Best Historical and Knowledgeable Content here... Know More.

  • +91 8005792734

    Contact Us

  • amita2903.aa@gmail.com

    Support Email

  • Jhunjhunu, Rajasthan

    Address

 

 

॥ श्री अग्र भागवत ॥

 

द्वितीय अध्याय

 

ज्ञान

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
वर्षेषु राजा यातेषु ह्युत्सवं समचीकरत्। 
ब्राह्मणान् स्नातकान् वेदविदुषः पर्यपूजयत्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— तदनंतर वर्ष बीत जाने पर राजा वल्लभसेन ने पुत्र के जन्म उत्सव का आयोजन किया। जिसमें सभी आमंत्रितों, आगतों, वेदवेत्ताओं, स्नातकों तथा ब्राह्मणों का पूजन किया।

 

गणका अब्रुवन् हृष्टा हे बल्लभ तवार्भकः। 
अयं बहुश्रवा भक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदः॥२॥

इस अवसर पर ज्योतिषियों ने हर्षित होकर कहा— "हे राजेन्द्र वल्लभसेन! आपका यह शोभा युक्त बालक अनेकों शास्त्रों का श्रवण करने वाला, ईश्वर भक्त तथा तत्त्वज्ञान का विशेषज्ञ होगा"।

 

सत्यं शीलश्च तेजश्च सममस्य न केन चित्।
इति विप्रवचः श्रुत्वा परं हर्षमवाप सः ॥ ३॥

इस लोक में इसके समान सत्यवान, शीलवान तथा तेजस्वी और कोई दूसरा नहीं होगा। विप्रगणों के इस प्रकार (श्रेयस) वचनों को सुनकर, महात्मन वल्लभसेन को अत्यंत हर्ष हुआ।

 

क्रमशः उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होते हुए बालक अग्रसेन ने किशोर अवस्था को प्राप्त किया तदनंतर-

 

ताण्ड्यस्यर्षेराश्रमन्तु गतोऽग्रो बहुलाः समाः। 
अवसत् सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः॥४॥

महर्षि ताण्ड्य के आश्रम में रहकर श्री अग्रसेन ने गुरु की सेवा में निरंतर संलग्न रहकर दीर्घकाल तक गुरुकुल में ज्ञान अर्जित किया।

 

अग्रसेनो राजपुत्रो ब्रह्मचारी श्रुतिप्रियः। 
इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत् तस्मिन् मालववासिनि॥५॥

मालव निवासी महर्षि ताण्ड्य के आश्रम में उन दिनों, श्री अग्रसेन के साथ ही अन्य राजपुत्र, ऋषिपुत्र तथा अन्य ब्रह्मचारी बालक विद्यार्जन करते थे।

 

अधिजग्मुर्यथा वेदांस्तापसा मुनिबालकाः।
अधीतवान् तथा वेदं स ताण्ड्यमुनिनोदितम्॥६॥

जिस प्रकार अन्य मुनिकुमार तपस्या पूर्वक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार श्री अग्रसेन भी ताण्ड्य मुनि के पास आकर उनके श्रीमुख से प्रस्फुटित मधुरवाणी में सभी अंगो सहित वेदों का अध्ययन करने लगे।

 

ते साक्षात्कृतधर्माणः प्रा‌ददुर्गुरवः कलाः। 
बभुवाग्रोऽचिरेणैव वेदाङ्गेषु विशारदः॥७॥

अपने तपोबल से वेदों का साक्षात्कर कर, दृष्टा ऋषि ताण्ड्य द्वारा प्रदत्त ज्ञानमयी उपदेशों से अत्यल्प समय में ही, श्री अग्रसेन वेदशास्त्र के सभी (6) अंगो (निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, कल्प, शिक्षा, छंद) में प्रवीण हो गए।

 

विनयेनान्वितो ह्यग्रः शुश्रुषूर्निरहंङ्कृतिः। 
तथा ताण्ड्‌योऽपि विधिवत् विद्यास्ताः प्रद‌दौ समाः॥८॥

श्री अग्रसेन विनय पूर्वक गुरु की सेवा में तत्पर रहते थे। अहंकार तो उन्हें दूर से भी छू भी नहीं पाता था। महर्षि ताण्ड्य ने उन्हें विधिवत विशुद्ध विद्याएँ प्रदान की।

 

अग्रसेनः परं यत्नमातिष्ठद् गुरुपूजने। 
शास्त्रे च परमं योगं, प्रियस्ताण्ड्यस्य चाभवत्॥९॥

श्री अग्रसेन अपने गुरु की सेवा-पूजा उत्तम प्रकार से यत्न पूर्वक करते थे। शास्त्रों का अध्ययन–मनन पूर्ण मनोयोग तथा लगन से करते थे, इसलिये वे अपने गुरु मुनि ताण्ड्य के अत्यंत प्रिय हो गए ।

 

स च श्रुतिधरो वीरो यथावत् समुपेयिवान्।
चतुष्पादं धनुर्वेदं शस्त्रग्रामं ससङ्ग्रहम्॥१०॥

श्री अग्रसेन, वीर तथा श्रुतिधर (किसी भी बात को एक बार सुनकर ही ग्रहण कर लेने वाले) थे, अतः उन्होंने दीक्षा, संग्रह, सिद्धी और प्रयोग इन चारों पादों से युक्त धनुर्वेद की तथा रहस्य सहित शस्त्र समूहों की यथावत रूप से शिक्षा प्राप्त की।

 

परिधावसिचर्यायां तोमरप्रासशक्तिषु। 
ऋषिः सङ्कीर्णयुद्धे च शिक्षयामास तं धिया॥११॥

ऋषि ने सभी शिष्यों को परघि, तलवार चलाने तथा तोमर, प्रास और शक्तियों के प्रयोग की कला तथा एक साथ अनेक अस्त्रों के प्रयोग करने की विद्या, साथ ही अकेले ही अनेक शत्रुओं से युद्ध करने की कला सिखलाई।

 

भ्रान्तमुदभ्रान्तमाविद्धमालुप्तं लुप्तमुत्प्लुतम्। 
इत्यग्रसेनो निष्णातश्चासिचर्यासु सोऽग्रणीः॥१२॥

श्रीअग्रसेन शीघ्र ही तलवार के भ्रांत, उदभ्रांत, आबिद्ध, आलुप्त, विलुप्त और प्लुप्त आदि सभी बत्तीस प्रकार के पैंतरो में निष्णांत हो गए।

 

परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च।
विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः॥१३॥

आचार्य के प्रति उत्तम श्रद्धा रखकर श्रीअग्रसेन ने उत्तम तथा सतत अभ्यास के बल से बाणों को छोड़ने, लौटाने तथा संधान करने में अत्यंत तीव्रता प्राप्त कर ली थी। (तलवार को चलाने के 32 हाथ गिनाए गए है- 1. भ्रांत 2. उदभ्रांत 3. आविद्ध 4. आलुप्त 5. विलुप्त 6. प्लुप्त  7. सृत 8. संचान्त 9. समुदीर्ण 10. निग्रह 11. प्रग्रह 12. पदावकर्षण 13. संघान आदि)

 

चिन्तयित्वाऽस्य मेधां तां प्रादादस्त्राणि सद्गुरुः।
सप्रयोगरहस्यानि दातुमेषोऽर्हतीति च॥१४॥

श्री अग्रसेन की अलौकिक बुद्धि देखकर, महातपस्वी ताण्ड्य मुनि ने उन्हें संहार विधि सहित सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के रहस्य व उनके प्रयोग का उत्तम ज्ञान प्रदान किया।

 

आचार्यस्योपदेशेषु सर्वेष्वग्रोऽग्रणीरभूत्। 
बभूव श्रेष्ठ एकोऽग्रः सुष्ठु सौष्ठवपूरितः॥१५॥

आचार्य का सभी शिष्य कुमारों को सदैव एक समान ही उपदेश प्राप्त होता था, तथापि श्री अग्रसेन अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण, उन सभी सहपाठियों में श्रेष्ठ हो गए।

 

बुद्धियोगे बलोत्साहे सर्वशास्त्रेषु निष्ठितः ।
ज्ञाने गुर्वनुरागे च विशिष्टोऽग्रो बभूव ह॥१६॥

बुद्धि तथा मन की एकाग्रता, बल और उत्साह के कारण वे शीघ्र ही समस्त शास्त्रों में प्रवीण हो गए। ज्ञान की जिज्ञासा तथा गुरु के प्रति अनुराग में भी, श्री अग्रसेन का स्थान सबसे आगे था।

 

पूर्णे चतुर्दशे वर्षे तु अग्रसेनस्य धीमतः। 
तदा सम्प्रेषयामास चोत्तवा स्वस्त्ति तपोधनः॥१७॥

जिस दिन बुद्धिमान श्री अग्रसेन का चौदहवाँ वर्ष पूर्ण हुआ, तब आश्रम के तपस्वियों तथा सहपाठी कुमारों ने श्री अग्रसेन का वर्धापन दिवस मनाने हेतु स्वस्ति वाचन प्रारंभ किया।

 

तदाश्रमे ऋषेः कन्यां तापसीवेषधारिणीम्।
दृष्ट्वैकान्ते रतीन्द्राख्यः कामस्य वशमीयिवान्॥१८॥

उसी आश्रम के वन में तपस्वियों का वेश धारण की हुई ऋषिकन्या विचरण कर रही थी। आश्रम की ओर आते हुए एक राजा ने उस ऋषिकन्या को देखा तो वह उस तपस्विनी कन्या के सौंदर्य को देखकर काम के वशीभूत हो गया।

 

तामेवं श्लक्ष्णया वाचा लुब्धको मृदुपूर्वया।
सान्त्वयामास कामार्तस्तदबुध्यत कामिनी ॥ १९॥

तब वह नृप उस कन्या के समीप जाकर, अपनी मधुर एवं कोमल वाणी से उसे अपने अनुकूल बनाने के लिये, भांति-भांति के प्रलोभन देने लगा। वह उस समय काम वेदना से पीड़ित हो रहा था। उसकी यह दशा तथा उसके दूषित मनोभावों को वह कमनीय ऋषिकन्या समझ गई।

 

शुभा तस्मादपाक्रम्य देशात् हृदयकम्पना। 
तीव्ररोषसमाविष्टा प्रजज्वालेव मन्युना॥२०॥

उस तपस्विनी कन्या 'शुभा' का हृदय भय से कांपने लगा, वह उस स्थान से दूर हट गई तथा तीव्र क्रोध के कारण मानो उसके नयनों में रोषाग्नि प्रज्वलित हो उठी हो।

 

स तु पापमतिः क्षुद्रः प्रधर्षयितुमातुरः। 
दुर्धर्षां तर्कयामास दीप्तामग्निशिखामिव॥२१॥

यद्यपि वह नीच पापात्मा राजा उस पर बलात्कार करने को आकुल हो उठा, तथापि अग्नि शिखा की भांति उद्दीप्त हो रही उस ऋषि कन्या का स्पर्श करना भी उसे अत्यंत दुष्कर प्रतीत हुआ।

 

॥ शुभा उवाच ॥
नैवं कार्यं त्वया राजन् न्यायवित्त्वं न बुध्यसे। 
किं कुले त्वं समुत्पन्नो न धर्मं त्वमवेक्षसे॥२२॥

शुभा ने कहा—हे राजन्! आप तो राजा है। कृपया आप ऐसे पापपूर्ण कृत्य की ओर प्रवृत्त न हों। ऐसा पाप पूर्ण कृत्य न करें। क्या यह कुकृत्य न्याय संगत है? क्या आपको पाप-पुण्य, न्याय-अन्याय का ज्ञान नहीं है? किस कुल में पैदा हुए हैं आप? यह कुल लज्जाजनक कृत्य की ओर प्रवृत्त होते क्या आपको अपनी कुलमर्यादा भी ज्ञात नहीं? जो इस प्रकार आपकी दृष्टि धर्म पथ से हट गई है।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
प्रोवाच सा मा स्पृशेति भीता च प्रचुकोश सा। 
हा हा रक्ष च रक्षेति मुहुश्चेतश्च धावति॥२३॥ 

जैमिनी जी कहते है— "खबरदार! मेरे शरीर को स्पर्श ना करना" इस प्रकार फटकारती हुई वह ऋषिकन्या अंतरमन में भयभीत हुई डरकर "हाय! रक्षा करो! रक्षा करो!!" इस प्रकार चिल्लाते हुए इधर उधर दौड़ने लगी।

 

जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे
रतीन्द्रनामा च तदा कुबुद्धिः। 
प्रगृह्यमाणां च विकृष्यमाणाम् 
आरोप्य चासौ रथमारुरोह॥२४॥

तभी आगे बढ़कर, उस कामलोलुप राजा रतीन्द्र ने मुनि कुमारी शुभा के उत्तरीय (ओढ़नी) का छोर पकड़ लिया और उस कन्या को पकड़ कर खींचा तथा रथ पर बलात् बैठा लिया।

 

आक्रन्दमानां संश्रुत्य जवेनाभिससार सः। 
आश्रमस्य च सर्वेऽपि कुमारास्तत्र चागताः॥२५॥

तब उस ऋषिकन्या का आत्मरक्षा का करुण निवेदन सुनते ही आश्रम के सभी कुमार, जो कि स्वस्ति वाचन में न्यस्त थे, बड़े ही वेग से तत्काल वहाँ आ पहुँचे।

 

स रतीन्द्रस्तु सम्प्रेक्ष्य कुमारानुद्यतांस्तदा। 
प्राधावच्च रथात् तूर्णम् जीवितेप्सुःसुदुःखितः॥२६॥ 

श्री अग्रसेन सहित गुरुकुल के कुमारों के वहाँ पहुँचने पर उन्हें अपने वध के लिये उद्यत देखकर वह राजा रतीन्द्र अत्यंत भय से दुःखी होकर अपना रथ छोड़कर प्राण बचाने की तीव्र इच्छा से भागने लगा।

 

तम् अग्रसेनो धावन्तमवतीर्य रथाद् तदा। 
अभिद्रुत्य निजग्राह केशपाशे ह्यमर्षणः॥२७॥

तब उसे भागता हुआ देखकर अमर्ष से भरे हुए कुमार अग्रसेन भी सहसा उसके पीछे दौड़े और बड़े वेग से दौड़ते हुए, उछल कर उन्होंने उस पापाचारी राजा रतीन्द्र के केश पकड़ लिये।

 

शिरो गृहीत्वा राजानं ताडयामास चैव ह। 
पदा मूर्ध्नि कुमारास्ते प्रहारैः पर्यपीडयन्॥२८॥

फिर उन्होंने, राजा रतीन्द्र का सिर पकड़ कर उसे कई थप्पड़ मारे तथा आश्रम के अन्य कुमारों ने भी उस कामाचारी के मस्तक पर लात मारी और पद प्रहार तथा घूंसो की मार से उसे पीड़ित करने लगे।

 

अचिन्तयन् सरोषं ते नायं जीवितुमर्हति। 
कन्यायास्तदनहार्याः परिक्लेष्टा नराधमः॥२९॥

तब रोष में भरे आश्रमवासी सभी कुमारों के विचार से, ऐसे नराधम को जीवित नहीं रहना चाहिए, अतः वे उसे मार डालने को उद्यत थे, क्योंकि उस राजा रतीन्द्र ने, क्लेश पाने के अयोग्य उस ऋषि कन्या को व्यर्थ ही कष्ट पहुँचाया है।

 

मा वधिष्टेति सोऽग्रस्तं दयावान् प्रत्यभाषत। 
पङ्केन मलिनं चक्रे तदा तस्याननञ्च सः॥३०॥

उस समय दयालु अग्रसेन ने उन साथियों से कहा— भाईयों इसे जान से मत मारो, यह कहते हुए उस अन्यायी राजा के मुख पर कीचड़ मलकर उसका मुख मलीन करके उसका मुंह काला कर दिया।

 

(अहिंसाव्रती श्री अग्रसेन की किशोरावस्था में भी अनाचारी को मृत्युदंड देने की बनिस्बत अनाचार का प्रतिरोध करने की भावना, इस प्रकरण में स्पष्ट परिलक्षित होती है।)

 

ततो विचेष्टमानन्तं बुद्ध्वा सोऽग्रः प्रभाकरः।
रथमारोपयामास विसञ्ज्ञं पांसुगुण्ठितम्॥३१॥

तदनंतर जब वह पापकर्मा राजा उठने की चेष्टा करने लगा तब प्रभावान अग्रसेन ने उसे बांधकर रथ में डाल दिया। वह पापकर्मा कुमारों द्वारा पीटे जाने के कारण तथा धूल से लथपथ होकर अचेत सा हो गया था।

 

अभ्येत्याश्रममाराध्यमभ्यागच्छन्मुनीश्वरम् ।

अनाचारी राजा रतीन्द्र को उन कुमारों ने रथ में डालकर आश्रम में विराजित महामुनि ताण्ड्य के समक्ष उपस्थित किया।

 

ताण्ड्य उवाच
मुञ्चैनमधमाचारमदासो गच्छतु द्रुतम्॥३२॥

महर्षि ताण्ड्य ने कहा— 'इस पापाचारी को छोड़ दो वत्स' और फिर महर्षि ने उस पापकर्मा राजा रतीन्द्र से कहा— 'जा! नराधम जा! तुझे धिक्कार है! धिक्कार है!'

 

क्षुद्राधम धिगस्तु त्वां मैव कार्षीः पुनः क्वचित्।

'जा नीच अधम पुरुष! अब तू जा सकता है, ध्यान रहे! फिर कभी किसी के भी साथ, ऐसा कुकृत्य नहीं करना।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
एवमुक्तो रतीन्द्रस्तु सव्रीडोऽवाङ्मुखो ययौ॥३३॥ 

जैमिनी जी कहते हैं— महर्षि ताण्ड्य के इस प्रकार कहकर केवल वाक्दण्ड दिये जाने पर, वह अशुभ कृत्य की ओर उन्मुख राजा रवीन्द्र लज्जा से मुँह नीचा किए, गर्दन झुकाए वहाँ से चला गया।

 

यतः सम्प्राप्तविद्यास्ते तान् दृष्ट्वा मुनिसत्तमः। 
ततोऽग्रसेनं स ऋषिः स्मयमानोऽभ्यभाषत॥३४॥ 

जब मुनि श्रेष्ठ महर्षि ताण्ड्य ने देखा कि कुमार अग्रसेन सभी विद्याओं को अर्जित कर चुके, तब एक दिन, महर्षि ने प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए, श्री अग्रसेन से कहा—

 

॥ ऋषिरुवाच ॥
कामक्रोधौ वशीकुर्याद् दम्भं लोभमनार्जवम्। 
पञ्चैतान्यपवित्राणि शिष्टाचारेषु सर्वदा॥३५॥

महर्षि ताण्ड्य ने कहा— वत्स अग्रसेन! काम, क्रोध, लोभ, दम्भ और कुटिलता को वश में करके धर्मपूर्ण आचरण करना ही शिष्ट पुरुषों के आचार व्यवहार में सदैव देखा गया है।

 

गुरुशुश्रूषणं सत्यमक्रोधो दानमेव च। 
एवं चतुष्टयं सेव्यं शिष्टाचारेषु नित्यदा॥३६॥

मनस्वी पुत्रों! जो व्यक्ति शिष्टाचार से संपन्न होते हैं, उनमें- गुरु की सेवा, सत्य भाषण, क्रोध का अभाव (क्षमाशीलता) तथा दान, ये चार सद्गुण सदैव विद्यमान रहते हैं।

 

अधर्मो धर्मरूपेण लोके सर्वत्र विद्यते। 
धर्मात्मा प्राप्तसन्तुष्टिरिह प्रेत्य च नन्दति॥३७॥ 

वत्स! इस संसार में धर्म की आड़ में कितने ही अधर्म चल रहे हैं, किन्तु वस्तुतः जो पुरुष अपने धर्माचरण से मानव लोक को संतुष्ट करते हैं, वे निश्चित ही इस लोक तथा परलोक में भी आनन्दित होते हैं।

 

गतिमिष्टां तपो ज्ञानं मेधां त्वं परमां गतः। 
प्रीतौ स्वो वत्स सततं दमेनावां च पूजया॥३८॥ 

वत्स! तुमने उत्तम गति, तप, ज्ञान और श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त की है। हे वत्स! तुम सभी के द्वारा की गई, निरंतर सेवा-पूजा से हम अत्यन्त संतुष्ट है।

 

मनसा कर्मणा वाचा शुश्रूषासु प्रपूजितौ। 
प्रीतौ स्वस्तव शौचेन धर्मस्त्वामभिरक्षतु॥३९॥

तुमने मन, वाणी, कर्म तथा सेवा से हमारा पूजन सत्कार किया है। तुम्हारे शुद्ध आचार, व्यवहार, विचार तथा सेवा से हम अत्यन्त प्रसन्न हैं। धर्म तुम्हारी सब ओर से सदैव रक्षा करे।

 

मातापित्रोः सकाशं हि गत्वा कुरु सुपूजनम्। 
अतः परमयं धर्मस्तवास्त्यस्मान्न किञ्चन॥४०॥

हे वत्स! तुम लोग सभी शस्त्रों तथा शास्त्रों में दक्ष हो चुके हो। अतः अब तुम्हें अपने माता-पिता के पास जाकर उनकी नित्य सेवा पूजा करना चाहिए। मुझे माता-पिता की सेवा से बढ़कर और कोई धर्मिक कृत्य है, ऐसा नहीं दिखाई देता।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
आशीर्भिर्भरितोऽग्रस्तं कृताञ्जलिरुपस्थितः। 
प्रद‌क्षिणमथो कृत्वा मनीषी प्रस्थितस्ततः॥४१॥

जैमिनी जी कहते हैं— महर्षि ताण्ड्य के इस प्रकार आशीर्वचन तथा निर्देशों को नतमस्तक श्री अग्रसेन ने हाथ जोड़कर ग्रहण किया, तदनंतर उनने महर्षि ताण्ड्य की परिक्रमा कर, वहाँ मालववासी महर्षि ताण्ड्य के आश्रम से प्रस्थान किया।

 

सम्पूर्णशिक्षोऽग्रसेनः पितॄणामावसद् वशे।
धृतिस्थैर्यसहिष्णुत्वादानृशंस्यात् तथार्जवात् ॥ ४२॥
 
भृत्यानामनुकम्पायास्तथैव स्थिरसौहृदात् 
पितुरन्तदर्धे कीर्तिः शीलवृत्तसमाधिभि: ॥ ४३॥

शिक्षा पूर्ण होने पर श्री अग्रसेन पिता के अनुकूल रहने लगे तथा उन्होंने अपने धृति, स्थिर बुद्धि, सहिष्णुता, दयालुता, सरलता तथा अविचल सौहाद्र आदि सद्गुणों का पालन करते हुए प्रजा को योग्य अनुग्रह प्रदान करते हुए, अपने पिता राजा वल्लभसेन की कीर्ति को भी अपने गुणों से ढंक दिया।

 

(अर्थात् महाराजा वल्लभसेन के गुणों की कीर्ति का गान करने वाले भी अब युवा श्री अग्रसेन के गुणों का गान करने लगे।)

 

॥ इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते द्वितीयोऽध्यायः॥ 

॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का द्वितीय अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।