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॥श्री अग्र भागवत॥

 

तेरहवाँ अध्याय

 

विभ्रम

 

॥जैमिनिरुवाच॥

यथा दृष्टमशेषेण चारैरावेदितं तथा। 

नागसैन्यपतिं सोऽपि व्यादिदेश महीधरः॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं हे जनमेजय! श्री अग्रसेन के प्रति माधवी जी के सम्मोहन का वह प्रसंग गुप्तचरों ने जैसा देखा था वैसा सब शीघ्र ही जाकर नागाधिपति महीधर से यथावत निवेदित किया, तो नगराज ने सेनापति चित्रांग को आदेश दिया।

 

॥महीधर उवाच॥

अहो बलमहो वीर्यं प्रविष्टो दुर्मतिस्तलम्। 

यान्तु चान्ये च योद्धारः चित्राङ्ग त्वं विजेष्यसे॥२॥

सेनापति चित्रांग! अहो! आश्चर्य है, वह कौन वीर विक्रमी है, जो इस सर्वतः सुरक्षित तल (राज्य) में घुस आया है, वह निश्चय ही धृष्ट है (जो बिना आज्ञा के इस तरह व्यवहार करे।) अतः तुम अन्य योद्धाओं को साथ लेकर जाओ और उस पर शीघ्र विजय प्राप्त करो।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

तस्य नागस्य निनदं श्रुत्वाऽगच्छत् स सैन्यपः। 

सहसैवोत्थितः सोऽग्रः अहो किमिति हि ब्रुवन्॥३॥

जैमिनी जी कहते हैं— अपनी ओर आती हुई उस नागसेना का कोलाहल सुनकर श्री अग्रसेन 'अहो यह क्या है?' इस प्रकार कहते हुए आश्चर्य पूर्वक उठ खड़े हुए। 

 

अथ सोऽपश्यदव्यग्रः सर्पान् प्रहरणोद्यतान्। 

वमतो धमतश्चैव विषपूरप्रवर्षिणः॥४॥

तदनंतर श्री अग्रसेन ने देखा कि वहाँ उपस्थित वे नागगण उन पर प्रहार करने के लिए उद्यत हैं और विष प्रवाह की वर्षा करने वाले वे सर्प विषमयी शब्द उगलने लगे।

 

तदा मणिधराः क्रुद्धा ये द्विशीर्षास्त्रिशीर्षकाः। 

चतुष्पञ्चफणाश्चान्ये सैन्येन चतुरङ्गिणः॥५॥

उनमें से जिन नागों के मस्तक पर, दो, तीन व चार पांच फनों वाले मुकुट थे, वे सभी नाग तथा अन्य नाग भी कुपित होकर चतुरंगिणी सेना के साथ वहाँ एकत्रित हुए।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

निर्ययुस्ते महावीरा दिव्यरूपवपुर्धराः। 

धन्विनो दिव्यकवचा मत्तमातङ्गसंस्थिताः॥६॥

दिव्य रूप एवं अद्‌भुत शरीर धारण करने वाले वे नाग महान् वीर थे। दिव्य कवच से सुशोभित हो धनुष बाण धारण किए हुए वे (नाग) मतवाले हाथियों पर आसीन थे।

 

हारकुण्डलकेयूरकिरीटघनमौक्तिकैः। 

मस्तका भास्वरा येषां मणिरत्नैर्विभूषिताः॥७॥

वहाँ बहुत से सर्प हार, कुण्डल, बाजूबन्द, मुकुट और बड़े बड़े मोतियों के हारों से विभूषित थे, जिनके मस्तक मणियों और रत्नों से विभूषित होने के कारण चमक रहे थे।

 

सुविचित्राः सुवर्णस्य नानालङ्कारमण्डिताः। 

हयै रथैर्ययुश्चान्ये पादाताश्च सहस्रशः॥८॥

कुछ नाग स्वर्ण निर्मित नाना अलंकारों से सजे हुए अत्यन्त ही सुन्दर लग रहे थे। कुछ घोड़ों तथा रथ पर सवार थे तथा अन्य पैदल ही चल रहे थे।

 

ततो व्याप्य स्थिता अग्रेऽग्रसेनमपतन्नभि। 

तेषां मुखेभ्यो निष्पेतुर्घोरास्ता विषवृष्टयः॥९॥

वहाँ वे रणक्षेत्र में स्थित श्री अग्रसेन पर टूट पड़े तथा उस समय उनके मुखों से भयंकर विष की वर्षा होने लगी।

 

विस्फुलिङ्गसहस्रैस्तु दह्यमानं तु तद्बलम्। 

निजं वीक्ष्य ह्यग्रसेनो ररक्षाथ स्वपौरुषम्॥१०॥

तब विषपूर्ण विषाग्नि की सहस्त्रों चिनगारियों से अपना बल क्षीण होता हुआ देख, श्री अग्रसेन अपने पुरुषार्थ के बल (आत्मबल) से स्वयं की रक्षा करने लगे।

 

नदन् मेघेष्विवार्कोऽग्रस्तेषां मध्ये व्यतिष्ठत। 

सूर्यो दिवि चरन् मध्ये मेघानामिव सर्वशः॥११॥

और तब वर्षाकाल के मेघों की तरह गर्जना करते हुए श्री अग्रसेन उनके मध्य खड़े हो गए और चारों ओर विचरण करने लगे, मानो आकाश में मेघ मंडल के भीतर सर्वत्र विचरण करता हुआ सूर्य विद्यमान हो।

 

पन्नगश्रेष्ठभूयिष्ठं व्यादिष्टं तस्य निग्रहे। 

अनीकं सुमहारौद्रं नानाप्रहरणोद्यतम्॥१२॥

तब पन्नग श्रेष्ठ, सेनापति चित्रांग ने श्री अग्रसेन को बंदी बनाने के लिए नाना प्रकार के अस्त्रों से सुसज्ज श्रेष्ठ नागवीरों की उस भयंकारी सेना को आदेश दिया।

 

अग्रसेनो रणे वीरः स च तानभ्यवर्तत। 

तदाश्चर्यं समभवद् यदेकस्स समागतः॥१३॥

वीर अग्रसेन अकेले ही उन सबका सामना कर रहे थे, उन्होंने जिस प्रकार संपूर्ण सेना का अकेले सामना किया, हे राजन् जनमेजय! वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है।

 

अयुध्यत महावीर्यः पन्नगैः सह संयुगे। 

तेषामेव च जग्राह परिघांस्तोमरानपि॥१४॥

वे श्री अग्रसेन रणभूमि में उन पराक्रमी नागों के साथ युद्ध करने लगे, उन्होने उनमें से अनेकों के परिघों और तोमरों को उनसे छीन लिये।

 

सोऽसिना विचरन् मार्गानेकः शत्रुनिबर्हणः। 

इति प्रकारान् द्वात्रिंशद् विचरन्नाभ्यदृश्यत॥१५॥

शत्रुसूदन अग्रसेन तलवार से बत्तीसों प्रकार के पैंतरे दिखलाते हुए युद्ध में अकेले ही विचरण करते दिखाई देते थे। अर्थात् उनके समक्ष कोई योद्धा टिक नहीं पाता था।

 

एकं सहस्रशश्चात्र ददृशू रणमूर्धनि। क्रीडन्ति बहुधा युद्धे व्यादितास्यमिवान्तकम्॥१६॥

उस रणभूमि में युद्धस्थल पर अनेकों प्रकार से तलवार के वार करते हुए एक ही अग्रसेन को शत्रुओं ने सहस्रों की संख्या में देखा ( यह श्री अग्रसेन की तीव्रता के कारण उन्हें जहाँ-तहाँ अग्रसेन ही अग्रसेन भासित हो रहे थे) उन्हें ऐसा लगने लगा मानो वहाँ काल मुँह बाँए खड़ा हो।

 

सम्प्रहृष्टस्ततो युद्धे तेजसा चाप्यपूर्यत। 

असिचर्मधरो वीरः स्वस्थः संग्रामलालसः॥१७॥

 

श्री अग्रसेन उस युद्धस्थल में हर्ष एवं उत्साह से परिपूर्ण, महातेज से संपन्न, ढाल तलवार धारण किये, स्वस्थ भाव से (उन्हें किसी प्रकार का भय, चिन्ता, दुुःख नहीं था) संग्राम में डटे हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे।

 

तनुत्रेण विहीनश्च खड्गपाणिर्युवाग्रणीः। 

अजेय इति तं मत्वा युद्धायाभिमुखः स्थितः॥१८॥

कवच से रहित, हाथ में केवल खड्ग (तलवार) धारण किये हुए भी वे युवा अग्रसेन यह जानते हुए भी कि यह विपुल सैन्य अजेय है (महर्षि उद्यालक द्वारा पूर्व में ही उन्हें बताया जा चुका था कि वे बल से विजित नहीं किये जा सकते तथापि) वे निशंक भाव से उनके समक्ष युद्ध के लिये डटे हुए थे।

 

सोऽभिभूय रणे सर्पानग्रसेनः समास्थितः। 

सिंहः प्रमुखतो दृष्ट्वा गजमेकं यथा वने॥१९॥

रणभूमि में उन नागों का तिरस्कार करते हुए श्री अग्रसेन उसी तरह निर्भय खड़े रहे, जैसे वन में सिंह अपने सामने हाथियों को देखकर भी अकेला भी निर्भय ही खड़ा रहता है।

 

ससर्ज पान्नगीं मायां विषज्वालासमाकुलाम्। 

तया दहाम्यग्रसेनं ह्येष मायामयो नरः॥२०॥

अन्तोगत्वा महाबली अग्रसेन को विषाग्नि से जला डालने का विचार कर उस मायावी नागसैन्यपति चित्रांग ने विष ज्वाला से युक्त पन्नगीमाया की सृष्टि की।

 

ततः पन्नगबाणौघैर्मर्मभेदिभिराशुगैः। 

रुधिरौघप्लुतैगत्रैिर्बाणवर्षैः समाहतः॥२१॥

तदनंतर उस नागश्रेष्ठ चित्रांग ने शीघ्रगामी, तीव्र तथा मर्मभेदी बाणों से उन्हें आच्छादित कर दिया। तीव्र बाणों की वर्षा से आच्छादित श्री अग्रसेन के सारे ही अंग खून से लथपथ हो गए।

 

सोऽतिविद्धो ह्यग्रसेनः सुसंक्रुद्धो व्यकम्पत। 

ततोऽवप्लुत्य सहसा रथपार्श्वे व्यवस्थितः॥२२॥

इसप्रकार अत्यन्त घायल हो जाने पर भी श्री अग्रसेन विचलित नहीं हुए। अपने हृदय में क्रोध को उत्पन्न कर अचानक वे छलांग लगाकर चित्रांग के विचित्र रथ के पिछले भाग पर जा स्थित हुए।

 

पन्नगैः सुमहाकायैर्वेष्टितो लोमहर्षणैः। 

येषां निश्श्वासवातेन प्रदीप्त इव संयुगे॥२३॥

उस रथ में रोंगटे खड़े कर देने वाले विशालकाय सर्प लिपटे हुए थे। जिनकी निःश्वास वायु से वह रथ उस युद्ध स्थल में प्रदीप्त जान पड़ता था।

 

व्यथितोऽथ स चित्राङ्गः सैन्यं वचनमब्रवीत्। 

मायामाश्रित्य युध्यस्व प्रमादे किमुपेक्षसे॥२४॥

तब व्यथित होकर चित्रांग ने सैनिकों को आदेश दिया कि तुम लोग अब माया का आश्रय लेकर युद्ध करो। अपने अजेय होने का अभिमान कर प्रमादवश इसके बल की उपेक्षा उपयुक्त नहीं।

 

मुमोच बाणान् सञ्छन्नो मायाधारी फणीश्वरः। 

पौरुषेण समायुक्तः समैक्षत दिशो दश॥२५॥

तब वह मायाधारी पन्नग सैन्यपति छिपकर श्री अग्रसेन को तीव्र बाणों से भेदने लगा। तथापि पुरुषार्थ से युक्त वीर अग्रसेन अपनी तीव्रता से दशों दिशाओं में दिखाई दे रहे थे।

 

ततः कथञ्चित् चित्राङ्गः पान्नग्या मायया तया। 

सर्पबाणैरग्रसेनं बबन्ध शरबन्धने॥२६॥

अन्ततः उस मायाधरी चित्रांग ने अपनी पन्नगी माया से श्री अग्रसेन को सर्पाकार बाणों से बंधन में बांध ही लिया।

 

स तु वेष्टितसर्वाङ्गो निष्प्रयत्नः कृतस्तदा। 

न विव्यथे स भूतात्मा सर्वतः परिवेष्टितः॥२७॥

सारे अंग सर्पबंध से वेष्टित एवं बद्ध हो जाने के कारण श्री अग्रसेन चेष्टा विहीन तथा कुछ भी प्रयत्न कर सकने में असमर्थ हो गए, तथापि अवरुद्ध हो जाने के उपरांत भी वे सर्व भूतात्मा की तरह मन में व्यथित नहीं हुए।

 

वध्यतामिति चित्राङ्गः प्रोवाचामर्षितो वचः।

इत्येवमुक्तं वचने महामात्रस्तदाऽब्रवीत्॥२८॥

'इसे शीघ्र मार डालो' सेनापति चित्रांग के इस प्रकार अमर्ष (ईर्ष्या) युक्त कठोर वचन कहने पर नागों के महामंत्री ने कहा—

 

विज्ञाय च वधं वाऽस्य पूजां वा त्वं करिष्यसि। 

अयं हि पुरुषोत्कृष्टः सर्वथा मानमर्हति॥२९॥

पहले इस पराक्रमी वीर के विषय में जान लिया जाए, कि यह कौन है? यहाँ क्यों आया है? तभी इसका वध या पूजन (दण्ड या सम्मान जिसका वह पात्र हो) किया जाना चाहिए, वैसे तो यह पुरुषश्रेष्ठ होने के कारण सर्वथा सम्मान किये जाने के योग्य प्रतीत होता है।

 

सर्वतो वेष्टिततनुर्न व्यथामेति भोगिभिः। 

कुलशौण्डीर्यवीर्यैश्च सत्त्वेन च समन्वितः॥३०॥

यद्यपि इसके शरीर को सर्पों ने सभी ओर से जकड़ लिया, तथापि यह किंचित भी व्यथित नहीं हुआ, अपितु अपने कुल के अभिमान, बल पराक्रम के अनुकूल यह निश्चिन्त प्रतीत होता है।

 

सर्वस‌ङ्ग्राममार्गज्ञो न चिन्तयति किञ्चन।

रक्ष्यतामिति चोक्ते तु तथेत्याह स सैन्यपः॥३१॥

इतना सब होने पर भी युद्ध के सभी मार्गों का ज्ञाता यह नीतिज्ञ हमें (भयातुर होने की अपेक्षा) कुछ भी नहीं समझता, निश्चिन्त स्थित है, अतः इसकी रक्षा की जानी चाहिए, महामंत्री के इस प्रकार नीतियुक्त वचनों के कहे जाने पर चित्रांग ने कहा – ठीक है, ऐसा ही होगा।

 

संरक्षिणस्ततो दत्त्वा ह्यग्रसेनस्य धीमतः। 

नागराजस्य भवनं चित्राङ्गः फणिपो ययौ॥३२॥

तदनंतर नागपाश में आबद्ध उन धैर्यवान श्री अग्रसेन को पहरेदारों के संरक्षण में सौंपकर नाग सैन्यपति चित्रांग नागराज महीधर के राजभवन की ओर चला गया।

 

जाग्रतो ह्यग्रसेनस्य सा निशा व्यत्यवर्तत। 

ततः प्रभाते विमले पक्षिव्याहारसङ्कुले॥३३॥

श्री अग्रसेन की वह सारी रात जागते हुए ही बीती। तदनंतर पक्षियों के कलरव से व्याप्त विमल प्रभात का उदय हुआ।

 

नैशाकरे रश्मिजाले क्षणदाक्षयसंहृते। 

नभस्यारुणसंस्तीर्णे पर्यस्ते ज्योतिषां गणे॥३४॥

रात्रि की समाप्ति के साथ ही चन्द्रमा ने अपनी किरणों के जाल को समेट लिया। आकाश में अरुणोदय की लालिमा छा गई। नक्षत्रों का समूह अस्त हो गया।

 

यदा नागैश्चेष्टितं तैरग्रः सूर्यमुदैक्षत। 

तदा निश्चलया दृष्ट्या मनसा प्रार्थयद्धरिम्॥३५॥

तब नागों के जाल में आबद्ध, चेष्टाहीन तथा कुछ भी कर सकने में असमर्थ श्री अग्रसेन निश्चल अपलक दृष्टि से भगवान् भास्कर (सूर्य) की ओर देखकर बन्धन विमुक्ति हेतु उनसे प्रार्थना करने लगे।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

नमः सवित्रे सूर्याय पूष्णे ज्योतिष्मते नमः।

नमः सप्ततुरङ्गाय नित्यं व्योमचराय ते॥३६॥

श्री अग्रसेन ने वन्दना की

हे सूर्यदेव! आप सविता (जगत् को उत्पन्न करने वाले) और आप ही सूर्य (प्रेरक) हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। पूषा! (पुष्टि प्रदायक) हे प्रकाश पुञ्ज! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप नित्य ही सात घोड़ों के रथ पर बैठकर व्योम (आकाश) में विचरण करते हैं। मैं आपको नमन करता हूँ।

 

मेषादीनामधीशाय मासि मासि नमो नमः।

अयनद्वयकर्त्रे च प्रकाशाय नमोऽस्तु ते॥३७॥

 

हे प्रभु! आप प्रत्येक मास में क्रमशः मेष आदि (बारह) राशियों के स्वामी होते रहते हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आप उत्तरायण तथा दक्षिणायन रूपी दो अयनों के प्रवर्तक और प्रकाश रूप हैं, आपको नमस्कार है।

 

मूकान्धबधिराणां च वाङ्‌नेत्रश्रोत्रदाय च। 

मूर्धार्तिशूलकुष्ठानां नाशकाय नमोऽस्तु ते॥३८॥

आप गूंगों को वाक्शक्ति (वाणी), अंधो को दृष्टिशक्ति (नेत्र), तथा बधिरोंको श्रवण शक्ति प्रदान करने वाले तथा सिर की पीड़ा, शूल, कुष्टादि रोगों के विनाशक हैं, आपको नमस्कार है।

 

नमः सुवर्णवर्णाय सहस्रकिरणाय च। 

जगतामेकनेत्राय भवते भास्कराय च॥३९॥

भगवन्! आपकी कांति स्वर्ण के समान है, आप अपनी सहस्त्रों किरणों से जगत् के प्राणियों के लिये एकमेव नेत्र स्वरूप हैं। मैं ऐसे भगवान् भास्कर को सादर नमस्कार करता हूँ।

 

दिवाकराय पिङ्गाय पयःस्रष्ट्रे घनाय च। 

नमः पर्यायरूपाय जन्मत्राणक्षयाय ते॥४०॥

आप ही दिन के प्रवर्तक हैं, आपके शरीर की कांति पीली है, आप ही जल के सृष्टा और मेघ स्वरूप हैं तथा आप ही युगों ( सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग ) के क्रम संस्थापक एवं जगत् की उत्पत्ति, रक्षा और संहार करने वाले हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

 

ऋग्वेदरूपिणे तुभ्यं नमो ब्राह्मणरूपिणे। 

यजुःसामाथर्वकर्त्रे पुराणागमकारिणे॥४१॥

हे भगवन्! ऋग्वेद आपका ही स्वरूप है, आप ही ब्राह्मण रूप में प्रकट होकर यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, पुराणों तथा आगमों के कर्ता है प्रवर्तक हैं, प्रकाशक हैं। हे सूर्यदेव! मैं आपको नमन करता हूँ।

 

गाथेतिहासकर्त्रे ते नमो ब्रह्मस्वरूपिणे। 

नमो विश्वस्वरूपाय रुद्ररूपाय ते नमः॥४२॥

आप इतिहास की गाथाओं का ज्ञान प्रदान करने वाले ब्रह्म स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप ही विश्व के कारण स्वरूप हैं, रुद्र के भी रूप आप ही हैं, आपको बारंबार नमस्कार है।

 

विश्वस्य वाञ्छितकराय मनोरमाय 

विश्वेश्वराय पुरुषाय सदाऽमलाय।

अद्याहवे जयकराय विमुक्तिदाय 

हंसाय चण्डघृणये मणिकुण्डलाय॥४३॥

हे भगवन्! आप विश्व के समस्त प्राणियों के अभीष्ट दाता हैं, आप मानव मन में रमण करने वाले, विश्वेश्वर, आदि पुरुष, निर्मल, तथा हंस स्वरूप हैं। आप प्रचण्ड किरणों से युक्त एवं मणि कुण्डलों से विभूषित हैं। मैं आपके श्रीचरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूँ। हे सूर्यदेव! केवल आप ही आज मुझे इस बन्धन से विमुक्ति प्रदान करवा सकते हैं। मैं आपकी वन्दना करता हूँ।

 

स्तूयसे प्रपितः सूर्यः त्वं वरं सम्प्रयच्छ मे। 

बन्धनात् संविमुच्येय सत्यमेतद् भवेदिति॥४४॥

 

हे प्रपितामह! (ज्ञातव्य—श्री अग्रसेन सूर्य के ही वंश में उत्पन्न हुए हैं, अतः उन्हें प्रपितामह संबोधित किया जाना यहाँ स्पष्ट है) सूर्यदेव! जब किसी के भी द्वारा आपकी स्तुति की जाती है, तब आप उसे सदैव उत्तम वर प्रदान करते हैं। मैं (नागपाश से आवेष्ठित) बन्धन में पड़ा हूँ, आपकी कृपा से मैं इससे विमुक्त हो जाऊँ, मेरी यह मनोकामना पूर्ण हो।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

अदात्स्तोत्रेण सन्तुष्टो देवोऽर्कः श्रेय उत्तमम्। 

रविप्रसादं स प्राप्य नागपाशाद् व्यमुच्यत॥४५॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे मनस्वी जनमेजय! इस स्तोत्र के द्वारा स्तवन करने से सूर्य देव परम संतुष्ट हो गए और भगवान् भास्कर की कृपा से श्री अग्रसेन नागपाश के बन्धन से तत्क्षण विमुक्त हो गए।

 

सूर्यस्तवमिदं पुण्यं यः पठेत् सुसमाहितः। 

बन्धनस्थो विमुच्येत सत्यं व्यासवचो यथा॥४६॥

हे जनमेजय! जो एकाग्र चित्त होकर श्री अग्रसेन द्वारा किए गए इस पवित्र 'सूर्य स्तोत्र' का पाठ करता है, वह श्री अग्रसेन जी की भांति ही सभी बन्धनों से विमुक्त हो जाता है, यह व्यास मुनि का सत्य वचन है।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते त्रयोदशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।

यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।