Best Historical and Knowledgeable Content here... Know More.

  • +91 8005792734

    Contact Us

  • amita2903.aa@gmail.com

    Support Email

  • Jhunjhunu, Rajasthan

    Address

 

 

॥श्री अग्र भागवत॥

 

चौबीसवाँ अध्याय

 

चेतना

 

॥जैमिनिरुवाच॥

श्रद्दधाना जितक्रोधा दानशीलानसूयवः। 

यथार्हमानार्थकरा आर्षाः करुणवेदिनः॥१॥

जैमिनीजी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! महाराजा अग्रसेन श्रद्धावान् थे। क्रोध को जीत चुके थे, दानी थे, सबका समुचित मान करते थे। आर्ष पुरुषों के अनुरुप उनका व्यवहार था। वे साक्षात् करुणा की मूर्ति थे।

 

त्रस्तं विषण्णमुद्विग्नं भयार्तं व्याधितं कृशम्। 

हृतस्वं व्यसनार्तं च नित्यमाश्वासयन्ति ते॥२॥

राजन्! त्रस्त, विषादग्रस्त, उद्विग्न, भयभीत, व्याधिग्रस्त, दुर्बल, पीड़ित व्यक्तियों को तथा जिसका सर्वस्व लुट गया हो उन सभी मनुष्यों को वे सदा धीरज बँधाया करते थे।

 

धर्ममेवान्ववर्तन्त नित्यमेवानुमोदताम्। 

सदा हि वदतां धर्मं सदा चाप्रतिगृह्णताम्॥३॥

वे सदैव धर्म का ही आचरण करते थे और सदा उसका ही अनुमोदन करते थे। वे सदा धर्म की ही चर्चा में लगे रहते थे और प्रतिगृह से सदा ही दूर रहते अर्थात् बदले में मान-सम्मान आदि भी कुछ नहीं चाहते थे। उनका सम्पूर्ण कर्म कर्तव्य-भावना से होता था।

 

नित्यं दानं तथा दाक्ष्यमार्जवं चैव नित्यदा। 

उत्साहोऽथानहङ्कारः परमं सौहृदं क्षमा॥४॥

सत्यं धृतिस्तथा शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।

क्वचिदेष्वनभिद्रोहः प्रभवेद् जनमेजय॥५॥

जैमिनीजी कहते हैं—हे कुरुकुलश्रेष्ठ जनमेजय! नित्यदान, परम ज्ञान किन्तु सरलता, उत्साह, अहंकार शून्यता, परम सौहार्द्र, सत्य, धैर्य, तप, शौच, करुणा, मधुर वचन, तथा किसी से भी द्रोह न करने का भाव—ये सभी सद्‌गुण महाराजा अग्रसेन में विद्यमान थे।

 

ततः कलिविपर्यासे मानुषाणां गुणक्षयात्।

क्षीणो धर्मो युगान्ते तु कामक्रोधवशात्मनाम्॥६॥

हे महाप्राज्ञ जनमेजय! द्वापर के अन्तकाल में जब धर्म क्षीण होने लगा तथा लोग काम और क्रोधादि के वशीभूत होने लगे, उसीसमय कलियुग का प्रवेश हुआ था। कलियुग के उलट-फेर से मनुष्यों के गुणों में विपरीतता आने लगी थी।

 

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! (उसी कलि के प्रभाव से तुम्हारे पिताश्री धर्मज्ञ सम्राट् महाराजा परिक्षित भी छले गए थे। प्रजावत्सल, परमज्ञानी महाराजा ने कलियुग को कुछ स्थानों में प्रवेश की अनुमति दे दी थी, और कलि ने उन्हें अधर्म की ओर प्रेरित कर उनसे ऋषि के अपमान का वह अनर्थपूर्ण कर्म कराकर उनके काल को सुनिश्चित करवा दिया था।)

 

क्वचिच्चोरैः क्वचिच्छस्त्रैः क्वचिद् राजभिरातुरैः। 

परस्परभयाच्चैव बहवः शून्यसत्क्रियाः॥७॥

धर्मज्ञ जनमेजय! तब उस कलि के प्रभाव से, कहीं चोरों से, कहीं अस्त्र-शस्त्रों से, कहीं राजाओं के आपसी द्वन्द्वों से और कहीं क्षुधातुर मनुष्यों द्वारा तरह-तरह के उपद्रव खड़े किये जाने के कारण तथा पारस्परिक भय से बहुत से राज्य और नगर उजाड़ होने लगे।

 

गतदैवतसंस्थानाः हता विप्राः भयातुराः। 

तस्मिन् प्रतिभये काले क्षीणो धर्मो युगक्षये॥८॥

हे धर्मज्ञ राजन्। तब ब्राह्मण नष्ट हो रहे थे (अपने आचरण से भ्रष्ट हो रहे थे।) देवालय तथा मठ-मंदिर आदि संस्थान उठ रहे थे (श्रद्धा न होने के कारण महत्वहीन हो गए थे) सभी ओर प्राणियों में हाहाकार व्याप्त हो रहा था।

 

अपश्यन् निर्गतं धर्मं न च शौचमवर्तत। 

पुत्राः पितॄनत्यचरन् नार्यश्चात्यचरन् पतीन्॥९॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! उस समय मैंने भी देखा–लोगों में धर्म नहीं रह गया था, न ही लोगों में पवित्रता ही शेष रही थी। पुत्रों ने पिताओं पर तथा स्त्रियों ने पतियों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया था।

 

तथा धर्मादपेता ये गर्हितेनैव कर्मणा। 

महतः प्राप्नुवन्त्यर्थास्तेषां तत्राभवत् स्पृहा॥१०॥

हे धर्मज्ञ राजन्! धर्म के विपरीत निन्दित कर्मों द्वारा जिन्हें विपुल धन उपलब्ध हो गया, उनकी उसी प्रकार अधर्मपूर्वक धनोपार्जन करने की अभिलाषा और बढ़ गई।

 

कृतघ्नाः नास्तिकाः पापा निर्मर्यादा हतत्विषः।

अप्रभुत्वे स्थिता वृद्धा प्रार्थयन्त्यन्नमात्मजान्॥११॥

हे जनमेजय! और तब कृतघ्न, नास्तिक तथा पापाचारी मनुष्य धर्म की मर्यादाओं को तोड़कर मनमाना आचरण करने लगे। वृद्ध माता पिताओं का अपने ही घरों में प्रभुत्व नष्ट हो गया। उन्हें अपने जीवन यापन के लिये अपने ही पुत्रों से अन्न की (भीख माँगना) याचना करनी पड़ने लगी।

 

धर्मो यथाऽभितो रुद्धः सर्वत्र भयदर्शनम्। 

निरीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या ऋषिः प्रोवाच साम्प्रतम्॥१२॥

जब इस प्रकार सब ओर धर्म का मार्ग अवरुद्ध होने लगा, तब चारों ओर विनाशकारी भय ही भय दिखाई देता था। द्वापर व कलि की संधि के इस युग संक्रातिकाल से सभी ऋषिगण, मुनिगण, महात्मा पुरुष स्वाभाविक रूप से चिन्तित हो उठे। तब महर्षि गर्ग ने इस विषय में अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा योग्य विचार कर राजर्षि महाराजा श्री अग्रसेन से कहा—

 

॥गार्ग्य उवाच॥

एष स‌ङ्क्रान्तिकालोऽयं अनुतिष्ठस्व शासनम्।

विनश्यन्तं भवान् धर्मं रक्षेत् नित्यम् अनुव्रतः॥१३॥

महर्षि गर्ग ने कहा—हे राजर्षि! अग्रसेन! यह युग का संक्रमणकाल है! तुम उठो! और अशांति से ग्रसित पृथ्वी पर धर्म और शांति की स्थापना हेतु योग्य प्रयत्न करो। राजन्! तुम नित्य ही धर्म का अनुसरण करने वाले हो। इस तरह नष्ट होते हुए धर्म की रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ततोऽग्रसेनः उन्निन्ये सुसन्देशं सुखावहम्। 

संवर्धितं यशो भूयः कर्मणा धर्ममाचरन्॥१४॥

जैमिनी जी कहते हैं—धर्मज्ञ जनमेजय! तब उन महात्मा अग्रसेन ने युग को सुख शांति प्रदान करने वाला धर्म का चेतना पूर्ण संदेश जन-मन में फैलाने आग्रेय से प्रस्थान किया। उनका यह धर्म संस्थापन हेतु किया गया कर्म उनके यश का बहुगुणा विस्तार करने वाला हुआ।

 

तस्मिन् काले तु यद् युक्तं धर्म संवर्धयन् हितम्। 

तद् राजा धर्मतश्चक्रे प्रजापालनमुत्तमम्॥१५॥

धर्मज्ञ जनमेजय! उस समय नष्ट होते हुए धर्म के विवर्धन की सिद्धि के लिये उचित कर्तव्यों का महाराजा अग्रसेन ने धर्मपूर्वक पालन किया। वे कलि के प्रभाव से ग्रसित, उत्पीड़ित प्रजा की रक्षा करने के साथ-साथ उन्हें जीवन-धर्म का उपदेश भी देते थे ।

 

देशे देशे पूज्यमानः प्रशान्तभयराजसः। 

शृण्वंस्ता मधुरा वाचः प्रहृष्टश्चभ्यभाषत॥१६॥

देश-देश में सम्मानित होते हुए वे राजर्षि अग्रसेन कलि के प्रभाव से उत्पन्न रजोगुण जनित प्रवृत्तियों का दमन करते हुए जगत् में शांति की स्थापना का उपक्रम कर रहे थे। जगह-जगह लोग उनके मधुर वचनों को सुनने के लिये लालायित रहते थे और वे उन्हें प्रसन्नतापूर्वक उपदेश देते थे।

 

यथा ज्योतिः परं ज्योतिः प्रकर्षति तथाऽग्रराट्। 

कुरुते विततं कर्म यथाऽऽदित्यः प्रदक्षिणम्॥१७॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! जिस प्रकार अन्धकार के निवारण कर्ता आदित्य (सूर्यदेव) सम्पूर्ण ज्योतियों को अपनी ओर खींचते हुए प्रकाश रूप में पृथ्वी की प्रदक्षिणा करते हैं, उसी प्रकार राजर्षि अग्रसेन भी अज्ञान के अंधकार को विनिष्ट करने के क्रम में जुटे हुए थे। वे लोगों की मनोभावनाओं को अपनी ओर (धर्म की ओर) खींचते हुए तथा संचेतना का प्रकाश फैलाते हुए पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर रहे थे।

 

सन्तता गतिरेतस्य नैष तिष्ठति जातुचित्। 

अहोरात्रं च भूतानां भावयत्यग्रसेनराट्॥१८॥

हे जनमेजय! इस प्रकार राजर्षि अग्रसेन अपने धर्म-प्रसार के कर्म में अन्य ऋषि मुनियों तथा महात्माओं की तरह ही निरंतर गतिशील थे। वे एक क्षण के लिये भी अपने कर्तव्य से विलग नहीं होते थे। तब रात-दिन सभी प्राणिभूतों की पुष्टि हेतु 'धर्म की संचेतना का प्रसार' ही उनका कर्म था।

 

दृष्ट्वा व्यवस्थितान् लोकान् मर्यादान्वितचेतसः। 

आजगाम महात्माऽग्र आग्रेयञ्च पुरोत्तमम्॥१९॥

जैमिनी जी कहते हैं—श्री अग्रसेन के चेतना जागरण अभियान से जब लोक की मर्यादा सुव्यवस्थित तथा सुरक्षित प्रतीत होने लगी, तब महात्मा अग्रसेन पुनः अपने राज्योत्तम राज्य आग्रेय में पधारे।

 

अर्चयामास तं वीरं पतिं पतिपरायणा। 

निरीक्षमाणा भर्तारं माधव्यद्भुततेजसा॥२०॥

तथाविधेन पात्रेण पुनर्नीराजयत्यसौ। 

नीराजयित्वा स्वं कान्तम् अन्तर्निन्ये मनस्विनी॥२१॥

और तब सर्वप्रथम परम पतिपरायणा नागसुता माधवी देवी ने अपने धर्मवीर पति की पूजा की। अपने पति के मुख पर उद्भूत अनुपम तेज को निहारती हुईं वे उस प्रज्वलित दीप से सजी थाली से अपने मनस्वी पति की प्रसन्नतापूर्वक आरती उतारने लगीं।

 

अग्रसेनस्य तत् कर्मं दृष्ट्वा धर्मोत्तमं परम्।

साश्रुकण्ठः पुरोधाश्चाप्यग्रसेनमुवाच ह॥२२॥

जैमिनी जी कहते हैं—राजर्षि अग्रसेन के इस परम उत्तम धर्म-कर्म (अशांत युग में शांति की स्थापना हेतु प्रयत्न) को देखकर आग्रेय गणराज्य के हितसंरक्षक महर्षि गर्ग का गला भर आया। और... वे हर्षातिरेक से आँसू छलकाते हुए श्री अग्रसेन की (प्रशंसा करते हुए) बोले—

 

॥गार्ग्य उवाच॥

प्रत्यक्षं सुखभूयिष्ठमात्मसाक्षिकमच्छलम्। 

सर्वलोकहितं धर्मम् अग्र त्वय्येव विद्महे॥२३॥

महर्षि गर्ग ने कहा—हे वत्स अग्रसेन! जो धर्म प्रत्यक्ष है, अधिक सुखमय है, आत्मा के साक्षित्व से युक्त है, छल रहित है तथा सर्वलोक हितकारी है–वह धर्म तुममें प्रतिष्ठित है।

 

वस्तुतः महामना अग्रसेनजी का सम्पूर्ण जीवन-कर्म लोक कल्याण का प्रत्यक्ष स्वरूप है, सर्वलोक हितकारी है, जो सतत् उद्घोषित करता है, कि सारे जगत् का कल्याण करना ही मानव का परम धर्म है।

 

॥सर्वलोकहितो धर्मः॥

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते चतुर्विंशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।