१७॥

और.. तब वहाँ जल की नहरों से जलधारा बहने लगी। इस प्रकार जल की आपूर्ति से वह प्यासी धरा पुनः फलित हो गई। मंगलमयी कल्याण की वृद्धि से प्रजाओं में उत्तम आग्रेय राज्य की प्रजा अत्यंत हर्षित होने लगी।

 

एतस्मिन्नन्तरे देवदूतः कश्चित्समागतः। 

उवाच शक्रमासीनं सभामध्येऽतिदुःखितः॥१८॥

इसी बीच किसी देवदूत ने शीघ्रता से ही देवलोक की सभा में पहुँचकर देवसभा के मध्य इन्द्रासन पर विराजमान देवेन्द्र से दुःख पूर्वक निवेदन किया।

 

॥देवदूत उवाच॥

भोः स्वामिन् हे महाबाहो लोकानां रक्षको ह्यसि। 

देवानां सुखकामः किं न जानीषे शुभाशुभम्॥१९॥

देवदूत ने कहा—हे स्वामिन! हे महाबाहो! आप तीनों लोकों के रक्षक हैं। किन्तु अब भी आप देवताओं के सुख की कामना तो रखते हैं न ? यदि हां! तो फिर क्या आपको शुभ-अशुभ की जानकारी नहीं है?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

आगत्य कथयामास देवो वृत्तान्तमादितः। 

सस्यान्यभूवन् भूयांसि मानवाः पौरुषाश्रयाः॥२०॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! देवलोक में आकर देवदूत ने देवराज इन्द्र से "आग्रेय" जनों द्वारा इन्द्र देव के रुष्ट हो वर्षा न किये जाने पर भी, जिस प्रकार नदियों से जल प्राप्त कर अपने पौरुष्य से धरा को तृप्त कर सुनहली फसलें खड़ी कर ली, वह सारा वृत्तांत प्रारंभ से ज्यों का त्यों कह सुनाया।

 

मानुषं तु कृतं कर्म श्रुत्वा क्रोधसमन्वितः। 

उवाच केन नीतं तद् यशो ह्यल्पायुषा मम॥२१॥

मनुष्यों द्वारा इस प्रकार स्व पराक्रम से किए गए प्रयत्न देवदूत से सुनकर देवराज इन्द्र अमर्ष में भर गए और कहने लगे—"किसकी आयु समाप्त हो चुकी है जो इस प्रकार मेरे यश का अपहरण करने का प्रयत्न करे" अर्थात् दैव इच्छा से पुरुषार्थ का प्रबल होना देवेन्द्र को अपना अपमान प्रतीत हुआ।

 

॥इन्द्र उवाच॥

प्रहितो गच्छ चाग्नेऽग्रं सस्यानि प्रविनाशय। 

चक्षुषा दारुणेन त्वं हव्यवाह क्रुधा दह॥२२॥

(अग्निदेव को संबोधित करते हुए) देवराज इन्द्र ने कहा—हे हव्यवाहन। आप शीघ्र ही 'आग्रेय' जायँ, और वहाँ की सारी लहलहाती फसलों को क्रोध में भरकर अपनी दारुण दृष्टि से भस्म कर डालें।

 

॥बृहस्पतिरुवाच॥

यद् इच्छसि जगद् हन्तुं साम्प्रतं न नृशंसवत्। 

अभयं सर्वभूतेभ्यो दाता त्वमिति मे मतिः॥२३॥

तब देवगुरु बृहस्पति ने कहा—देवराज! मेरा तो यह विश्वास था कि आपने प्राणिमात्र को अभय दान दे दिया है, परंतु आपके द्वारा दिये गए आदेशानुसार इस समय एक साधारण मनुष्य की भाँति दूसरों के श्रेष्ठ कर्मों की प्रशस्ति करने के स्थान पर ईष्यावश इस प्रकार का उपक्रम कर क्या आप सारे जगत् का विनाश देखना चाहते है?

 

त्यत्क्त्वा छद्म महेन्द्र त्वं देवधर्म समाश्रितः। 

कुरु कार्याणि सर्वाणि धर्मिष्ठोऽसि सुरर्षभ॥२४॥

हे देवश्रेष्ठ! महेन्द्र! आप तो धर्मनिष्ठ हैं। अतः आप इस प्रकार छल-छंदों को छोड़कर देवों के महान् धर्म (जगत् कल्याण) का आश्रय लेकर उसी के अनुरूप देवोचित कर्म करें। मेरा तो आपको यही सुझाव है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

प्रदह त्वं गच्छ शीघ्रं ततो मोक्ष्यामि किल्बिषात्। 

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं पाकवैरिमुखाच्च्युतम्॥२५॥ 

अग्रराज्यं प्रदुद्राव जवमस्थाय पावकः। 

सहसा प्राज्वलच्चाग्निर्वीरो वायुसमीरितः॥२६॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! (देवगुरु -वृहस्पति जी के द्वारा अपना योग्य अभिमत दिये जाने के बाद भी) पाकशासन इन्द्र के मुख से निकला कि अग्निदेव आप उस आग्रेय को जलाने के लिये शीघ्र जायँ, तभी मुझे इस ग्लानि से छुटकारा मिलेगा। जिसे सुनते ही अग्निदेव दौड़ते हुए देव लोक से आग्रेय में आकर अपने बल का आश्रय ले तथा वायु का सहारा पाकर वे सहसा प्रज्वलित हो उठे।

 

प्रदीप्तमग्निमग्रश्च दृष्ट्वा तत्र निवासिनः। 

परमं यत्नमातिष्ठत् पावकस्य प्रशान्तये॥२७॥

आग्रेय गणराज्य में तब अचानक इस तरह लहलहाती फसलों को जलते हुए देखकर वहाँ के निवासियों ने उस प्रज्वलित अग्नि को विभिन्न उपायों से बुझाने के (शांत करने के) अनेकों प्रयत्न किए।

 

विलयं पावकं शीघ्रमगमत् प्रहरोद्यमैः। 

पञ्चकृत्वः प्रशमितः तेनाग्रेण हुताशनः॥२८॥

इस प्रकार अनेक उद्यमों (पानी छिड़ककर, बालु झौंककर इत्यादि) से वहाँ के नागरिकों ने अन्तोगत्वा उस आग को बुझा ही दिया।

 

महायोगी महासिद्धः सर्वप्रत्यक्षगोचरः। 

दृष्ट्वाऽथ गार्ग्यः स्वतपोवीर्येणैवमुवाच ह॥२९॥

हे महाप्राज्ञ जनमेजय! तब पूर्वकल्प के महायोगी, महान् सिद्धियों से सम्पन्न तथा सब (त्रिकाल, त्रिलोकादि) कुछ प्रत्यक्ष देखने की शक्ति से युक्त महर्षि गर्ग ने अपने तपोबल सम्पन्न दिव्य दृष्टि द्वारा देखकर महाराजा अग्रसेन को वास्तविकता बताई।

 

॥गार्ग्य उवाच॥

न ह्येतत् कारणं राजन्नल्पं सम्प्रति भाति मे। 

यद् आग्य्रराज्यं सन्दग्धुमिच्छतीन्द्रेरितोऽनलः॥३०॥

महर्षि गर्ग ने कहा—हे राजन्! मुझे इसका कोई साधारण कारण नहीं जान पड़ता, जिसके लिये इन्द्र से संरक्षित हो, अग्निदेव आग्रेय वैभव को भस्म करना चाहते हों (निश्चय ही कोई विशेष कारण है)।

 

पन्नगेन्द्रः शक्रसखस्तुभ्यं कन्यां यतो ददौ। 

लक्षयित्वा तं विरोधं ग्लानिश्चैनं समाविशत्॥३१॥

महर्षि गर्ग ने कहा—हे राजन् अग्र! देवराज इन्द्र के मित्र नागराज महीधर द्वारा जिस प्रकार अपनी कन्या का विवाह आपके साथ कर दिया गया, ऐसा लगता है, यह देखकर इन्द्र तेजहीन (हीन भावना से ग्रसित) हो ग्लानिभाव से समन्वित हो गए है। (यही कारण है कि वे कभी अवृष्टि और कभी अग्नि का सहारा लेकर इस प्रकार कर रहे हैं।)

 

॥अग्रसेन उवाच॥ 

तत्परस्तन्मनाश्चास्मि तद्भक्तस्तत्प्रिये रतः। 

करिष्यति कुतः पापं इति ज्ञात्वा प्रशाधि माम्॥३२॥

तब महाराजा अग्रसेन ने कहा—महर्षे! मैं तो शरीर से उन देवताओं के हितकर्मों में ही तत्पर रहता हूँ, मन से उन्हीं का चिन्तन करता हूँ, उनमें भक्तिभाव रखता हूँ। मैं सदैव ही उनका प्रिय (प्रसन्न करने वाले सत्कार्य) करने में लगा रहता हूँ। यह सब जानकर भी वे ऐसा अनर्थ क्यों कर रहे हैं?

 

अक्षुद्राः सत्यवन्तश्च देवा भक्तानुकम्पिनः। 

विद्यते भीः कुतस्तेभ्यो मम? तत् किं विधीयताम्॥३३॥

महर्षे! देवता तो क्षुद्रताओं से रहित, सत्यवादी तथा भक्तजनों पर सदा ही अनुकम्पा करने वाले होते हैं न! उनके द्वारा इस प्रकार का पापकर्म कैसे किया जा रहा है? वे ऐसा (अन्यायपूर्वक ) कर्म कैसे कर सकते हैं?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

देवतार्थं वयं चापि मानुषत्वमुपागताः। 

संरक्ष्याश्च वयं देवैरेवम् अग्रोऽभ्यभाषत॥३४॥

हे महर्षे! हम लोग देवताओं की मंगलकामनाओं को पूर्ण करने के लिये ही तो मानव रूप में आए हैं। अतः देवताओं को तो हमारी रक्षा करनी चाहिये। अग्रसेनका तो यही कहना है।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

अथ चेत् कामसंयोगाद् द्वेषो लोभश्च लक्ष्यते। 

देवेषु देवप्रामाण्यान्नैषां तद् विक्रमिष्यति॥३५॥

तथापि यदि देवताओं में कामनावश द्वेष और लोभ लक्षित होता है, तो फिर तो उनमें देवत्व का अभाव निश्चित ही है, जिसके कारण उनकी वह शक्ति हम मानवों पर कोई बुरा प्रभाव भला कैसे दिखा पाएगी? क्योंकि देवों में तो दैवभाव की ही प्रमाणिकता है।

(ज्ञातव्य- दैवभाव से हीन हो जाने पर नहुष का पतन हो गया था।)

 

ममाप्यनुपमं तेजो येन युक्ता दिवोकसः। 

अहम् आत्मबलैः शक्तो योद्धुं वज्रधरान् बहून्॥३६॥

महर्षे! जिस अनुपम तेज से देवगण संयुक्त हैं, वही अनुपम तेज उन्हीं की कृपा से हम सब में विद्यमान है। महर्षे! आपकी कृपा और आत्मबल के सहारे मैं एक क्या अनेकों वज्रधारियों से युद्ध कर सकता हूँ।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एकोपायं कर्मसिद्धम् अग्रसेनोऽभ्यचिन्तयत्। 

सर्वलोकेश्वरीं लक्ष्मीं प्रपद्ये शरणं श्रियम्॥३७॥

 

जैमिनी जी कहते हैं—तदनंतर महाराजा अग्रसेन ने विचार किया कि इस (दैव प्रतिकार से विमुक्ति हेतु) कर्म की सिद्धि का अब केवल एकही उपाय दृष्टिगोचर होता है कि मैं सर्वलोक की अधीश्वरी महामाता महालक्ष्मी की शरण में जाऊँ।

 

प्रणम्य प्राञ्जलिश्चक्रे स राजा शरणं श्रियम्। 

अग्रसेनस्तदा लेभे धीरत्वमभयं धियम्॥३८॥

(इस प्रकार निश्चय कर) श्री-पीठ पर विराजित महालक्ष्मी की शरण में जाकर महाराजा अग्रसेन ने महालक्ष्मी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और एकाग्रचित्त होकर उनसे अभय प्राप्त कर लिया।

 

॥महालक्ष्मीरुवाच॥

भयं शक्राद् व्यपेयात्ते प्रणोत्स्येऽहं भयं तव।

वैरिणः स्तम्भयिष्यामि प्रक्षेप्स्याम्यायुधानि च॥३९॥

जगजननी महालक्ष्मी ने वरदान दिया—हे वत्स! मैं तुम्हें इन्द्र के भय से मुक्त करती हूँ। मैं उन्हें स्तम्भित कर उनके अस्त्रों की शक्ति को क्षीण कर दूँगी। इस तरह तुम्हें आसन्न संकट से विमुक्त करती हूँ।

 

वज्रादुग्राद् व्यपेयात्ते भयं नृपतिपुङ्गव। 

भयं त्यज किमन्यत् ते कामं संसाधयाम्यहम्॥४०॥

हे नृपसिंह! तुम्हें आज इन्द्र के भयंकर वज्र से भी भयभीत नहीं होना चाहिये। मैं तुम्हें उस भय से भी मुक्त करती हूँ। तुम इस भय को छोड़ो और मुझसे कोई अन्य वर माँगो। बोलो–मैं तुम्हारी कौन सी मनोकामना है, जिसे पूर्ण करुँ?

 

॥अग्रसेन उवाच॥

सर्वकामप्रदा माता तां त्वां याचे न कामनाः। 

गृहाणार्चां सदाऽम्ब त्वं प्रसीद परमेश्वरि॥४१॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे जगन्माते! आप तो स्वयमेव सभी प्रकार के मनोवांछित फलों को स्वयं प्रदान कर देती हैं। मैं अन्य और क्या माँगू? हे अम्बे! आप मेरी अर्चना को सदा स्वीकार करें और हे परमेश्वरी! आप सदैव प्रसन्न रहें—मेरी यही कामना है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

नमस्कृत्य महादेवीं समारुह्य रथं वरम्। 

महेन्द्रमाह्वयामास सत्कृतं दैवतैः सह॥४२॥

जैमिनी जी कहते हैं—तदनंतर श्री अग्रसेन ने महादेवी महालक्ष्मी को नमस्कार करके अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर दैव गणों का सत्कार करते हुए देवराज इन्द्र को युद्ध का आवाह्न किया।

 

महेन्द्रो देवराजोऽथ सिंहवद् निनदन् मुहुः। 

अग्रसेनरथं शीघ्रं शरवर्षैरवाकिरत्॥४३॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! तदनंतर देवराज महेन्द्र सिंह के समान बार बार गर्जना करते हुए श्री अग्रसेन के रथ पर तीव्र बाणों की वर्षा करने लगे।

 

यान् यान् मुमोच देवेन्द्रस्तांस्तानग्रोऽच्छिनच्छरान्। 

धनुश्चिच्छेद सहसा वज्र्यग्रस्य शितैः शरैः॥४४॥

हे महाप्राज्ञ! देवराज इन्द्र ने जो-जो बाण चलाए महाराजा अग्रसेन ने उन्हें काट दिया। तब वज्रधारी इन्द्र ने सहसा श्री अग्रसेन के धनुष को काट डाला।

 

अग्रसेनं तथा तीक्ष्णैः कम्पयामास रोषितः। 

मुहुरभ्यर्दयन्निन्द्रः प्राहसत् स्वनवद् भृशम्॥४५॥

इतना ही नहीं रोष में भरे हुए देवराज वासव ने अपने तीखे बाणों से पीड़ित करते हुए उन्हें विकम्पित सा कर दिया और फिर वे जोरों से हँसने लगे।

 

चकम्पे वसुधा तत्र चेलुर्गिरिवरास्तथा। 

विष्वग्वाता ववुश्रैव पेतुरुल्काश्र निष्प्रभाः॥४६॥

उससमय पृथ्वी काँपने लगी। बड़े बड़े पर्वत हिल गए। चारों ओर आँधी चलने लगी तथा प्रभाशून्य उल्काएँ गिरने लगीं।

 

जेपुर्मुनिर्गणा मन्त्रान् जगतो हितकाम्यया।

तयोः प्रवृत्ते सङ्ग्रामे ददृशुर्विस्मयान्विताः॥४७॥

देवराज इन्द्र और महाराजा अग्रसेन दोनों के इस संग्राम को देखकर सभी आश्चर्यचकित और भयाकुल थे। मुनिगण जगत् की हितकामना से मंत्रो का जप करने लगे।

 

स्थितं तु दृष्ट्वा देवर्षिः बृहस्पतिरिहान्तरे। 

उभयो रथयोर्मध्यम् अवतीर्णो महोग्रयोः॥४८॥

तदनंतर युद्ध के मध्य दैवर्षि वृहस्पति को खड़ा हुआ देख वे दोनों ही महाबली (इन्द्र—अग्र) वीर रथों से पृथ्वी पर उतर आए।

 

न्यस्तशस्त्रौ च तौ वीरौ ववन्दतुररिन्दमौ। 

देवर्षिं धर्मतत्वज्ञं सर्वभूतहिते रतम्॥४९॥

और तब शत्रुओं का दमन करने वाले उन दोनों ही वीरों ने हथियार नीचे डालकर समस्त भूतों के हित में तत्पर रहने वाले धर्मतत्त्व के परमज्ञाता देवगुरु बृहस्पति जी को प्रणाम किया।

 

पाणी गृहीत्वा हस्ताभ्यां बृहस्पतिरथाब्रवीद्। 

॥बृहस्पतिरुवाच॥

कमर्थञ्च पुरस्कृत्य प्रवृत्तमतिदारुणम्॥५०॥

 

उस समय वृहस्पति जी ने उन दोनों का हाथ थाम कर उनसे पूछा—"आप लोग! किसलिये इस दारुण कर्म में प्रवृत्त हो गए?"

 

विनाशकारणं युद्धं निवर्तस्व त्वमग्रतः। 

न हि युद्धं प्रशंसन्ति सर्वावस्थमरिन्दम॥५१॥

देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा—महामना! युद्ध सदैव ही विनाश का कारण होता है। अतः आपको तो युद्ध से निवृत्त होना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष किसी भी दशा में युद्ध की प्रशंसा नहीं करते।

 

कलहस्यास्य चान्ताय शमादन्यत् न साधनम्। 

अपेक्षन्ते हि पुरुषा शमं शश्वत् न विग्रहम्॥५२॥

इस कलह (विग्रह) का अन्त करने के लिये संधि के अतिरिक्त अन्य और कोई उपाय नहीं है। देवता तथा देवपुरुष (महापुरुष) सदा दिव्य भाव 'शम' आदि की अपेक्षा रखते हैं, विग्रह की नहीं।

 

यत्तु लोकहितं कार्य तत्कार्यमवलम्ब्यताम्। 

तदलङ्करणायैव कर्तुर्भवति सत्वरम्॥५३॥

जिन कार्यों से लोक कल्याण हो, केवल उन्हीं कार्यों का अवलम्बन लेना चाहिये क्योंकि वह कर्ता को शीघ्र ही (यश से) अलंकृत कर देता है और अभीष्टफल सिद्ध करा देता है।

 

॥इन्द्र उवाच॥

भूय एवैतस्य शीलं जिज्ञासुः व्यसृजं पविम्। 

सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वग्रसेनेन धीमता॥५४॥

तब देवराज इन्द्र ने कहा—हे दैवर्षि! मैंने यह सब श्री अग्रसेन के शील (शील = जनहित के भावों एवं राजा के कर्तव्य ) की परीक्षा लेने के लिये किया था (जिसमें ये सफल हुए)। अब मैं इन नरश्रेष्ठ के साथ ऐसी मैत्री करना चाहता हूँ—जिसका कभी अंत न हो।

 

(वक्तव्य – जीवन के अनेक प्रसंगो में ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे दैव शत्रुवत् व्यवहार कर रहे हों, तथापि मानव मात्र को यह विश्वास रखना चाहिये कि देव कभी अहित नहीं करते। हाँ! श्रेष्ठ पुरुषों की परीक्षा अवश्य लेते हैं, और उन परीक्षाओं में धैर्य धारण कर धर्म पूर्ण किया गया सत्य आचरण निश्चित ही दैव प्रसन्नता व यश का कारण होता है।)

 

॥अग्रसेन उवाच॥

धन्योऽहं देवराज त्वां मूर्ध्ना समभिवादये। 

स्वागतं ते महेन्द्रात्र दिष्ट्या देवर्षिणा सह॥५५॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे देवराज! मैं आपकी मैत्री पाकर धन्य हो गया। मैं आपको मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ। हे महेन्द्र! दैवगुरु बृहस्पति जी सहित आपका स्वागत है। आप पधारें! अहो! यह तो मेरा परम सौभाग्य है।

 

स्वागतं ते सुरश्रेष्ठ महर्षे हे महाद्युते। 

आग्रेयमिदमातिथ्यं मन्त्रतः प्रतिगृह्यताम्॥५६॥

हे सुरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। हे महातेजस्वी देव महर्षि वृहस्पते! आप 'आग्रेय' पुरी में वेद मंत्रमयी आतिथ्य स्वीकार करें। हम विधिवत् आपका पूजन करेंगे।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एवमेतांस्तु तान् देवान् अग्रसेनो ह्यपूजयत्। 

मुमुदे च महातेजाः स्तूयमानो महर्षिभिः॥५७॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! तब इस प्रकार श्री अग्रसेन ने उन देवों का परम सत्कार-पूजनादि किया। महाराजा अग्रसेन के साथ ही महर्षियों द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए वे महातेजस्वी देव अत्यंत प्रसन्न हुए।

 

॥इन्द्र उवाच॥

त्वयि मानुष्यमापन्ने युक्ते चैव स्वतेजसा। 

अतिदिव्यं कृतं कर्मं त्वया प्रीतिमता नृणाम्॥५८॥

सुरश्रेष्ठ इन्द्र ने कहा—हे अग्र! आप (साधारण) मानव होकर भी अपने विशिष्ट (देवोपम) तेज से सम्पन्न हैं। मानवों के प्रति प्रीति रखकर जनहित में आपने जो पुरुषार्थ पूर्ण कर्म किया है, वह अति दिव्य है।

 

मयोत्सृष्टेषु शस्त्रेषु युगान्तावर्तकारिषु। 

यत्त्वया रक्षिता लोकास्तेनास्मि परितोषितः॥५९॥

हे अग्र! मेरे द्वारा अनावृष्टि तथा प्रलय की पुनरावृत्ति कर सकने वाली अग्नि का प्रयोग करने पर भी आपने मानवों की रक्षा हेतु जो उपक्रम किया है, उससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ।

 

अग्रसेन इति ख्यातः नृणां पूज्यो भविष्यसि। 

कीर्तिश्च तेऽतुला मित्र त्रिषु लोकेषु व्याप्नुताम्॥६०॥

मित्र! तुम मानव मात्र में विशेष लोकप्रिय होगे। तुम अग्रसेन के नाम से ही विख्यात रहोगे और .. (देव, नाग, नर) तीनों लोकों में तुम्हारी अनुपम कीर्ति का विस्तार होगा।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एवं तस्मै वरं दत्त्वा देवश्चान्तरधीयत। 

नीलजीमूतस‌ङ्घातैः सर्वमम्बरमावृतम्॥६१॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार वरदान देकर वे देव (इन्द्र एवं वृहस्पति) गण अन्तर्ध्यान हो गए। तब मेघों की काली घटाओं से सम्पूर्ण आकाश आच्छादित हो गया।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ऐन्द्रेण पयसा सिक्तं संवृष्टममृतं शुभम्। 

पार्थिवं गन्धमाघ्राय लोकः संहृष्टमानसः॥६२॥

मानो इन्द्रदेव द्वारा अमृत जल की मंगलकारी वर्षा की जलधारा से धरा का अभिषेक किया जा रहा हो, जिससे पृथ्वी से उठ रही सोंधी सुगंध सूँघकर लोगों का हृदय हर्ष विभोर हो गया।

 

सत्यं मन्त्रैः सुविहितैरौषधैश्च सुयोजितैः। 

यत्नेन चानुकूलेन दैवमप्युपलभ्यते॥६३॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ! महाप्राज्ञ जनमेजय! यह चिरंतन सत्य ही है –कि भलीभाँति (विधिपूर्वक) किए गए मंत्रजप, पथ्यानुकूल सेवन की गई औषधि तथा योग्य व अनुकूल पुरुषार्थ से दैव को भी अपने अनुकूल बनाया जा सकता है।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते एकोनविंशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।