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॥ श्री अग्र भागवत ॥

 

पंचम अध्याय

 

षड्यंत्र

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
व्यतीतायां निशीथिन्यामादित्यस्योदये ततः। 
समेत्य राजकर्तारः सभामीयुर्द्विजातयः॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— इस प्रकार गहन शोकमय अंधकार से पूर्ण वह रात जब बीत गई और सूर्योदय हुआ तब राज्य के प्रबंधकर्ताओं के साथ ही द्विजगण एकत्रित होकर राज्य सभा में आए।

 

ततो द्विजाः सहामात्यैः राजबन्धुं पुरोहितम्। 
उदैरयन्निमां वाचं कश्चिद् राजा विधीयताम्॥२॥

तब वहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मण, द्विज, मंत्री एवं राज्य परिवार के सदस्य, श्री राजा वल्लभसेन के उपरांत अब किसे राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाए, इस विषय पर राजपुरोहित के साथ मंत्रणा (परिचर्चा) करने लगे।

 

॥ पुरोहित उवाच ॥
गतो नृपो वल्लभः स स्वर्गं यो नो गुरोर्गुरुः।
स नः समीक्ष्यः तत्पुत्रं राजानमभिषेचय॥३॥

राजपुरोहित ने कहा— हे राजपुरुषों। जो हमारे सर्वश्रेष्ठ हितरक्षक थे, वे महाराज श्री वल्लभसेन तो युद्ध में वीरगति को प्राप्त कर स्वर्ग सिधार गए, अतः इससमय नीति, नय, योग्यता, राज्यहित आदि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री अग्रसेन को ही राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाना चाहिए।

 

अग्रसेनः पुरस्यायं क्षिप्र राज्येऽभिषिच्यताम्। 
एवं पुरोधाः सचिवान् कुन्दसेनमथाब्रवीत्॥४॥

अग्रसेन ही प्रतापपुर राज्य के सर्वथा उपयुक्त है, अतः यहाँ शीघ्र ही इनका विधि पूर्वक राज्याभिषेक किया जाए। पुरोहित ने मंत्रीगणों से इस प्रकार कहते हुए श्री वल्लभसेन के अनुज कुन्दसेन से कहा—

 

शास्त्रज्ञं नयसम्पन्नम् उदारबलविक्रमम्। 
अग्रसेनमिमं वीरं क्षिप्रं राज्येऽभिषेचय॥५॥

युवराज अग्रसेन नीति, नियम तथा शास्त्रों के जानकार हैं। ये सदाचार से संपन्न व बल तथा पराक्रम से परिपूर्ण हैं, आप इस वीरता के धनी का राज्याभिषेक कीजिए।

 

ज्येष्ठस्य हि सुतो ज्येष्ठः श्रेष्ठोऽयं विक्रमेण च। 
अग्रसेनोऽप्यदीनात्मा राज्यभारस्य भाजनम्॥६॥

ये आपके बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र हैं, पराक्रम में भी उन्हीं के समान हैं तथा उदार हृदय हैं, अतः श्री अग्रसेन ही राज्य के सर्वथा एकमात्र अधिकारी हैं।

 

स एष सत्यकारुण्यः सर्ववेदी च धर्मवित्। 
तरुणो वृद्धशीलश्च साध्वेनमभिषेचय॥७॥

यद्यपि श्री अग्रसेन युवा हैं, तथापि इनका शील, स्वभाव वृद्धों के समान ही परिपक्व है। ये सत्यवादी, दयालु, वेदवेत्ता तथा धर्मज्ञ हैं, अतः आप इन्हीं का विधिपूर्वक अभिषेक कीजिये।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
राजधानीं च सम्प्राप्तं श्रुत्वा वल्लभसत्सुतम्। 
वज्रसेनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मनाः॥८॥

जैमिनी जी कहते हैं कि हे जनमेजय! नगर के निवासी दिवंगत महाराजा श्री वल्लभसेन के पुत्र श्री अग्रसेन को ही राज्य प्राप्ति के योग्य निरूपित कर रहे थे, ये देख कर कुन्दसेन के पुत्र वज्रसेन का हृदय अत्यंत संतप्त हुआ।

 

न चाक्षमत तत्प्राप्तिं कुन्दसेनात्मजः स वै।
ईर्ष्याक्रोधपरिक्षिप्त इदं तातमभाषत॥९॥

क्रूरात्मा वज्रसेन इस प्रकार पुरवासियों के उसके मन को संताप देने वाले विचारों को सहन करने में असमर्थ था। ईष्या वश उत्पन्न क्रोध से विक्षिप्त हुआ वह अपने पिता कुन्दसेन से एकांत में इसप्रकार कहने लगा।

 

॥ वज्रसेन उवाच ॥
त्वामनादृत्य पौराः हि नृपमिच्छन्ति तं परम्। 
नीतिर्विधीयतां तात यथा राज्यमवाप्नुमः॥१०॥

वज्रसेन बोला— पिताश्री! पुरवासी आपका अनादर करके अग्रसेन को राजा बनाना चाहते हैं। भवान्! आप कोई ऐसी नीति उपयोग में लाइये, जिससे यह राज्य हमें प्राप्त हो सके।

 

कर्तव्यं चेत् प्रियं तात न स जीवितुमर्हति। 
यो हि राज्यहरः शत्रुः याचमानो न मुञ्च तम्॥११॥

यदि आप अपना प्रिय करना चाहते हैं (राज्य प्राप्त करना चाहते हैं) तो अब अग्रसेन का जीवित रहना ठीक नहीं। (क्या आपके रहते अग्रसेन द्वारा राज्य करना अन्याय नहीं?) आपके इस राज्याधिकार को हड़पने वाले इस अग्रसेन को शत्रुवत मानें तथा याचना किए जाने पर भी किसी तरह इसे जीवित न छोड़ें।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
एवं श्रुत्वा कुन्दसेनः शोकार्तः स द्विधाऽभवत्।
मोहादैश्वर्यलोभाच्च पापबुद्धिरजायत॥१२॥

जैमिनी जी कहते हैं— इस प्रकार पुत्र की बात सुनकर कुन्दसेन शोक से आर्त हो गया और उसका चित्त (मन तथा बुद्धि) दुविधा में पड़ गया तथा राज्य के मोह एवं ऐश्वर्य के लोभ से उसका हृदय पापपूर्ण विचारों से भर गया।

 

सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्तो बहुश्रुताः। 
छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः॥१३॥

अच्छे अच्छे और बड़े बड़े शास्त्रों का मनन करने वाले, बहुश्रुत संशय निवृत्ति करने वाले विद्वान भी लोभ के मोह जाल में बिंधकर क्लेश ही पाते हैं। (फिर कुन्दसेन या वज्रसेन की तो बात ही क्या?)

 

लोभात्प्रभवति क्रोधः लोभात्कामः प्रजायते।
लोभान्नश्यन्ति मनुजाः लोभः पापस्य कारणम्॥१४॥ 

लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही कामनाएँ पैदा होती हैं, लोभ से ही अज्ञान बढ़ता है, लोभ के मोह जाल में जकड़े मनुष्यों का विनाश निश्चित है। इस प्रकार लोभ ही सभी पापों का कारण है।

 

॥ कुन्दसेन उवाच ॥
वज्रसेन ममाप्येतद्‌धृदि सम्परिवर्तते। 
स कथं शक्यतेऽस्माभिरपाकर्तुं बलादितः॥१५॥

(वज्रसेन के कुटिल वचनों से कुन्दसेन के हृदय में सोया हुआ राज्य का लोभ जाग उठा और तब वज्रसेन से) कुन्दसेन ने कहा— वत्स वज्रसेन! मेरे हृदय में भी यही बात उठ रही है किन्तु अग्रसेन को राज्य से बल पूर्वक हटाना भला कैसे संभव होगा?

 

प्राणवान् विक्रमी चैव शौर्येण महताऽन्वितः। 
पौराश्च सेवकाः राज्ये तत्सहाया विशेषतः॥१६॥

हे वत्स! अग्रसेन बलवान तथा पराक्रमी तो है ही, साथ ही यह महान् शौर्य से सम्पन्न भी है (अतः बलपूर्वक उसे मारना कदापि संभव नहीं) साथ ही राज्य के नागरिक और सेवक ऐसी परिस्थितियों में विशेषतः उसी के सहायक होंगे।

 

॥ वज्रसेन उवाच ॥
नरस्य न नरो दासो, दासस्त्वर्थस्य जायते ।
विस्रव्धस्त्वं कुरु तथा यथा ते हस्तवर्तिनः॥१७॥

वज्रसेन ने कहा— पिताश्री! मनुष्य मनुष्य का दास (सेवक) नहीं, यह तो धन का दास होता है, अतः आप पूर्ण निश्चिंत होकर ऐसी व्यवस्था कीजिये, जिससे यह राज्य हमारी मुट्ठी में हो जाए।

 

उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः।
अग्रसेनः स च श्रेष्ठः निकृत्या संनिगृह्यताम्॥१८॥

जो कार्य पराक्रम से संभव नहीं हो सकता, वह कार्य छल पूर्ण उपाय से ही संभव हो सकता है, अतः (मेरे मत से तो) अग्रसेन को धोखा देकर कैद कर लेना ही श्रेष्ठ उपाय होगा।

 

अद्य तैः कुशलैयोर्धैः सुगुप्तैराप्तकारिभिः।
नरैरुपायकुशलैर्मृत्युरस्य विधीयताम्॥१९॥

आप आज अत्यंत गुप्त रूप से ऐसे कुशल योद्धाओं को नियुक्त करें, जो उपाय कुशल (छल विशेषज्ञ) हों। जो छिपकर (अज्ञात रहकर) किसी भी प्रकार अग्रसेन का वध कर डालें।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
एवं स निश्चयं चक्रे नियोज्य त्रिविधायुधान्।
पापं कृत्वा कुन्दसेन आत्मोदयसुसाधनः॥२०॥

जैमिनी जी कहते हैं— अपने स्वयं के हितसंवर्धन के लिये पापपूर्ण प्रवृत्ति में न्यस्त कुन्दसेन ने (श्री अग्रसेन की हत्या के लिये) इस प्रकार निश्चित करके तीनों प्रकार के योद्धाओं को इस कार्य में लगा दिया।

 

परोऽपि हितवान्बन्धुर्बन्धुरप्यहितः परः। 
अहितो देहजो व्याधिर्हितमारण्यमौषधम्॥२१॥

जैमिनी जी कहते हैं— ठीक ही कहा गया है— कभी कभी पराया भी अपना हितैषी बन्धु तथा कभी अपना भाई ही अपकारी होकर अहित करने लगता है, जैसे कि अपने ही शरीर से उत्पन्न रोग अपना अपकार करता है और वन में उत्पन्न होने वाली औषधी हितकारी होकर उपकार करती है।

 

कुन्दसेनः परीतात्मा कुलकीर्तिप्रणाशनः।
अतिक्रान्तश्च मर्यादां सुप्तम् अग्रमथाग्रहीत्॥२२॥

अन्तोगत्वा कुल की कीर्ति एवं वंश परम्परा के विनाशक उस दुष्टात्मा कुन्दसेन ने मर्यादाओं का उल्लंघन कर सोए हुए श्री अग्रसेन को बंदी बना ही लिया।

 

तस्यां प्रतापपुर्या तं निगडैरग्रसेनकम्।
कुन्दसेनो बबन्धाऽसौ बबन्ध च हितैषिणः॥२३॥

उस प्रतापपुर में कुन्दसेन ने श्री अग्रसेन को तो सुदृढ़ बेड़ियों से जकड़ कर बांध ही दिया, साथ ही अन्य हितैषियों को भी सताने लगा।

 

नूनं देवाः प्रसन्नास्ते सकामो भव दुर्मते। 
अधर्मेण जितो धर्मः प्रवृत्तमधरोत्तरम्॥२४॥

जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन मन ही मन विचार करने लगे कि निश्वय ही देव अनर्थ करने वालों पर ही प्रसन्न हैं, तभी तो कुन्दसेन की दुर्मतिपूर्ण कामना सफल हुई। अधर्म धर्म पर विजित हो गया। नीच वृति की उन्नति हुई तथा उच्चवृत्ति की अवनति।

 

न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापदः। 
दैवं च परमं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्॥२५॥

और तब श्री अग्रसेन मन ही मन विचार कर रहे थे — मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखाई देता, जिससे इस विपत्ति से अब मुक्ति पाई जा सके। मैं तो भाग्य को ही प्रबल मानता हूँ। पौरूष का प्रयत्न अर्थहीन।

 

एवं सचिन्तोऽग्रसेनः क्रोधसन्दीप्तमानसः।
पुनर्दीनमना भूतः शान्तार्चिरिव पावकः॥२६॥

ऐसा विचार करते हुए श्री अग्रसेन मन ही मन क्रोध से जलते और हाथ से हाथ मलते हुए दीन भाव से लम्बी सांसे खींचते बुझी हुई लपटों वाली अग्नि की तरह शांत हृदय हो गए।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
गृहाण राज्यं निखिलं शाधि मां त्वं भवान् प्रभो। 
न मे कार्य नृपत्वेन नाप्यहं राज्यकामुकः॥२७॥

श्री अग्रसेन ने कहा— हे भवान् (काकाश्री)! आप मेरे इस सम्पूर्ण राज्य को स्वीकार करें। आप बड़े हैं, मुझ पर शासन कीजिये। मुझे न राज्य से कोई प्रयोजन है, न ही मैं राज्य का अभिलाषी ही हूँ।

 

भवानेवाभिषिञ्च स्वं राज्येऽस्मिन् सत्यमब्रुवम्। 
क्षमस्वेति वदन् कुन्दपुरोऽग्रः स निपपात ह॥२८॥

काकाश्री! आप इस राज्य पर अपना अभिषेक प्रसन्नतापूर्वक करवाइये। मैं यह सत्य वचन कहता हूँ, मैं कोई विरोध नही करूँगा। मुझे क्षमा करें। कहते हुए श्री अग्रसेन कुन्दसेन के पैरों में गिर पड़े।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
तथा भाषितमाकर्ण्य कुन्दः क्रोधसमन्वितः। 
पदा तं ताडयित्वाऽथ मस्तकेऽभर्त्सयद् रुषा॥२९॥

जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन के इस प्रकार वचनों को सुनकर वह दुष्ट कुन्दसेन तब और भी अधिक क्रोध पूर्ण हो गया और चरणों में पड़े श्री अग्रसेन के मस्तक को उसने कुपित होकर पैरों से ठुकरा दिया।

 

॥ कुन्दसेन उवाच ॥ 
जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु। 
दासोऽस्मीति तथा वाच्यम् एवं ते जीविते विधिः॥३०॥

कुन्दसेन बोला— रे मूढ़ ! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो अपने प्राण रक्षण हेतुभूत मेरा यह आदेश वचन सुन। तू स्वयं को मेरा दास स्वीकार कर। तेरे लिये यही एकमेव जीवित रहने का उपाय है।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
सर्वं ते क्षामितं कुन्द न त्वेकं क्षामये पुनः। 
अल्पबुद्धे तवाग्रे तु क्षत्रियत्वं प्रदर्शये॥३१॥

श्री अग्रसेन ने कहा— कुन्दसेन! मैंने (आपको पिता तुल्य मानकर ही) तुम्हारी समस्त कटु उक्तियाँ तथा क्रूर कर्म सह लिये। खबरदार! अब एक भी अपशब्द के लिये क्षमा नहीं कर पाऊँगा। आपकी बुद्धि बहुत ही संकीर्ण है, अतः आज आपके सामने क्षत्रित्व (स्वाभिमान पूर्ण कर्म) अवश्य प्रकट करूँगा।

 

पितृभावेन वै तुभ्यं मया राज्यं निवेदितम्। 
शरणं चागतोऽहं त्वां तन्मान्यं नाभवत् तव॥३२॥

पितृभाव का विचार करके मैंने आपको यह राज्य निवेदित किया था तथा आपके शरणागत हुआ था किन्तु आपको मेरी ये बातें स्वीकार नहीं हुई।

 

ध्रुवं मूर्खतरस्त्वं हि त्वया नो वञ्चितं कुलम्। 
इन्द्रस्यापि बलं काङ्‌क्षापिपासापूरणे न हि॥३३॥

निश्चय ही आप वज्रमूर्ख हैं! अत्यंत हीन बुद्धि हैं, जो इस प्रकार अपने क्रूर कार्यों से सूर्यकुल की कीर्ति में आपने दाग लगा दिया। महत्वाकांक्षियों की तृष्णाओं को पूर्ण करने में तो देवराज इन्द्र भी समर्थ नहीं है।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
उत्थाय भूमेः कुपितः रोषतः वल्ल‌भात्मजः। 
पौरुषं क्लेशसंयुक्तं धारयन् बुद्धिसंयुतः॥३४॥

जैमिनी जी कहते हैं— तब वहाँ कुपित वल्लभसुत श्री अग्रसेन ने रोषपूर्ण पृथ्वी से उठकर बुद्धिमत्ता पूर्ण तथा कष्टदायक पुरुषार्थ का प्रदर्शन किया।

 

तदा स भिन्नहृद‌यो प्रसह्याच्छिद्य बन्धनम्।
अपीडयत् स्वशीर्षेण कुन्दसेनस्य वक्षसि॥३५॥

तब कठोर बंधनों में जकड़े हुए घायल हृदय श्री अग्रसेन ने कुन्दसेन के वक्षःस्थल को अपने सिर के प्रहार से पीड़ित कर दिया।

 

वक्रवाक्येन तीक्ष्णेन छिद्यन्ते प्रीतिजा गुणाः। 
अग्रस्यैकप्रहारेण भूतले ते विचेतसः॥३६॥

जैसे एक ही टेढ़ी बात कह देने से प्रेम जनित समस्त गुणों का उच्छेद हो जाता है, उसी प्रकार श्री अग्रसेन के एक ही प्रहार ने कुन्दसेन को संज्ञाशून्य (बेहोश) कर भूतल पर गिरा दिया।

 

अग्रस्य पौरुषं दृष्ट्वा क्षणं तत् लोमहर्षणम्। 
पितुः परिस्थितिं वीक्ष्य लज्जितस्तमथो ययौ॥३७॥

योद्धाओं ने वहाँ श्री अग्रसेन जी के इस अति रोमांचकारी पुरुषार्थ को देखा। अपने पिता कुन्दसेन की यह स्थिति देखकर वज्रसेन उसे संकट से बचाने वहाँ आ गया।

 

भृत्या गच्छन्तु सबलाः विकृष्यन्तु धरातले।
कारागारे नयन्त्वग्रम् इति वज्रो रुपान्वितः॥३८॥

तब वज्रसेन ने रोष में भरकर कहा— कुछ बलशाली योद्धागण इसके केश पकड़कर पृथ्वी पर घसीटते हुए इसे कारागार में ले जाने के लिये यहाँ आए।

 

तस्याऽकर्म विलक्ष्यैवं सर्वे पुरजनास्तदा। 
कम्पिताश्च भिया युक्ता बभुवुर्भयकातराः॥३९॥

उस समय वज्रसेन के इस कुकृत्य को देखकर सभी प्रजाजन भयभीत हो गए और उनके शरीर भय से कांपने लगे।

 

प्राब्रुवन् करुणं स्वार्थनिष्ठः कालनिभो नृपः। 
राजाऽस्माकं निर्दयो हि न दृष्टस्त्वीदृशो जनः॥४०॥

वे परवश, करुणा सहित आपस में कहने लगे— यह काल के समान स्वयं के स्वार्थ में न्यस्त निर्दयी अब हमारा राजा होगा? ऐसा दुर्भाग्य पूर्ण दृश्य तो हमने कभी नहीं देखा।

 

अस्माकं क उपायोऽत्र भावि यत् तद् भविष्यति। 
अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो न विद्यते॥४१॥

प्रजाजन चर्चा करने लगे कि 'हम लोग इस विषय में उपाय ही क्या कर सकते हैं, जो होनहार है वह तो अवश्य ही होकर रहेगा, क्योंकि जो कार्य विधाता द्वारा निश्चित हैं, उसके प्रतिकार का तो कोई उपाय है ही नहीं।'

 

हा हा भूतं वीक्ष्य राज्यम् अग्रसेनस्य तां दशाम्। 
क्रन्दमानोऽभवल्लोकः कुररीगणसंनिभः॥४२॥

उस समय श्री अग्रसेन की वह दशा देखकर सारे राज्य में हाहाकार मच गया। सारी प्रजा क्रोंच पक्षियों के झुंड की तरह जगह जगह एकत्रित होकर चीखने चिल्लाने लगी।

 

महतां चाभवद् ग्लानिर्दुःखिताः पौरसज्जनाः। 
धिक् ते बलं धिग् विचारं धिक् कर्मेदं त्वया कृतम्॥४३॥

उस समय सत्पुरुषों के हृदय भी अत्यंत ग्लानि भाव से भर गए और समस्त नागरिक जन दुःख में डूब गए। ऐसे नीचता पूर्ण बल को विवकार है, ऐसे पाप पूर्ण विचारों को धिक्कार है, ऐसे छल पूर्ण कृत्य को धिक्कार है।

 

न चैतौ द्रष्टुमिच्छामो विकृतौ पापदर्शनौ। 
प्रजानामपि, राज्येऽस्मिन् कथं कः स्थातुमर्हति॥४४॥

ये दोनों कुन्दसेन तथा वज्रसेन पिता-पुत्र विकृत हो गए हैं, इन्हें देखना भी पाप है, हम इनकी और दृष्टिपात भी नहीं करना चाहते, प्रजाजनों में से कोई भी इस राज्य में भला अब कैसे रह सकेगा? (इस प्रकार प्रजाजन चर्चा करने लगे।)

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
कृता यत्नाः कौरवेण पाण्डवानां विनाशने।
त्वं सर्वमतिसंवृद्धः कुलेऽग्रोऽप्स्विव पङ्कजम्॥४५॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे जनमेजय! पहले भी इसी प्रकार कौरवों द्वारा पाण्डवों को विनिष्ट कर देने के लिये अनेकों प्रयत्न  किए गए थे, किन्तु उन सारे ही संकटो को लांघकर वे जल में कमल की भांति उतरोत्तर बढ़ते ही गए। हे राजन्! संकट में धैर्य धारण करना ही विवेक है।

 

॥ इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीम‌दग्रभागवते पञ्चमोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का पंचम अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।