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॥श्री अग्र भागवत॥
पच्चीसवाँ अध्याय
संकल्प
॥जैमिनिरुवाच॥
यथाकामं यथोत्साहं यथाकालं यथासुखम्।
धर्मानुकूलं राजायमग्रसेनोऽर्हति ध्रुवम्॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! जब जैसी अभिलाषा हुई, जैसा उत्साह रहा, जैसा समय हुआ, उसके अनुकूल महाराजा अग्रसेन सुखपूर्वक जगत् के भोगों का धर्मानुकूल उपयोग करते थे। वास्तव में वे उसके योग्य अधिकारी थे।
देवानतर्पयद् यज्ञैः श्राद्धैस्तद्वत् पितृनपि।
दीनाननुग्रहैरिष्टैः कामैः सर्वास्तथा प्रजाः॥२॥
राजन्! उन्होंने यज्ञों द्वारा देवताओं को परितुष्ट किया, अपने श्रद्धा युक्त सत्कर्मों से पितरों को, यथा योग्य अनुग्रह करके दीन-दुःखियों को तथा आकांक्षित भोग्य वस्तुओं एवं राज्य सेवाओं से सम्पूर्ण प्रजा को तृप्त किया।
पालयामासाग्रसेनः साक्षादिन्द्र इवापरः।
नृधर्म विषयज्ञः सन् चचार सुखमुत्तमम्॥३॥
इस प्रकार इन्द्र के समान ही महाराजा अग्रसेन अपनी प्रजा का पालन किया करते थे। सम्पूर्ण विषय उनके अधीन थे और मानवोचित धर्म का आचरण करते हुए वे उत्तम सुखों का उपभोग करते थे।
अग्रसेनो यदातीतं शरदोऽष्टाधिकं शतम्।
स मानयामास सुहृज्जनांस्तांश्च भृशं द्विजान्॥४॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार जब महाराजा श्री अग्रसेन के जीवन के एक सौ आठ शरद् व्यतीत हो चुके, तब उन्होंने अपने सभी स्नेहीजनों को पास बुलवाकर उनसे कहा—
॥अग्रसेन उवाच॥
विदितं भवतामेतद् यथा मे परिपालितम्।
इदं शरीरं जरितं मया लोककृते हितम्॥५॥
महाराजा अग्रसेन ने कहा—आप लोगों को यह विदित ही है कि मैंने किस तरह राज्य कर्म का पालन किया है। लोकहित की साधना करते हुए मेरा शरीर अब बूढ़ा (जर्जर) हो गया है।
आत्मनस्तु हितं पुण्यं प्रतिकर्तव्यमद्य वै।
युज्यन्तामाशिषो पामि माधव्या सह काननम्॥६॥
अब राजरानी माधवी देवी सहित मुझे अपने वानप्रस्थ के कर्तव्य का निर्वाह करते हुए आत्मा के हितार्थ पुण्य तपश्चर्या करनी है। हम वन में विचरण करते हुए तुम्हे आशीर्वाद देते रहेंगे।
राजन् राज्यहितं कार्यं सर्वं च प्रविचिन्त्यताम्।
अन्यमध्यस्थचिन्ता च विमर्शाभ्यधिकोदया॥७॥
राज्य के हित में आप किसे युवराज बनाना चाहते है? राज्य के लिये जो हितकर हो उस पर आप सब विचार करें। क्योंकि एक पक्षीय पुरुष की अपेक्षा मध्यस्थ पुरुषों का विचार (पूर्व और अपर पक्ष को लक्ष्य करके विचार किए जाने के कारण) अधिक अभ्युदयकारी होते हैं।
॥गार्ग्य उवाच॥
धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च शीलवानप्यहिंसकः।
जितेन्द्रियः प्रियवादी सर्वभूतानुकम्पनः॥८॥
तब महर्षि गर्ग ने कहा—हे राजन्! अग्रसेन! आप धर्मज्ञ, सत्यप्रिय, शीलवान, अहिंसक, प्रिय वाचक तथा जितेन्द्रिय हैं। आपमें समस्त प्राणी मात्र के प्रति दया भाव है।
भव्योऽनुसूचः शरवत् लोकतन्त्रमभीप्सते।
मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा सत्याश्रितोऽग्रराट्॥९॥
आपकी यह लोकतांत्रिक अभिलाषा सदा कल्याणकारी एवं असूया को समाप्त करने वाली है। आप तो मृदुस्वभावी, स्थिरप्रज्ञ तथा सदैव सत्य पर आश्रित रहने वाले हैं।
वत्स श्रेयसि जातस्ते दिष्ट्याऽसौ च तवात्मजः।
वत्स अग्रसेन! सौभाग्य से आपके पुत्र आपके ही समान प्रजा का कल्याण करने में सर्वथा समर्थ हो चुके हैं।
॥अग्रसेन उवाच॥
किमिच्छन्ति भवन्तोऽद्य मत्पुत्रं चक्रवर्तिनम्।
तुष्टोऽस्म्यहमपीच्छामि तं महाराजमञ्चितम्॥१०॥
महाराजा अग्रसेन ने कहा—अहो! आप मेरे पुत्र को राजा के रूप में देखना चाहते हैं? यह तो मेरे लिये प्रसन्नता और गौरव की बात है कि देश की प्रजा का हम पर पूर्ण विश्वास है।
॥जैमिनिरुवाच॥
इति ब्रुवन्तं मुदिताः प्रत्यनन्दन् प्रजा नृपम्।
स्निग्धोऽनुनादः सञ्जज्ञे ततो हर्षसमीरितः॥११॥
जैमिनी जी कहते हैं—महर्षि गर्ग तथा महाराजा अग्रसेन के इस प्रकार वार्तालाप से वहाँ उपस्थित प्रजाजनों ने अपने मनोकूल निर्णय से अत्यन्त प्रसन्न होकर महाराजा अग्रसेन का अभिनन्दन किया। तदनंतर समस्त जन-समुदाय की स्नेहपूर्ण हर्ष-ध्वनि से वह राजभवन गूँज उठा।
॥विभुरुवाच॥
परित्यजसि चेत्तात वनं त्वं वा गमिष्यसि।
ममैतन्न प्रीतिकरं नयाऽस्मानपि सेवकान्॥१२॥
विभुसेन ने कहा—पिताश्री! महाराज! आप इस प्रकार हमें छोड़ कर वन चले जायँगे तब यह तो हमारे लिये कदापि प्रसन्नतादायक नहीं होगा।
यदीच्छसि महाराज सेवां ते करवामहै।
दिष्ट्या शुश्रूषमाणस्त्वां मोचये मनसोज्वरम्॥१३॥
हमें आपकी सेवा का सौभाग्यपूर्ण अवसर मिलते रहने से हम मानसिक चिन्ताओं से दूर रहते हैं। पिताश्री! हमे आपकी सेवा का अवसर मिलता रहे—यही हमारी कामना है।
॥अग्रसेन उवाच॥
तापस्ये मे मनस्तात, नोचितं नः कुले स्थितिः।
पुत्रेष्वैश्वर्यमाधाय वयसोऽन्ते वनं व्रजेत्॥१४॥
महाराजा अग्रसेन ने कहा—हे वत्स! मेरा मन अब केवल तपस्या करने का है। हमारे कुल के सभी लोगों के लिये यह उचित भी है कि अंतिम अवस्था में वे अपने अर्जित ऐश्वर्य को योग्य पुत्रों को सौंपकर स्वयं वन में तपस्या करें।
॥प्रकृतयः उचुः॥
मातापित्रोर्वचनकृद्धितः पथ्यश्च यः सुतः।
स पुत्रः पुत्रवद् यश्च वर्तते पितृमातृषु॥१५॥
प्रजाजनों ने कहा—जो व्यक्ति माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल आचरण करता है, तथा माता पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है—वही वास्तव में पुत्र है।
॥जैमिनिरुवाच॥
पौरजानपदैस्तुष्टैरित्युक्तोऽग्रस्तदा नृपः।
अभ्यषिञ्चद् विभुं राज्ये खे शुभे सुतमात्मनः॥१६॥
स्वपुत्राय विनीताय गुणिने सुकृतात्मने।
तदा राज्यं सम्प्रदाय ह्यग्रसेनोऽब्रवीद् वचः॥१७॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! नगर और राज्य के लोगों ने जब संतुष्ट होकर राजा के रूप में विभुसेन का चयन किया। तब महाराज अग्रसेन ने अपने आत्मज को ही राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। अपने पुत्र को राज्य प्रदान करने के पश्चात श्री अग्रसेन ने अपने विनयशील तथा गुणवान पुत्रों को सम्बोधित करते हुए कहा—
॥अग्रसेन उवाच॥
आग्रेयमिदमेवेज्यं प्राज्यं राज्यं मयार्पितम्।
विषयन्ते भ्रातरश्च पान्त्वन्ये येऽधिपा इमे॥१८॥
महात्मा अग्रसेन ने कहा—विभो! यह आग्रेय देश तुम्हारे तुम्हारे अधिकार में रहेगा, और तुम्हारे अन्य भ्रातागण सीमान्त देशों के अधिपति रहेंगे।
क्षमते यस्तु शक्तः स्यात् क्रुध्यतेऽशक्त एव हि।
दुर्जनो द्वेष्टि सुजनं दुर्बलो बलवत्तरम्॥१९॥
रूपवन्तमरूपश्च धनवन्तं च निर्धनः।
अकर्मा कर्मठं द्वेष्टि धार्मिकं च नधार्मिकः॥२०॥
निर्गुणो गुणवन्तं च विभो तत् कलिलक्षणम्।
न कुर्यात् कुत्रचित् क्रोधं नावमन्येत कश्चन॥२१॥
वत्स! शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। शक्तिशाली पुरुष वह है—जो क्षमा करता है। लोक में दुष्ट मनुष्य रूपवान से, निर्धन धनवान से, अकर्मण्य कर्मनिष्ठ से, और अधार्मिक व्यक्ति धर्मवान पुरुष से ईर्ष्या करता है।
हे विभो! यह कलिकाल का प्रभाव है, अतः बुद्धिमान पुरुष न क्रोध करें और न ही कभी किसी का अनादर ही करें।
दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्।
न विद्यते त्रिलोकेषु सुसंवननमीदृशम्॥२२॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! महाराजा श्री अग्रसेन ने जीवन की सफलता के सूत्र बतलाते हुए कहा—वत्स! सभी प्राणियों के प्रति दया और मैत्री पूर्ण व्यवहार, दान, तथा सबके प्रति मधुर वाणी का प्रयोग—तीनों लोकों में इनके समान और कोई वशीकरण मंत्र नहीं है।
तस्मात् न वाच्यं परुषं क्वचित् सान्त्वं वचो वदेत्।
सम्पूजयेत् प्राज्ञपूज्यान् दद्याद् याचेत न क्वचित्॥२३॥
अतएव कभी कठोर वचन न बोलें। सदैव सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोलना चाहिये। पूजनीय पुरुषों का यथोचित आदर सत्कार, पूजन करना चाहिये। दूसरों को यथाशक्ति देना चाहिये, दूसरों से कभी माँगना नहीं चाहिये।
महाशया महात्मानः सर्वशस्त्रास्त्रभृद्वराः।
उत्तमां च मनोबुद्धिं कुर्युस्ते भ्रातरस्त्वयि॥२४॥
वत्स! तुम सभी भाई उत्तम मन और बुद्धि से युक्त, श्रेष्ठ आचरण पालन करने वाले, महात्मा, तथा महान् विचारों वाले, सभी शास्त्रों तथा शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ तथा शूरवीर हो।
ब्रह्मचर्यं परो धर्मः स चापि नियतस्त्वयि।
विप्रैः पुरस्कृतं किञ्चिन्नराणां श्रेय ईप्सितम्॥२५॥
विभो! ब्रह्मचर्य ही सबसे बड़ा धर्म है और वह तुम में निश्चित रुप से विद्यमान है। तथापि इस जगत् में जो भी कल्याणकारी कार्य करना अभीष्ट हो—वह ब्रह्म (गुरु) को आगे करके ही करना चाहिये।
पुरोधाः यस्य धर्मज्ञः जयस्ते नियतो विभो।
तस्माद् जानीह नो शक्यं कर्म ब्रह्म विना कृतम्॥२६॥
हे वंशवर्धक पुत्रों! तुम यह अच्छी तरह जान लो कि कोई भी श्रेष्ठकर्म ब्रह्म को आगे किये बिना फलित नहीं होता। जिसके यहाँ धर्मज्ञ पुरोहित हों, उस राजा को ही इस लोक में निश्चित विजय मिलती है।
अगर्वितात्मा युक्तश्च सान्त्वयुक्तोऽनसूयकः।
अवेक्षितार्थो मन्त्र्येत शुद्धात्मा सुद्विजो नरः॥२७॥
वत्स! राजा अपने हृदय से अहंकार को निकालकर चित्त को स्थिर रखे। सबसे मधुर संभाषण करे, दूसरों के दोषों को प्रकाशित न करे। हर विषय पर दृष्टि रखे और शुद्धचित्त होकर द्विजों के साथ बैठकर मंत्रणा करे।
कर्मणा येन केनैव मृदुना दारुणेन च।
उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत्॥२८॥
वत्स! यदि कभी राजा संकट में हो तो कोमल या भयंकर जिस किसी भी कर्म के द्वारा उस दुरावस्था से पहिले अपना उद्धार करे, और फिर समर्थ होने पर धर्मानुकूल आचरण करे।
नरः पश्यति भद्राणि न संशयमनारुहन्।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति॥२९॥
वत्स! कष्ट सहे बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन नहीं कर पाता अर्थात् संघर्ष ही सिद्धि का श्रोत है। प्राण संकट में पड़ने पर भी यदि वह जीवित रह जाता है, तो प्रयत्नशील होने पर वह पुनः अपना भाग्योदय देखता है।
न स्थिरः सर्वदा देहस्तारुण्यं चंचलं तथा।
स्थिरा रमा न कस्यापि दृश्यते मन्दिरे विभो॥३०॥
तस्माद् यशः स्थिरं कार्यं प्राणिभिर्भूतलेऽखिलैः।
हे वत्स! यह शरीर सदा स्थिर रहने वाला नहीं है। युवा अवस्था भी चंचल ही होती है। सारे भूमंडल में किसी के भी घर में लक्ष्मी स्थिर नहीं देखी जाती अतः प्राणियों को अपना यश स्थिर कर लेना चाहिये।
"विभुरुवाच"
कथमत्र भवेत् कीर्तिः किं कार्य च कथं सुखम्॥३१॥
विभुसेन ने पूछा—हे महात्मन! पिताश्री! कैसा कर्म करने से इस लोक में कीर्ति तथा उत्तम सुख की प्राप्ति संभव है? (कृपया यह भी बताइये।)
॥अग्रसेन उवाच॥
लोकपर्यायवृतान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः।
न बुद्धिर्धनलाभाय न लोभाय समृद्धये॥३२॥
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणां चानभिद्रोहः सप्तैता समिधः श्रियः॥३३॥
महाराजा अगेसन ने कहा—विभो! ऐसा नहीं है कि बुद्धि से ही धन व ऐश्वर्य प्राप्त होता है। और न ही दरिद्रता का कारण मूर्खता ही। यह तो भाग्य के अधीन है। परंतु सत्य, धैर्य, मनोनिग्रह, पवित्रता, दया, मधुरवाणी और मित्र से द्रोह न करना—ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं। संसार चक्र के इस वृतान्त को केवल विद्वान् पुरुष ही जानते हैं, अन्य नहीं।
बुद्ध्या भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महः।
गुरुशुश्रुषया ज्ञानं शान्तिं धर्मेण विन्दति॥३४॥
हे विभो! बुद्धि से मनुष्य अपने तथा औरों के भय को दूर करता है। तपस्या से महद् पद को प्राप्त होता है। गुरु की सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, उसी तरह सदाचार से शांति।
अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥३५॥
वत्स! विभो! विनम्रता अपयश का नाश करती है। पराक्रम अनिष्ट को विनिष्ट करता है। क्षमा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार ही बुरे लक्षणों का अन्त करता है।
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥३६॥
इसलिये हे वत्स! सदाचार की यत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिये। धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी व्यक्ति क्षीण नहीं माना जाता। किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो पूरी तरह नष्ट हुआ ही समझना चाहिये।
वृत्ततस्त्ववहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
गच्छन्ति च श्रेष्ठकुलं कर्षन्ति च महद् यशः॥३७॥
वत्स विभो! थोड़े धन वाले या वित्तहीन कुल भी, यदि सदाचार से सम्पन्न हों तो वे श्रेष्ठ कुल माने जाते हैं और वे महान् यश प्राप्त करते हैं। अर्थात यश का आधार वित्त नहीं सदाचार है।
कुलीनो दुष्कुलीनो वा मर्यादां यो न लङ्घयेत्।
धर्मापेक्षी मृदुर्ह्रीमान् स कुलीनशताद् वरः॥३८॥
कोई व्यक्ति उत्तम कुल में जन्मा हो या अधम कुल में—जो मर्यादाओं का उल्लघंन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, मृदुल स्वाभाव वाला तथा सलज्ज हो, वह (अधम होने पर भी) सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है।
आयत्यां प्रतिकारज्ञस्तदात्वे दृढनिश्चयः।
अतीते कर्मशेषज्ञो विभो कीर्त्या न हीयते॥३९॥
विभो! जो व्यक्ति आने वाले दुःख के प्रतिकार का उपाय जानता हो, तथा वर्तमान कालिक कर्तव्यों को पूर्ण करने में प्रयत्नशील रहता हो और अतीत काल के अवशिष्ट कर्तव्यों को पूर्ण करने में प्रयत्नशील हो, उस मनुष्य का कभी भी अपयश नहीं होता।
अत्यार्यमतिदातारमतिशूरमतिव्रतम्।
अतिप्रज्ञाभिमानं च सेवते श्रीर्न तं भयात्॥४०॥
हे विभो! कोई भले ही अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी, अतीव शूरवीर, बड़ा तपस्वी, श्रेष्ठ बुद्धिमान् ही क्यों न हो, किन्तु यदि वह अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में चूर हो तो अपमानित हो जाने के भय से उसके घर लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती।
प्रभविष्णोर्यथा विष्णोरमानित्वं परं सदा।
नातः श्रीमत्तरं किञ्चिदन्यत् पथ्यं हि मे मतम्॥४१॥
हे विभो! अपनी अनन्त श्रेष्ठताओं के बावजूद भगवान् विष्णु के समान ही प्रभायुक्त होने पर भी उनके ही समान सदा ही सर्वत्र निरभिमानी रहने वाले व्यक्ति के घर ही महालक्ष्मी वास करती हैं। अतएव निराभिमान के अतिरिक्त श्री सम्पन्न बनाने वाला मेरे मत में और कोई उपाय नहीं है।
यदभीक्ष्णं निषेवेत मनसा कर्मणा गिरा।
तदेवापहरत्येनं तस्मात् कल्याणमाचरेत्॥४२॥
वत्स! मनुष्य मन, वाणी, और कर्म से जिन कार्यों का निरंतर सेवन करता है, वे कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेते हैं। अर्थात् व्यक्ति जिसप्रकार के कार्यो में मन वाणी और कर्म से लिप्त हो जाता है, उसका वही स्वरूप बन जाता है;अतः सदैव जगत् के कल्याणकारी कार्यों में ही न्यस्त रहना चाहिये।
क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम्।
कर्मणा स्थैर्यमास्थाय कल्पन्ते शाश्वता भुवि॥४३॥
वत्स! जिसके द्वारा अपने कर्मों में कर्तव्यों को आचरित किया जाता हो, जिसके आचरण में क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, और सरलता हो उन्हें ही इस लोक में सनातन (शाश्वत) स्थान की प्राप्ति होती है।
सर्वेषां ज्ञानमेकं हि सर्वभूतहिताऽभयम्।
समुद्र इव गम्भीरः प्रज्ञातृप्तः प्रशाम्यति॥४४॥
विभो! जो सम्पूर्ण जगत् का हिताभिलाषी, भय से रहित तथा जिससे सभी प्राणियों को अभय प्राप्त हो, जो समुद्र के समान गम्भीर तथा उत्कृष्ट ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त हो—वही परम शांति का भागी होता है।
परिभ्रष्टः स्वयं राज्यात् सम्प्राप्तो व्यसनं महत्।
लब्ध्वामृतं हि स्वं रूपं काष्ठां विन्दति कर्मणाम्॥४५॥
वत्स! मैंने स्वयं राज्य से हीन होने पर अनेकों संकटों तथा अत्यन्त गंभीर दुःखों को झेला; किन्तु अपनी लज्जाशीलता तथा पुण्य कर्मों के कारण ही इस अमृत्व तथा पुरुषों की श्रेष्ठ गति को प्राप्त किया है।
सुमन्त्रितं सुनीतं च न्यायतश्चोपपादितम्।
कृतं मानुष्यकं कर्म दैवेनापि न रुध्यते॥४६॥
विभो! अच्छी तरह विचारपूर्वक निश्चित किये हुये मानवीय पुरुषार्थ साध्य कर्म भी कभी-कभी दैववशात् बाधित हो जाते हैं। अर्थात् उनकी सफलता में विघ्न उपस्थित हो जाते हैं।
दैवेन किल यस्यार्थः सुनीतोऽपि विशां पते।
दैवस्य चागमे यत्नस्तेन कार्यों विजानता॥४७॥
विभो! उत्तम नीति द्वारा सुरक्षित कर्म एवं पदार्थ भी दैव के प्रतिकूल होने पर नष्ट प्रायः हो जाते हैं, अतएव दैव को अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना ही विद्वत्ता है।
दैवमप्यकृतं कर्म पौरुषेण विहन्यते।
यदन्यद् दिष्टभावस्य पुरुषस्य स्वयं कृतम्॥४८॥
किन्तु देवों के द्वारा विघ्न उपस्थित होने पर भी पुरुषार्थ का कदापि परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि पुरुषार्थ से ही उन बाधाओं का निवारण किया जा सकता है। प्रारब्ध के अतिरिक्त जो पुरुष का स्वयं अपना किया हुआ कर्म है, उससे भी फल सिद्धि होती है।
न जात्वदक्षो राजा च प्रजाः शक्नोति रक्षितुम्।
भारो हि सुमहान् वत्स राज्यं नाम सुदुष्करम्॥४९॥
हे वत्स! जो राजा दक्ष नहीं है, वह प्रजा की रक्षा कदापि नहीं कर सकता। राज्य के संचालन का कार्य अत्यन्त दुष्कर है क्योंकि राजा पर प्रजा के हित व उसके संरक्षण का बहुत बड़ा भार होता है।
अरक्षितात्मा स नृपः प्रजाश्चापि न रक्षति।
तद्दण्डविन्नृपः प्राज्ञः शूरः शक्नोति रक्षितुम्॥५०॥
हे वत्स! जो राजा अपनी रक्षा ही नहीं कर सकता, वह प्रजा की रक्षा कैसे कर सकता है? राज्य की रक्षा केवल वही राजा कर सकता है, जो बुद्धिमान् हो और शूरवीर होने के साथ-साथ न्यायनीति भी जानता हो।
नयानयौ देशकालौ ज्ञात्वा दण्डं नयेन्नृषु।
सुनियन्त्रितसर्वाङ्गः पक्षपातविवर्जनात्॥५१॥
वत्स! राजा देश, काल, न्याय और अन्याय को ठीक प्रकार से ज्ञात करके ही अपराधी को दण्ड दे। राज्य कार्य के लिये स्वयं भी नियम और विधान से बँधा रहे और पक्षपात से रहित निर्णय करे।
स्वभावः कर्म च शुभं यत्र शूद्रेऽपि तिष्ठति।
विशिष्टः स द्विजातेर्हि विज्ञेय इति मे मतिः॥५२॥
वत्स! (न्याय शास्त्र में वर्णों के अनुसार वर्णित दण्ड प्रक्रिया से मैं सहमत नहीं।) मेरा मत है कि यदि शूद्र के स्वभाव एवं कर्म दोनों उत्तम हों तो वह द्विजातियों से भी बढ़कर माननीय है।
न श्रुतं न च संस्कारो न योनिः श्रीकरो नृणाम्।
आचारः श्रीकरः प्रोक्तो ब्रह्मणा सृजता प्रजाः॥५३॥
वत्स! प्रजा की सृष्टि करते समय वरदाता ब्रह्माजी ने स्वयं यही बात कही है कि श्रेष्ठता का कारण न योनि, न संस्कार और न ही शास्त्रों का ज्ञान ही है। 'श्रेष्ठता का आधार तो केवल मनुष्य का आचरण होता है।'
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम्।
यथोर्ध्वं च त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत॥५४॥
जिस प्रकार तीनों लोक उर्ध्व लोक की रक्षा करते हैं, वे ही यज्ञों तथा समस्त प्राणियों की उत्पत्ति तथा वृद्धि के हेतु हैं, उसीप्रकार कृषि, गौपालन, और वाणिज्य—ये तीनों इस लोक में उत्तम आजीविका के साधन हैं।
नृधर्मे वर्तमानानामर्थंसिद्धिः प्रदृश्यते।
तदेव मङ्गलं लोकः सर्वस्तमनुवर्तते॥५५॥
वत्स! जो मानव धर्म के पालन में तत्पर रहते हैं, उन्हीं से अभीष्ट मनोरथों की सिद्धि होती देखी जाती है। और फिर यह सारा संसार उसी मंगलमय धर्म का अनुसरण करता है।
प्रमाणं यद्धि कुरुते सदाचारेषु पार्थिवः।
प्रजास्तदनुवर्तन्ते प्रमाणाचरितं सदा॥५६॥
हे वत्स! सदाचार के आचरण में राजा जिस कर्म को प्रमाणित दर्शाता है, प्रजा उस प्राणभूत राजा के आचरण का ही अनुकरण करती है।
अहिंसा परमो धर्मः इत्युक्तं शास्त्रकोटिषु।
निश्चयेन चिकिर्षामि धर्ममेतं सनातनम्॥५७॥
वत्स! प्रायः सभी महापुरुषों ने अहिंसा को परमधर्म कहा है; किन्तु मैं निश्चित रुप से इस सनातन धर्म के पालन की कामना करता हूँ।
धिक् तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रे यस्यावसीदति।
संरुद्धपतिपुत्रैका हियते स्त्री बलाद् द्विषा॥५८॥
वत्स! जिस राज्य में मनुष्य क्षुधा से पीड़ित हों, रोती बिलखती स्त्रियों का बलपूर्वक अपहरण हो जाता हो, और उनके असहाय पति पुत्रादि रोते रह जाते हों, उस राजा के जीवन को धिक्कार है।
नृपः स धर्मकुशलः तद्राष्ट्रं भूतिलक्षणम्।
यस्य राज्ञः शुभे राज्ये कर्मभिर्निर्वृता नराः॥५९॥
राजा धर्म में कुशल हो—यही प्रजा के ऐश्वर्य, वैभव, शांति एवं सुख को सूचित करने वाला श्रेष्ठतम लक्षण है। ऐसे राजा के शुभ राज्य तथा शुभ कर्मों से प्रजा संतुष्ट रहती है।
आर्तहस्तप्रदो राजा प्रजा धर्मेण पालयन्।
सत्यं सत्यानि कुरुते स नित्यं यः सुदर्शनः॥६०॥
वत्स! जो दुःखी एवं पीड़ित मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, उसकी पीड़ाओं का निवारण करता है तथा जिसका दर्शन भी लोगों के लिये सुख प्रदान करने वाला हो, जो स्वयं सत्य परायण होकर सत्यपूर्ण व्यवहार करता है—वही वस्तुतः राजा होता है।
अर्थाश्चैवाधिगम्यन्ते सङ्घातबलपौरुषैः।
तस्मान्मानयितव्यास्ते गणमुख्याः प्रधानतः॥६१॥
वत्स! जो सामूहिक बल और पुरुषार्थ से संपन्न है, उन्हें अनायास ही सभी प्रकार के अभीष्टों की प्राप्ति हो जाती है। अतः गणराज्य के जो प्रधान पुरुष हैं, तुम्हें उनका यथोचित सम्मान करना चाहिये।
न चापि वैरं वैरेण विभोऽत्र व्युपशाम्यति।
हविषाऽग्निर्यथाऽ कीर्तिर्भूय एवाभिवर्धते॥६२॥
हे विभो! जैसे घी डालने पर अग्नि बुझने की बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार बैर करने से बैर की आग शांत नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती है और अपकीर्ति का कारण बनती है।
उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः।
अपकारिषु यः साधुः स साधुः सद्भिरुच्यते॥६३॥
हे वत्स! जो अपने ऊपर उपकार करने वालों के प्रति सद्भाव दिखाता है, उसकी साधुता में क्या विशिष्टता? ऐसा तो स्वाभाविक ही है। किन्तु जो अपने अपकारी के प्रति भी उपकार करता है, सत्पुरुष उसे ही महान् (साधु पुरुष) कहते हैं।
एवं कृतमती राजा प्रजा अनुचरेद् यदि।
भवतां च कृतः कामस्त्वयाऽ ऽप्तं श्रेय उत्तमम्॥६४॥
हे वत्स! यदि तुम अपनी बुद्धि में इस प्रकार निश्चय करके उसका अनुसरण करोगे, तो तुम निश्चय ही अक्षय यश को प्राप्त करोगे। इस प्रकार तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण होगा और परम लोक कल्याण भी।
इदानीं मानुषं धर्मं जानासि सकलं विभो।
सर्वकामसमृद्धा ते प्रजा राज्ये भविष्यति॥६५॥
हे वत्स! विभो! इस प्रकार तुम सारे मानवोचित गुणों को जान चुके हो। निश्चय ही तुम्हारे राज्य में सारी प्रजा समस्त सुखों से समृद्ध होगी।
॥जैमिनिरुवाच॥
एवं ब्रुवन्तं पितरं नमस्कृत्य विभुस्तदा।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्फुटं वचनमब्रवीत्॥६६॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! तदनंतर राजा विभुसेन ने ऐसे नीतिपूर्ण मार्गदर्शक अपने पिताश्री महाप्राज्ञ अग्रसेन जी को प्रणाम कर उनकी प्रदक्षिणा की और स्पष्ट शब्दों में कहा—
॥विभुरुवाच॥
सर्वं तात करिष्यामि त्वयोक्तं परमं हितम्।
महापातकिनस्त्यत्क्त्वा प्रजाः सम्पूजयाम्यहम्॥६७॥
विभुसेन ने कहा—पिताश्री! आपके कहे गए वचन मेरे लिये परम कल्याणकारी एवं हितकर हैं। मैं इन सभी निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करूँगा, एवं महापातकों का परित्याग एवं योग्य कृत्य का ही अपने जीवन में सम्मान करूँगा।
॥जैमिनिरुवाच॥
एवं सभार्योऽग्रसेनः प्रेयांसं पुत्रमीप्सितम्।
राज्येऽभिषिच्य मुदित आगतानब्रवीद् वचः॥६८॥
जैमिनी जी कहते हैं—इस प्रकार राजर्षि श्री अग्रसेन अपनी धर्मपत्नी सहचरी माधवी देवी के साथ जनप्रिय पुत्र विभुसेन का राज्याभिषेक करने के उपरान्त समारोह में उपस्थित समस्त जनों को लक्ष्य करके प्रसन्नतापूर्वक वे कहने लगे—
॥अग्रसेन उवाच॥
अरण्यगमने बुद्धिर्माधवीसहितस्य मे।
मुनिनाऽनुमता राज्ञा भवद्भिश्चानुमन्यताम्॥६९॥
राजर्षि महात्मा श्री अग्रसेन ने कहा—हे प्रिय प्रजाजनों! मेरे द्वारा महाप्राज्ञा माधवी देवी के साथ वानप्रस्थ आश्रम में तपस्या हेतु वन जाने का जो निश्चय किया गया है, उसे महर्षि गर्ग तथा आग्रेय के वर्तमान राजा (विभुसेन) की अनुमति मिल चुकी है। आप लोग भी हमें वन जाने की अनुमति प्रदान करें।
येयं प्रीतिः कृताऽस्मासु भवद्भिः शाश्वती हिता।
न च साऽन्येषु देशेषु राज्ञामिति मतिर्मम॥७०॥
आप लोगों का हमारे साथ जो प्रेमपूर्वक सम्बन्ध सदा से चला आ रहा है, ऐसा मधुर स्नेह संबंध दूसरे किसी देश की प्रजा का अपने राजा के साथ शायद ही हो—ऐसा मेरा विश्वास है।
॥जैमिनिरुवाच॥
इत्युक्तास्तेन ते नोचुर्जनाः बाष्पकलाकुलाः।
रुरुदुः शोकसन्तप्ता मुहुर्तं पितृमातृवत्॥७१॥
जैमिनी जी कहते हैं—महाराज जनमेजय! श्री अग्रसेनजी के इस प्रकार कहते ही उन सभी के नेत्र आँसुओं से परिपूर्ण हो गए। अपनी संतान को विदा करते समय जिस प्रकार दुःख से कातर माता-पिता संतप्त हो उठते हैं, उसी प्रकार प्रजाजन उन्हें विदा करते हुए रो पड़े।
दुःखं सन्धारयन्तो हि नष्टसञ्ज्ञा इवाभवन्।
वियोगजं तमायासं विनीय प्रस्थिताविमौ॥७२॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! वियोगजनित इस दुःख को धारण करके उस समय लोग चेतनाशून्य की तरह हो गए। फिर धीरे-धीरे दुःख को योग्य चिन्तन से दूर करके उन सबने राजमाता माधवी देवी सहित श्री अग्रसेन जी के वानप्रस्थ प्रस्थान के अभिमत की पुष्टि की।
मार्गशीर्षे पूर्णिमायामाग्रेयान्निर्ययौ नृपः।
अभिवाद्य न्यवर्तन्त प्रजास्तं न निवर्त्य ताः॥७३॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! इसप्रकार महात्मा अग्रसेन महाप्राज्ञा माधवी देवी के साथ मार्गशीर्ष पूर्णिमा को आग्रेय राज्य से बाहर निकले।
उन्हें वापिस लौटाने में असमर्थ रहे प्रजाजन अन्ततः उनका अभिवादन कर नगर की ओर लौटे।
उषित्वा च वने वासं धर्मिणौ संशितव्रतौ।
फलमूलशनौ दान्तौ तपश्चर्यारतौ ततः॥७४॥
हे कुरुकुलभूषण जनमेजय! इस प्रकार मनस्वी श्री अग्रसेन सहधर्मिणी नागसुता माधवी देवी के साथ कठोर व्रत का पालन करते हुए, फल-मूल का आहार करते हुए तथा मन और इन्द्रियों को संयमित करते हुए तपश्चर्या में लीन हो गए।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते पञ्चविंशोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।