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चौदहवाँ अध्याय
आराधन
॥जैमिनिरुवाच॥
जलक्रीडाविहारश्च मातुरग्रे निवेदितः।
नागराजकुमारी च तदा मूका व्यलक्ष्यत॥१॥
जैमिनीजी कहते हैं राजन्! जलक्रीड़ा विहार करके राजभवन लौटी सखियों ने नागमाता नागेन्द्री के समक्ष निवेदित किया—हे माते! ऐसा लगता है कि नागराज कुमारी माधवी (उपवन में उस दिव्य पुरुष के अद्भुत कृत्य से विमोहित हो गई थी) तभी से वह मौन सी गुमसुम हो गई है॥१॥
॥नागेन्द्री उवाच॥
का व्यथा किमिदं कष्टं माता पृच्छति ते मुहुः।
कस्मादिदं समुत्पन्नं दुःखसाध्यं मनोरमे॥२॥
तब माधवीजी के पास जाकर नागेंद्री ने कहा—हे मनोरमे! तुम्हें क्या व्यथा है? तुम्हें क्या हुआ है? इसप्रकार माता बार बार पूछती हैं कि यह दुसाध्य रोग तुम्हे कहाँ? कैसे? कब? लग गया॥२॥
महावीरस्तव पिता देवानामपि दुर्जयः।
किं व्यथा त्वन्मुखे स्वेदो नासाग्रे च विराजते॥३॥
नागकन्ये! तुम्हारे पिता महान् वीर हैं, देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं, फिर तुम्हे किस बात का भय या आशंका है, तुम्हारी क्या व्यथा है? जिसके कारण तुम्हारे मुख और नासिका के अग्रभाग पसीने से तर हो गये॥३॥
सम्पूर्णचन्द्रप्रतिमं मुखं चन्द्रो यथा घने।
श्वासान् मुञ्चसि वत्से त्वं न रतिं यासि च क्वचित्॥४॥
हे पुत्री! पूर्ण चन्द्रमा के समान तुम्हारा उज्जवल मुख बादलों में छिपे चन्द्रमा की भाँति न दिखाई देने के कारण शोभाहीन प्रतीत हो रहा है, अर्थात् दुःख के बादलों की छाया मुख चंद्र पर विराजमान होने के कारण तुम्हारा पूर्णचंद्र की भाँति उज्जवल मुख कांतिहीन प्रतीत हो रहा है। तुम लम्बी-लम्बी सांसे छोड़ रही हो। रति की प्रतिरूपा, सुकन्ये! तुम्हारी यह दशा मुझे रुचिकर नहीं लग रही। इसका क्या कारण है? मुझसे कहो पुत्री!॥४॥
॥जैमिनिरुवाच॥
सर्वम् उत्क्त्वा च कामेन मोहिता परिपीडिता।
स्मरन्ती पतिभावं सा नागपुत्री रुरोद हि॥५॥
जैमिनी जी कहते हैं—पतिभाव का मन में स्मरण करते हुए विलाप करती हुई वह नागसुता अपने विमोहित मन तथा काम पीड़ित तन की उस व्यथा को माता से कहने लगी॥५॥
॥जैमिनिरुवाच॥
लज्जावती महाभागा मातरं भृशमाऽ ऽरुदत्।
जैमिनी जी कहते हैं—राजन्! तब, लज्जाशील, महाभागा माधवी जी विलाप करते हुए माता से कहने लगीं—
॥माधवी उवाच॥
लज्जाकरं हि नारीणां यौवनं क्लेशकारणम्॥६॥
माधवी जी कहती हैं—हे माते! युवा अवस्था ही प्रायः नारियों के लिए लज्जा का कारण हुआ करती है॥६॥
सरस्तीरे यथा कोऽपि पुरुषोऽवगतो हि मे।
मनुष्याणां च सर्वेषां यो विशिष्टतमो नरः॥७॥
माते! मुझे सरोवर के किनारे कोई ऐसा पुरूष दिखाई दिया जो न केवल मानवों में, अपितु सभी (देव, नाग, नर, गंधर्व, यक्ष, ऋषि आदि)-में श्रेष्ठ तथा कोई विशिष्ट ही पुरुष था। जिसे मैं मन से बहुत चाहने लगी। हे माते! मुझे पति स्वरूप में, वे ही अभीष्ट हैं॥७॥
॥नागेन्द्री उवाच॥
न हि यस्य कुलं पुत्रि न कीर्तिर्नापि पौरुषम्।
कश्चिज्जानाति तत्त्वेन किमिदं त्वं विमुह्यसे॥८॥
माता ने कहा—पुत्रि! तुझे न जिसके कुल का पता, न जिसकी कीर्ति का ज्ञान, ना ही जिसके पुरुषार्थ का ही कोई ज्ञान। फिर भला किन तत्वों के आधीन, तुम इस प्रकार विमुग्ध हो रही हो? मैं नहीं जानती (मैं नहीं समझ पा रही।)॥८॥
॥माधवी उवाच॥
शिष्टतारूपसम्पन्नो मनोज्ञः प्रियदर्शनः।
देवतानामृषीणां वा नेदृशो फणिनामुत॥९॥
माधवी जी ने कहा—माते! वे शिष्ट हैं! रूपवान हैं! मनोहर हैं! देखने में ही प्रिय लगते हैं। ऐसा मनमोहक दिव्य पुरुष, न देवों में, न ऋषियो में, न ही नागों में पहले कभी देखा गया होगा॥९॥
न ह्यसौ प्राकृतः कश्चिद् यः प्रविष्टोऽत्र युघ्द्यति।
लोकेऽन्यलोके विख्यात एकः शत्रुनिर्बहणः॥१०॥
माते! वे कोई साधारण जीव नहीं हो सकते, जिसने तुम्हारे इस विख्यात सर्वथा संरक्षित नागलोक में अकेले ही स्वबल पूर्वक आगमन कर लिया हो। वे निश्चित ही शत्रुमर्दन शूरवीर ही हैं॥१०॥
स पन्नगैः शतगुणं विशिष्टश्चारिसूदनः।
सम्प्रविष्टो मणिपुरं मूर्घ्ना चित्राङ्गमाक्रमत्॥११॥
हे माते! नागगण यदि अपनी शक्ति को सौ गुना भी कर लें, तो भी वे जिन्होंने नाग सैन्यपति चित्रांग के मस्तक पर पैर रखकर मणिपुर में प्रवेश किया है, वे ही इन सब से अधिक शक्तिशाली और शत्रुसूदन प्रमाणित होंगे॥११॥
कान्तः पद्मपलाशाक्षो मत्तमातङ्गविकमः।
त्यक्षाम्यहं ततः प्राणानचिरात् स पतिर्नचेत्॥१२॥
हे नागराजणी माते! वे अत्यंत ही कमनीय हैं, उनके नेत्रकमल प्रफुल्ल कमल दल के समान सुन्दर, चाल मतवाले हाथी के समान है। यदि मैं उन्हें पुनः नहीं देख पाऊँगी तो हे माते! मैं अपने प्राणों का ही परित्याग कर दूँगी॥१२॥
नान्यं देवं नासुरं वा गन्धर्वं वा मनोरमम्।
वरयामि, वरो लोके विना तं मे न रोचते॥१३॥
माते! मुझे सारे संसार में एक वे ही सर्वथा प्रिय (पसंद) हैं। मैं उनके अतिरिक्त अन्य किसी देवता, नाग, नर, असुर या गंधर्व को पति रूप में कदापि वरण नहीं करूँगी॥१३॥
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रसेनस्य रूपेण शरैर्मन्मथचोदितैः।
अतिविघ्दा च मनसा मन्मथेन प्रदीपिता॥१४॥
जैमिनी जी कहते हैं—श्री अग्रसेन के (आंतरिक दयालुतामयी तथा बाह्य दोनों ही) रूप-स्वरूप के सौन्दर्य से प्रभावित उस नागकन्या माधवी जी का हृदय कामदेव के बाणों द्वारा अत्यंत घायल हो चुका था। वे मदनाग्नि से दग्ध हो रही थीं॥१४॥
चित्तसङ्कल्पभावेन सुचित्ताऽनन्यमानसा।
मनोरथेन सम्प्राप्तं रमतेऽन्यत्र न स्म सा॥१५॥
उनका हृदय प्रियतम के चिन्तन में ही एकाग्र था। उन्हें अपने मन की भावनाओं में ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो श्री अग्रसेन उनके पास आ गए हों और वो उनके साथ रमण कर रही हों। (वस्तुतः मनस्थिति की एकाग्रता में चिन्तन, जाग्रत स्वप्न-सा और कल्पनाएँ मूर्त रूप-सी लगती हैं॥१५॥
इति सञ्चिन्तयन्तीं तां माधवीमब्रवीत् सखी।
जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! जब नागकन्या माधवी जी इस प्रकार स्वप्निल विचारों में खोई हुई थीं, तभी एक सखी ने उनसे पूछा—
॥सखी उवाच॥
मनोरथस्ते को जातः किं चिन्तयसि पन्नगि॥१६॥
सखी ने पूछा—क्यों? नागकन्ये! किन इच्छाओं को मन में जागृत कर रही हो? तुम क्या सोच रही हो?॥१६॥
कन्दर्पः स च रूपेण मूर्तिमान् भवति स्वयम्।
मनोहरश्च कान्तश्च प्रियश्च तव नान्यथा॥१७॥
श्रुतः पूर्वं न चास्माभिर्दृष्टपूर्वश्च नस्तथा।
यदीष्टं तस्य भार्यात्वं भजेथा वरवर्णिनि॥१८॥
सखी ने कहा—हे प्रिय सखे! यह सच है–उनका कामदेव जैसा रूप, कामदेव का साक्षात् प्रतिमान है, वे अद्भुत कांतिमय मन को क्षण भर में ही हर लेने वाले हैं, कामना को जगा देने वाले हैं, ऐसा प्रिय पुरुष आज तक तो हमारी दृष्टि में दूसरा और कोई नहीं आया। सखी! तुम्हे यदि ऐसे पुरुष की पत्नी होने का सौभाग्य मिले, तो अपने इस जीवन को सफल (धन्य) ही समझो॥१७-१८॥
॥जैमिनिरुवाच॥
एवमुक्ता स्मितं कृत्वा सम्मानं बहुमान्य च।
माधवी प्रत्युवाचैनां सम्प्रीता सख्यनिन्दिता॥१९॥
जैमिनी जी कहते हैं—अपनी सखी के मुख से इस प्रकार श्री अग्रसेन की प्रशस्ति युक्त प्रियवचन सुनकर माधवी देवी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने सखी के वचनों को अपनी 'पसंद' का सम्मान माना। अनन्त सुन्दरी नागकुमारी माधवी उस समय अत्यंत प्रसन्न हो सखी से इस प्रकार कहने लगीं—
॥माधवी उवाच॥
यस्त्वस्य कथितः सत्यो गुणोद्देशस्त्वया मम।
तं श्रुत्वाऽग्रं पुनश्चााग्य्रं कथं न वृणुयाम्यहम्॥२०॥
माधवी जी बोलीं—हे सखी! वे तो अनन्त गुणों के भंडार हैं, तुमने मेरे सामने जो उनके लेश मात्र गुणों का बखान किया, वे सब सत्य ही हैं। मैं दूसरों के मुख से भी उनकी प्रशंसा सुनकर व्यथित हो उठती हूँ। हे सखी! मैं इससे अधिक उनका कैसे वरण करूँ? अर्थात् मैंने तो मन से उनका वरण कर ही लिया है।
॥जैमिनिरुवाच॥
तदाऽऽगता तु नागेन्द्री पन्नगेश्वरमब्रवीत्।
जैमिनी जी कहते हैं—तब पुत्री की भावनाओं को जानकर नागेन्द्री अपने पति नागराज महीधर के पास आकर उनसे कहने लगीं—
॥नागेन्द्री उवाच॥
समीक्ष्य कार्यं ते नाग पुत्री संप्राप्तयौवना॥२१॥
नागेन्द्री ने कहा—हे नागराज शिरोमणि! अपनी पुत्री युवा अवस्था में प्रवेश कर चुकी है, आपका क्या कर्तव्य है? कृपया विचार कीजिये।
माधवी तु तथा दृष्ट्वा वने कश्चिन्नरेश्वरम्।
ततः प्रभृति न स्वस्था तस्मिन् सक्ता बभूव सा॥२२॥
हे नागेन्द्र! माधवी ने वन में जबसे किसी पुरुष को देखा है, तब से वह उसके प्रति इतनी अधिक अनुरुक्त हो गई है कि इस कारण वह अस्वस्थ तक हो गई है।
॥महीधर उवाच॥
विस्मयोऽत्र न कर्तव्यः कन्या वक्तीदृशं वचः।
अत्यारूढः कुमारीणां कालज्ञो हि मनोभवः॥२३॥
तब नागराज ने कहा—हे नागेन्द्री! यह माधवी अभी अल्प वयस्का कन्या है इसलिये ऐसी बातें कह रही है। इस विषय में हमें किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं करना चाहिये। कौमार्य अवस्था में जब आसक्ति जागृत होती है, तब उन्हें उस समय उचित अनुचित का किंचित भी ध्यान नहीं रहता।
धर्मात्मानं महात्मानं दैत्यदानवमर्दनम्।
नागमित्रं महेन्द्रेज्यं का तं न वरयेत् पतिम्॥२४॥
नागराज ने कहा—प्रिय नागेन्द्री! दैत्यों और दानवों का मान मर्दन करने वाले धर्मात्मा और महामना देवराज इन्द्र नागों के परम मित्र हैं (नागों और देवों का परस्पर गहन सम्बन्ध है) ऐसे महेन्द्र का भला कौन कामिनी पति के रूप में वरण न करना चाहेगी?
एतदर्थे तु सन्देशः शक्रेण प्रेषितः स्वयम्।
कथं ह्यहं प्रतिश्रुत्य देवं किं नु विधीयताम्॥२५॥
हे नागेन्द्री! तद्हेतु हमें स्वयं देवोत्तम इन्द्र की ओर से संदेश प्राप्त हुआ है, जो कि हमारे लिए गौरव की बात है। मैंने इस हेतु देवराज को वचन भी दे दिया है, और... उसी के अनुरूप ही किया जाएगा।
तिष्ठत्सु देवदेवेषु कथं मानुषमिच्छति।
विरुद्धं ह्याचरन् मर्त्यो देवानां मृत्युमृच्छति॥२६॥
हे नागरानी! विचार करो! देवराज स्वयं, इस संबंध के लिये लालायित हैं, तो एक साधारण मनुष्य को वरण करने की कामना भला कैसे उचित कही जा सकती है। इस प्रकार देवताओं के विरूद्ध चेष्टा करने वाला मानव क्षण में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
कृतघ्नाः वैष्णवाः सर्वे नेष्यन्ति हि सुधामपि। सततं वैनतेयेन विग्रहः को नु सम्भवः॥२७॥
हे नागेन्द्री! ये सभी वैष्णव हमेशा कृतघ्न ही होते हैं। नागकन्या से विवाह होने पर तो वे हमारे पूजनीय हो जायँगे और तब इस लोक में संरक्षित अमृत नष्ट हो जाएगा और जिनसे हमारा सदैव विग्रह है (नागों अर्थात् शैवों तथा नरों अर्थात् वैष्णवो में निरंतर शत्रुता विद्यमान थी) ऐसी परिस्थिती में (एक ओर नागमित्र देवराज के प्रस्ताव को प्रदत्त स्वीकृति दूसरी ओर शत्रुपक्ष के मानव से संबंध) तुम्ही विचार करो! यह संबंध कैसे संभव है? अर्थात् कदापि संभव नहीं।
नागराजेनैवमुक्ता पन्नगेन्द्री वचोऽब्रवीत्।
॥नागेन्द्री उवाच॥
को दण्डभयतो देव नागग्रामे समागतः॥२८॥
नागराज महीधर के इसप्रकार कहे जाने पर प्रतिकार करते हुए नागेन्द्री ने पूछा—हे नागेश्वर! देवों का कौन सा दण्ड भय इस नागलोक में आ गया है, जो आप इस प्रकार कह रहे हैं।
एष धर्मो नागलोके कन्या तु स्यात् स्वयंवरा।
मानुषं कृतसङ्कल्पा वृणीते पन्नगात्मजा॥२९॥
हे नागराज! इस नागलोक का यही धर्म है, कि यहाँ कन्या स्वयंवरा (स्वयं वर का चयन करने वाली) होती हैं आपकी पुत्री माधवी ने उस (वैष्णव) पुरुष में ही अपना मानसिक संकल्प रखकर उसका मन में वरण कर लिया है। (देवराज को तो वह पहले ही नकार चुकी थी।)
विवाहं कुरु विश्रब्धं न दोष इति मे मतिः।
हे नागेश्वर! विश्वस्त होकर अपनी स्वयंवरा कन्या का विवाह उसके अनुकूल कीजिये। मेरे विचार से तो इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है।
॥जैमिनिरुवाच॥
एवं विधिवचः श्रुत्वा प्रत्युवाच फणीश्वरः॥३०॥
मया प्रोक्तमिदं ब्रूहि कन्यामन्यन्न विद्यते।
ततो जगाम भग्नाशा सा पुनः स्वनिवेशनम्॥३१॥
जैमिनी जी कहते हैं – नागरानी के इस प्रकार अभिमत को सुनकर प्रतिउत्तर में नागराज ने उनसे कहा –
हे नागेन्द्री! (ध्यान रहे!) मेरे द्वारा जिस प्रकार पहले कहा जा चुका है, वह वैसा ही होगा। तब वह पन्नगी श्रेष्ठ नागेन्द्री आशाओं के टूट जाने से निराश हो पुनः महल में लौट आईं।
नागेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा माधवी शोकजाश्रुभिः।
समाप्लुताभ्यां नेत्राभ्यां मातरं तां वचोऽब्रवीत्॥३२॥
तब अपनी माता नागेन्द्री से नागराज के इस कठोर निर्णय को सुनकर शोकाश्रुओं से भरे नयनों वाली वे माधवी देवी माता की ओर देख कर कहने लगीं—
॥माधव्युवाच॥
को नु मे जीवितेनार्थस्तमृते शोककारिणा । नाहं पतित्वे वाञ्छामि तमृते पुरुषर्षभम्॥३३॥
माधवी जी बोलीं – हे माते! उन पुरुष रत्न को मैं यदि पति के रुप में वरण नहीं कर पाऊँगी तो फिर दुःख-पूर्ण मेरे ऐसे जीवन का भला क्या प्रयोजन? अर्थात मैं जीकर क्या करूँगी? प्राणों को ही विसर्जित कर दूँगी।
॥जैमिनिरुवाच॥
अदृष्टपूर्वदुःखार्ताः सतर्का नागकन्यकाः। वयमाश्वासयामोऽद्य कर्तुं किमपि साम्प्रतम्॥३४॥
जैमिनी जी कहते हैं – सुकन्या माधवी जी की सखियों ने उन्हें पहले कभी इस प्रकार दुःखी या उदास नहीं देखा था। उन नागकन्याओं ने आपस में विचार कर निश्चय किया कि हमें किसी भी उपाय से अपनी सखी के मन अभिलाषित प्रिय कार्य को पूर्ण करने का चलकर उन्हें आश्वासन देना चाहिए।
॥नागकन्यकाः ऊचुः॥
कथं नु खलु दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा।
कथं भर्त्रा सङ्गमोऽस्याः रोहिणीचन्द्रयोर्यथा॥३५॥
नाग कन्याओं ने आपस में कहा—हे सखि! जैसे रोहिणी चन्द्रमा के संयोग से ही सुखी होती है, उसी प्रकार यह शुभ लक्षणा नागराज कुमारी अपने पति के मिलन बिना इस दुःख के अपार समुद्र से भला कैसे पार होगी?
तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंवृताम्। किमुपायास्तोषयामः पतिदर्शनलालसाम्॥३६॥
नागराज कुमारी माधवी जी और पुरुष श्रेष्ठ श्री अग्रसेन का समान शील है, योग्य अवस्था है। उन्हीं के तुल्य उत्तम कुल सुशोभित है, अतः हमें पति के रुप में उनके दर्शन को उत्कंठित अपनी प्रिय सखी माधवी का यह हितकारी कार्य संपन्न करवाने का कोई योग्य उपाय करना ही चाहिए।
॥जैमिनिरुवाच॥
ततस्तास्तां परिष्वज्य प्रियाख्यानैरतोषयन्।
मा माधवि भयं शीघ्रं भर्त्रा सह हि रंस्यसे॥३७॥
सङ्क्रीडते यथा शम्भुः पार्वत्या सह सर्वदा।
एवमुक्ते तदा सख्या वाक्ये चिन्ताऽऽविलेक्षणा॥३८॥
जैमिनी जी कहते हैं—इस प्रकार निश्चय कर उन सखियों ने माधवी जी को हृदय से लगाकर उन्हें प्रिय वचनों से संतुष्ट किया और आश्वस्त किया कि हे सखी माधवी! तुम भी शीघ्र ही अपने मनवांछित पति के साथ उसी प्रकार रमण करोगी, जिस प्रकार भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ सदा मधुर क्रीड़ा में मग्न रहते हैं।
सखियों के ऐसा कहने पर माधवी जी की आँखें इस चिंता से मुंद गई कि पता नहीं यह सौभाग्य कब और किस तरह संभव होगा?
माधवी तु तदा भावं चक्रे रंस्ये कथं कदा।
तदा चित्रा माधवीं तां सम्प्रहस्येदमब्रवीत्॥३९॥
उस समय उन सखियों के वचन से आशावती माधवी जी मन ही मन पति के संग की कल्पनाओं में खो गईं। तभी सखी चित्रा उनसे हंसकर इस प्रकार कहने लगी – सुनो!
॥नागकन्यकाः ऊचुः॥
अद्य देव्याः प्रसादस्ते ह्यनुकूलो भविष्यति।
मनोरथं पूरयिष्यत्येषा ते नात्र संशयः॥४०॥
नाग कन्याओं ने कहा – अब देवी पार्वती का कृपा प्रसाद तुम्हारे अनुकूल हो जाय तो जो सोचा है वह सहज संभव है। सखी माधवी! देवी पार्वती निश्चित ही तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करेंगी। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं।
॥जैमिनिरुवाच॥
सखीभ्याम् एवमुक्ता सा पर्यवस्थितचेतना।
आराधनायोपगता सख्या सह तु माधवी॥४१॥
जैमिनी जी कहते हैं – सखी चित्रा के ऐसा कहने पर माधवी जी की चित्तवृति स्थिर हुई और तब सभी मनोकामना को पूर्ण करने वाली देवी पार्वती की आराधना करने के लिये सखियों सहित वे नदी के तट पर पार्वतीजी के मंदिर में जा पहुँचीं।
ततः पल्लविता आसन् द्रुमास्तस्मिन् मघौ सति।
तस्मिन् पल्लवितेऽत्यन्तं कोकिला मधुरं जगुः॥४२॥
उस समय वसंत ऋतु के आगमन के कारण उस नदी तट के सभी वृक्षों में नवपल्लव निकल आए थे, नवीन एवं सुकोमल पल्लवों वाले आम के वृक्षों पर कोयलें अत्यन्त मधुर स्वर में गा रही थीं।
मालतीयूथिकाजात्यः पुष्पस्तनभरानताः।
केतक्यः पुष्पवर्षेण समर्चन्ति स्म ताः पतिम्॥४३॥
वहाँ मालती, जुही, और जाती मानो अपने पुष्प रूपी स्तनों के भार से झुकी जा रही थीं। केतकियाँ प्रसन्नता से पुष्पों की वर्षा कर अपने प्रियतम वसंत का स्वागत कर रहीं थी।
माधवी स्वसखीनां तद् वाक्यं प्रीत्याऽभ्यपूजयत्।
सा देवीं प्राञ्जलिर्भूत्वा नमस्कृत्वाऽब्रवीद्वचः॥४४॥
माधवी देवी अपनी सखियों के उस कथन का विधिवत् आदर करते हुए महादेवी पार्वती को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु आराधना करने लगीं।
॥माधवी उवाच॥
यद्यहं समनुग्राह्या गौरि स्यात् प्रियसङ्गमः।
एषोऽञ्जलिर्मया बद्धः सत्यं मे कामनां कुरु॥४५॥
माधवी जी ने कहा – हे गौरी मैया! यदि मैं आपके अनुग्रह की पात्र हूँ, तो प्रियतम की कामना से मैंने तुम्हारे सामने अंजुरी बाँध रखी है, आप कृपा करो और मेरी इस कामना को सत्य कर दिखाओ।
यथा गौरि स मे भर्ता विहितो हि नराधिपः।
तेन दाक्षायणि प्रीता भर्तारं देहि मेऽचिरम्॥४६॥
हे गौरी मैया! यदि आपने उन नरेश को ही मेरा पति निश्चय किया है, तो हे दक्षकुमारी! कृपया उस सत्य के प्रभाव से ही आप मुझे उन्हें पति रुप में प्रदान करें।
यदिदं व्रतमारब्धं तस्मा आराधनं मया।
तेन व्रतेन कुर्यान्मां देवी पूर्णमनोरथाम्॥४७॥
हे माते! यदि मैने उनकी आराधना के लिये ही यह व्रत प्रारंभ किया हो, तो उस व्रत के प्रभाव से ही हे देवी पार्वते! आप मेरे मनोरथ को पूर्ण करें।
जननीं सिद्धसेनस्य सिद्धचारणसेविताम्। चरीं कुमारप्रभवां पार्वतीं पर्वतात्मजाम्॥४८॥
सिद्ध और चारण जिनकी सेवा में लगे रहते हैं, जो कार्तिकेय की जननी हैं, जिनसे कुमार की उत्पत्ती हुई है, तथा जो पर्वत श्रेष्ठ हिमालय की पुत्री हैं, उन देवी पार्वती को मैं प्रणाम करती हूँ।
नमोऽस्तुते जगन्नाथे प्रिये दान्ते महाव्रते।
भक्तिप्रिये जगन्मातः शैलपुत्रि वसुन्धरे॥४९॥
जगत् की रक्षा करने वाली प्रिय देवी! पार्वती! आपको नमस्कार है। मन तथा इन्द्रियों को वश में रखने वाली महाव्रत धारिणी! हे भक्तप्रिये! हे जगतमाता! हे गिरिराज नन्दिनी! हे वसुन्धरे! मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ।
रुद्रप्रिये महाभागे भक्तानामार्तिनाशिनि।
नमोऽस्तु ते सर्वहिते गौर्यै देव्यै नमोस्तु ते॥५०॥
हे रुद्रप्रिये! भक्तों की पीड़ा हरने वाली! हे महाभागे! तुम्हे नमस्कार है। सबका हित करने वाली हे गौरी मैया! मैं आपको नमन करती हूँ।
नमामि शिरसा देवीं पार्वतीं शङ्करप्रियाम्।
मनोरथं हि भर्तारं गौरि देहि नमोऽस्तु ते॥५१॥
शिवप्रिया देवी पार्वती के श्रीचरणों में अपना यह मस्तक रखकर मैं नमस्कार करती हूँ, हे गौरी मैया! आप मेरे मनोरथ को पूर्ण कीजिये। मैंने जिनकी कामना की है हे जगन्माते! उसे ही मेरे पति के रूप में मुझे प्रदान कीजिये। मैं तुम्हे नमस्कार करती हूँ।
॥जैमिनिरुवाच॥
माधव्यास्तत् सकरुणं निशम्य पतिदेवता। निश्चलं प्रेम तत् तथ्यमनुरागं च देव्यदात्॥५२॥
जैमिनी जी कहते हैं – माधवी जी का यह करुण निवेदन सुनकर, तथा श्री अग्रसेन जी के प्रति उनके दृढ़ निश्चय एवं वास्तविक अनुराग और अविचल प्रेम को देखकर देवी पार्वती ने माधवी जी की जैसी अभिलाषा थी उसी के अनुरूप ही किया।
विज्ञाय तमभिप्रायं माधव्याः सा शिवप्रिया।
प्राह देवी ततो वाक्यं हर्षयन्ती शनैश्च ताम्॥५३॥
माधवी जी के उस अभिप्राय को जानकर शिवप्रिया देवी पार्वती साक्षात् प्रकट हो उन्हें हर्ष प्रदान करती हुई धीरे से बोलीं –
॥उमा उवाच॥
माधवि त्वं प्राप्स्यसीह यथाभिलषितं वरम्।
यथा मनोरथं चक्रे पार्वती सन्निधौ शिवम्॥५४॥
जगदम्बा उमा कहने लगीं—माधवी! तुम शीघ्र ही जैसी तुम्हारी मन अभिलाषा है, वैसा ही पाओगी। तब जगतमाता पार्वती के इसप्रकार वर देने पर माधवी जी ने देवी के समक्ष ही अपने मन का यह संकल्प कहा—
॥माधवीसंकल्पः॥
त्वत्प्रियार्थं करिष्यामि गौरि वासन्तिकं व्रतम्।
शुक्लपक्षे तृतीयायां कृत्वा भक्त्या सुपूजनम्॥५५॥
माधवी देवी ने संकल्प किया – 'हे माते! आपकी प्रसन्नता के लिये मैं वसंत आगमन के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथी को आपका विस्तृत पूजन–अर्चन करूँगी।'
पुष्पमण्डपिकां कृत्वा मूर्ति चित्रमयीं शुभाम्।
तोषयिष्यामि तुष्टा स्याः शङ्करप्राणवल्लभे!॥५६॥
पुष्प मंडप तैयार करके उसमें आपकी चित्रमयी मूर्ति स्थापित कर हे शंकर प्रिया! मैं अपने भक्तिपूर्ण पूजन से आपको सदैव संतुष्ट करूँगी। माधवी जी ने इस प्रकार मानसिक संकल्प किया।
॥जैमिनिरुवाच॥
ततः सखीभिर्हृष्यन्ती हर्षेणोत्फुल्लमानसा।
तालिकासन्निपातैश्च ह्यन्योन्यं जघ्नुरूर्जिताः॥५७॥
जैमिनी जी कहते हैं—माता पार्वती की इस प्रकार प्रसन्नता प्राप्त होने पर सखियाँ नागकुमारी के साथ परिहास करने लगीं। माधवी जी का हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो खिल उठा, वे सब उत्साह में भरकर एक दूसरे के हाथ पर तालियाँ देने लगीं।
गौरीस्तवं व्रतं चेदं कुरुते या हि कामिनी । यथाभिलाषं वरदा करोति जनमेजय॥५८॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! जो कन्या माता पार्वती का इस प्रकार इस स्तवन का पाठ एवं उसका व्रत करती हैं, उसे शंकरप्रिया पार्वती प्रसन्न होकर मनोभिलाषा के अनुरूप 'वर' प्रदान करती हैं, उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करती हैं।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते चतुर्दशोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।