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॥ श्री अग्र भागवत ॥

 

प्रथम अध्याय

 

उदय

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। 
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥१॥

मैं अन्तर्यामी नारायण भगवान श्रीहरि को, श्रेष्ठ प्रतिभापुरुष जिनका प्रेरणास्पद जीवन मानवमात्र का पथ प्रदर्शक है, ऐसे नरोत्तम श्री अग्रसेन को, तथा प्रभुनारायण की लीला कथाओं, एवं महामानवों की कर्म कथाओं के तत्त्वज्ञान को प्रकट करने वाली देवी सरस्वती को, महर्षि व्यास को तथा उनके प्रधान शिष्य जयभारत ग्रंथ के प्रणेता, महर्षि जैमिनी को नमस्कार करके मानव मात्र को सांसारिक माया पर विजय प्रदान कराने वाली, ऐतिहासिक गाथाओं का पठन पाठन करता हूं।

 

शौनकस्तु महाभागः नैमिशे स कुलाधिपः।
अपृच्छदुग्रश्रवसं सर्वशास्त्रविशारदः॥२॥

संत समागम के केंद्रस्थल – नैमिष्यारण्य में धर्मात्मा एवं कुलपति जिज्ञासु वृत्ती के शौनिक जी ने, लोमहर्षण सूतजी के पुत्र, जो सर्व शास्त्रों के विशेषज्ञ थे, उनसे सादर पूछा—

 

॥ शौनक उवाच ॥ 
भारतानां कीर्तितं मे सूताख्यानं महत् त्वया। 
इक्ष्वाकूणां च सर्वेषां पार्थिवानां तथैव च॥३॥

शौनिक जी ने कहा— हे सूतनन्दन। आपने हमें भरतवंश के चंद्रवंशी राजाओं तथा उसी प्रकार सूर्यकुल के इक्ष्वाकुवंश के श्रेष्ठ राजाओं के विशद कथावृत्तयुक्त आख्यान सुनाए हैं।

 

अत्यद्भुतानि कर्माणि विचित्राश्च कथाश्शुभाः। 
कथितं भवता पुण्यं पुराणं श्लक्ष्णया गिरा॥४॥

महर्षे! आपने अतिविचित्र कथा प्रसंगो तथा अद्भुत चमत्कारों से परिपूर्ण कर्मों की प्राचीन, तथा पुण्यप्रद कथाओं का अपनी मृदु वाणी से वर्णन किया है।

 

अग्रस्य कर्मावदातं विस्तरेणैव में वद। 
कृपया परया लोमहर्षणस्तेऽब्रवीद्यथा॥५॥

इसप्रकार, सूतनन्दन की प्रशस्ति करने के उपरांत, महाप्राज्ञ शौनिकजी ने, लोमहर्षण सूत के पुत्र, उग्रश्रवा जी से सादर निवेदन किया कि— आप कृपया हमें महाराजा श्री अग्रसेन के अद्भुत व लोककल्याणकारी कर्मो की कथा विस्तार पूर्वक सुनाइये—

 

॥ सौतिरुवाच ॥ 
व्यासशिष्योऽवदद्यन्मे जैमिनिः सम्प्रविस्तरम्। 
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि ह्याग्रेयं कीर्तिवर्धनम्॥६॥

सूतनन्दन ने कहा— हे शौनिक जी! व्यासजी के वेदवेत्ता परमशिष्य महर्षि जैमिनी जी ने, अशांत जनमेजय से, जिस प्रकार विस्तृत किया था, उन्हीं के बतलाये अनुसार, मैं कथा आरंभ करता हूँ। यह कथा श्री अग्रसेन जी की कीर्ति का विस्तार करने वाली है।

 

क्षुद्रास्ते सन्ति शतशः नृपाः स्वभरणोद्यताः। 
स्वार्थो यस्य परार्थः स पुमानेकोऽग्रसेनकः॥७॥

सदा स्वयं के ही भरण, पोषण तथा रक्षण में प्रयत्नशील, क्षुद्रवृत्ति वाले राजा तो सैकड़ों हैं, किन्तु परहित को ही, स्वहित मानने वाला यदि कोई है, तो वे हैं एकमेव – श्री अग्रसेन ही हैं।

 

शृणुष्वैकमना विद्वन् इतिहासं पुरातनम्। 
कथितानि महाबाहो नान्तः शक्यो हि कर्मणाम्॥८॥

हे महात्मन! इस प्राचीन इतिहास को एकाग्रचित्त होकर सुनिये। हे महाबाहो, श्री अग्रसेन की कर्मों कथा विस्तार पूर्वक कहना संभव नहीं अर्थात् अत्यंत विशद है।

 

सञ्चिन्त्य घोरमत्यन्तं शान्तिं न प्राप्नुते क्षणम्।
चिन्ताशोकपरीतात्मा मन्युना जनमेजयः॥९॥

सूत जी कहते हैं — कुरुकुल भूषण जनमेजय, अपने बीते हुए भयंकर अतीत का स्मरण करके क्षण भर भी शांति नहीं पाते थे उनका मन चिन्ता और शोक में डूबा हुआ था।

 

तत् सामर्षं शोचमानं कुद्धं पारीक्षितं नृपम्। 
व्यासशिष्यो वेद‌वित् स वचः प्रोवाच जैमिनिः॥१०॥

तब इस प्रकार अमर्ष से भरे हुए, चिन्ता से क्रुद्ध, परिक्षित् कुमार राजा जनमेजय से महर्षि व्यास के परम शिष्य, वेदज्ञ, महर्षि जैमिनी ने यह बात कही -

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
अमर्षेण यातनेयं पन्नगानां त्वया कृता। 
न क्वापि वैरं क्रोधेन जनमेजय शाम्यति॥११॥

जैमिनी जी ने कहा— हे महाराजा जनमेजय! आपने अमर्ष पूर्वक नागों से अपने बैर का बदला चुका लिया, किन्तु हे राजन्! क्रोध करने से बैर की अग्नि कभी शांत नहीं होती।

 

यज्ञे विवरमासाद्य विघ्न इन्द्रेण यः कृतः। 
तेनामर्षादन्वशासीः शशप्थ त्वं पुरन्दम्॥१२॥

हे जनमेजय! यज्ञ में कोई छिद्र पाकर इन्द्र ने तुम्हारे लिये जिस प्रकार विघ्न उपस्थित किया था, जो कि तुम्हारा केवल भ्रम था, जिससे अमर्ष के वशीभूत होकर आपने इन्द्र को श्राप देकर उन्हें भ्रष्ट कर दिया।

 

कथं वृद्धं यशो राजन् परित्यक्ता वपुष्टमा। 
ऋत्विजस्तत्यजुः कोपं कथं ते जातमन्यवः॥१३॥

हे धर्मज्ञ राजन् ! इस तरह कुपित होकर, आपके द्वारा रानी वपुष्टमा का परित्याग कर देने से तथा क्रोध के वशीभूत आपके द्वारा ऋत्विजों तथा द्विजों को अपमानित किये जाने से, आपका यश किस प्रकार बढ़ गया? अर्थात् कम ही हुआ है।

 

अथ ते गुरवः शप्ताः कस्य रोषेण वर्धिताः।
अनाचारः कथं शक्रो नप्तुर्दारानतिक्रमेत्॥१४॥

हे धर्मज्ञ जनमेजय! आपने रोष उत्पन्न होने के कारण, यह कैसा अनर्थ किया? आपने यह कैसा अनीति पूर्ण व्यवहार किया? अपने ही गुरुजनों – अर्जुन के जनक आपके प्रपितामह इन्द्र को तथा जिन्होंने यज्ञ कराए, उन ॠत्विजों को तुमने शाप दे दिया। तुमने विचार भी नहीं किया कि इन्द्र भला प्रपोत्र वधु के साथ बलात्कार कैसे कर सकते हैं? कदापि नहीं कर सकते।

 

कथं च गुरुमात्मानं वासवं वा वपुष्टमाम्। 
दोषेणाशङ्क्य धर्मस्ते लङ्घितो दुरतिक्रमः॥१५॥

हे जनमेजय! आप तो धर्म को जानने वाले धर्मज्ञ हो, आपके द्वारा इस प्रकार इन्द्र के प्रति निर्मूल शंका ग्रस्त होकर, बिना यह विचार किये कि इन्द्र आपके प्रपितामह हैं, उन्हे श्राप देना। उन यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों का क्या दोष था? अपने उन गुरुजनों को आपके द्वारा अपमानित कर प्रताड़ित किया जाना एवं पतिव्रता रानी वपुष्टमा के प्रति भ्रम के वशीभूत हो, शंकाग्रस्त होकर धर्मपरायण पत्नी का तिरस्कार कर उसे घर से निकाल देना, ऐसे सर्वथा दुर्लक्षणीय दोष पूर्ण कृत्य आपके द्वारा किस लिये किए गए?

 

दुस्तरं प्रतिकूलं हि प्रतिस्त्रोत इवाम्भसः। 
कर्म दैवं वाऽन्यकृतं धृतिकेण विहन्यते॥१६॥

हे महाप्राज्ञ जनमेजय! जैसे— जल के प्रवाह के प्रतिकूल तैरना कठिन होता है, यह सच है कि उसी प्रकार देवकृत भाग्य से पार पाना कठिन अवश्य है। तथापि धीरमना पुरुष देवों द्वारा विघ्न उपस्थित किये जाने पर भी, धैर्य का कदापि परित्याग नहीं करते अपितु धैर्य धारण करके ही उन बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, बाधाओं से मुक्ति पाई जा सकती है।

 

जनमेजय तद् विद्धि क्रोधस्य परिवर्जनम्।
धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च॥१७॥

इसलिए हे जनमेजय! तुम्हे यह विदित होना ही चाहिये कि "क्रोध का परित्याग ही महान धर्म है" तथा क्रोध का मार्जन ही स्वर्ग तथा सुख का सर्वोत्तम आधार है।

 

तस्मात् स त्वं कुरुश्रेष्ठ मा शुचो जनमेजय।
त्वद्विधा हि महात्मानो न शोचन्ति परन्तप॥१८॥

अतः हे कुरुश्रेष्ठ! जनमेजय! तुम अब शोक न करो। क्योंकि हे परंतप! तुम्हारे जैसे महात्मा पुरुष कभी शोक नहीं करते।

 

शिष्टैराचरितो धर्मः पाल्यो नान्यः स्वरिच्छताम्। 
नौः सैव सागरस्येव वणिजः पारमिच्छतः॥१९॥

हे जनमेजय! जैसे समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले वणिक के लिये, जहाज की आवश्यकता होती है, उसके लिये जहाज ही एकमेव आश्रय होता है, उसी तरह स्वर्ग की कामना करने वालों के लिये, शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित धर्म का आचरण ही जहाज है, दूसरा अन्य कोई आधार नहीं।

 

शृणुष्वैकमना राजन् इतिहासं सुपुण्यदम्। कथितान्यग्रसेनस्य नान्तं गच्छन्ति कर्मणाम्॥२०॥

अतः हे महात्मन! जनमेजय! तुम्हे अग्रसेन के परम पुण्यप्रदायी इतिहास को एकाग्रचित्त होकर सुनना चाहिये। महाराजा श्री अग्रसेन के कर्मों की कथा, विस्तार से कहना संभव नहीं है। क्योंकि श्री अग्रसेन के पावन कर्मों की अत्यंत विशद है।

 

अत्यद्भुतानि कर्माणि विचित्राश्च कथास्तथा। 
अतिदिव्यं कृतं कर्म ह्यग्रसेनेन सद् हितम् ॥ २१ ॥

हे राजन! श्री अग्रसेन जी ने, अनेकों अतिदिव्य चारों—पुरुषार्थ से परिपूर्ण, कर्म किए हैं। उनके उन अद्‌भुत कार्यों के विचित्र कथा प्रसंग, मानव लोक के लिये अत्यंत हितकारी व परम कल्याणकारी हैं।

 

अत्र ते वर्णयिष्यामि यदि शुश्रूषसेऽनघ। 
त्वत्तो महत्तरो राजा स आसीत् जनमेजय॥२२॥

हे अनघ ! उन (श्री अग्रसेन जी) के विषय में, आप यदि सुनना चाहें तो ही मैं उस (गूढ़) विषय में तुम्हे बताऊंगा। हे जनमेजय! मैं तुम्हें ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति (श्री अग्रसेन) का परिचय दूंगा, इस पृथ्वी पर अभी जो राजा हैं, उनमें श्री अग्रसेन अत्यन्त श्रेष्ठ व महानतम राजा हैं।

 

॥ जनमेजय उवाच ॥
कथयस्व महत् तस्य कर्म धर्मेप्सवेऽथ मे। 
अग्रसेनस्यावदातं विस्तारेणैव मे वद॥२३॥

सम्राट् जनमेजय ने कहा— हे महामुने! ऐसे महान राजा श्री अग्रसेन जी के पुण्य कर्मों की कथा, मुझ धर्मच्युत की, धर्म प्राप्ति की इच्छा को दृष्टिगत रखते हुए अवश्य कहिये। मैं आपसे सादर निवेदन करता हूँ कि मुझ जिज्ञासु को श्री अग्रसेन जी के पुरुषार्थ की कथा विस्तार पूर्वक सुनाइयेगा।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
इक्ष्वाकुकुलजानां हि शुद्धानां वंश आदितः। 
न शक्यते विस्तरेण वक्तुमेकेन वत्सरैः॥२४॥

जैमिनी जी ने कहा— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! आप तो जानते ही हैं इक्ष्वाकुकुल आदिवंश के रूप में विख्यात है, जो कि परम विशुद्ध एवं सात्त्विक वंश माना गया है। इस वंश के किसी एक का भी विस्तार से वर्णन वर्षों में भी संभव नहीं है। (ज्ञातव्य है कि इक्ष्वाकुकुल में अनेकों पुण्यकर्मा महापुरुष हुए हैं, जिनके प्रेरणास्पद जीवन की कथाओं का, पृथक् पृथक् अनेकों आख्यानों, उपाख्यानों तथा पुराणों मे विस्तार पूर्वक विश्लेषण उपलब्ध हैं।)

 

कीर्तिमन्तो हि मान्धाता दिलीपोऽथ भगीरथः।
रघुः कुकुत्स्थः सगरो मरुत्तो नृप राघवः॥२५॥

महाराजा इक्ष्वाकु के इसी कुल में महाराजा माधान्ता, महाराजा दिलीप, भगीरथ, कुकुत्स्य, महाराजा मरूत्त, महाराजा रघु, भगवान् श्री राम आदि अनेकों कीर्तिवन्त राजा हुए हैं। (जिनकी कथाएँ जन जन में पुण्य-स्मरण स्वरूप विद्यमान है।)

 

बभ्रुवुस्त्वग्निवर्णस्य सुताः पञ्च सुरोपमाः।
तेषां वंशस्त्रिधा भूतः सूर्याणां कुलवर्धनः॥२६॥

इसी सूर्यकुल में महाराजा अग्निवर्ण के, दैवपुत्रों के सदृश्य पांच पुत्र हुए, जिनमें से तीन पुत्रों ने अपने वंश का विस्तार किया। तथा वे सूर्यकुल की कुल कीर्ति बढ़ाने वाले हुए।

 

विश्वसाहः प्रसेनजिद् येनाऽजेयपुरं कृतम्। 
तस्य पुत्रो बृहत्सेनो राजा वीरः प्रतापवान्॥२७॥

महाराजा विश्वसाह के पुत्र प्रसेनजित हुए, जिन्होंने एक अजेय पुरी का निर्माण करवाया। प्रसेनजित के प्रतापी पुत्र वृहत्सेन हुए।

 

वज्रनाभकुले जज्ञे मरोः पुत्रो बृहद्वलः। 
तथा वल्लभसेनश्च बृहत्सेनकुलोद्भवः॥२८॥

वज्रनाभ के कुल में, जिस प्रकार महाराजा मरु के पुत्र बृहद्वल हुए। उसी प्रकार वृहत्सेन के कुल में राजा वल्लभसेन उत्पन्न हुए।

 

वल्लभः सूर्यकुलजः प्रतापपुरनायकः । 
तत्पुरं राजधान्यासीद् ग्रामाणामेकविंशतेः॥२९॥

सूर्यकुल में उद्भूत महाराज श्री वल्लभसेन प्रतापपुर के राजा (नायक) थे। प्रतापपुर उन्नीस गांवो का वह देश था, जिस पर राजा श्री वल्ल्भसेन उस समय राज्य करते थे।

 

प्राकारालङ्कृता सम्यक् शातकौम्भविराजिता। 
सा पुरी त्रिदिशानद्या संवृताऽन्यदुरासदा॥३०॥

प्रतापपुर नामक वह पुरी, ऊंचे टीलों पर बने हुए सुन्दर प्राकारों, (परकोटों) से अलंकृत सूर्य की प्रभा के समान प्रतीत होती थी, जो कि तीन दिशाओं में नदी से आवृत थी (तीन ओर से नदी ने घेर रखा था) जिसे लांघना अत्यंत कठिन था, अतः वह दूसरों के लिये दुर्गम थी।

 

मेधावी वल्लभो राज्यं चकाराधिवसन् पुरीम्। 
तस्य भार्या तु वैदर्भी नाम्ना भगवती श्रुता॥३१॥

मेधावी राजा वल्लभसेन, अपने राज्य प्रतापपुर की प्रजा का विधिवत पालन करते थे। उनकी धर्मपत्नी विदर्भकन्या 'भगवती' के नाम से विख्यात थीं।

 

भगवत्यां वल्लभेन प्राप्तो वंशकरः सुतः । 
मनुष्याग्य्रस्य यस्यासीत् कान्तिश्चन्द्रमसो यथा॥३२॥

राजा वल्लभसेन से महारानी भगवती को, चंद्रमा के समान कांतिवान, मनुष्यों मे अग्रगण्य, एक वंशकर (अपनी विशिष्टताओं से युक्त, शास्त्रानुकूल वंश व्यवस्था की संरचना करने वाला – जिसके नाम से वंशजों को जाना जाए, ऐसा) पुत्र उत्पन्न हुआ।

 

मासेऽश्वयुज्याद्यपक्षे शुक्ले चाद्यदिने शुभे।
आदित्यवासरे चैन्द्रे काले जातः स भाग्यवान्॥३३॥

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा तिथि को, रविवार के शुभ दिन, महेन्द्र (श्रेष्ठकाल) समय के शुभ मुहुर्त में, इस अत्यंत भाग्यशाली बालक ने जन्म लिया।

 

हस्तेऽर्केन्दू गुरुः पुष्य तदाऽऽसन् भोगकारकाः। 
स्वात्यां बुधोऽनुराधायां कुजः शुक्रश्च रौहिणः॥३४॥

जन्म काल के समय हस्त नक्षत्र था, तदानुरुप कन्या लग्न। जिस पर सूर्य व चंद्र विराजमान हैं। गुरु पुष्यनक्षत्र का भोग कर रहे हैं, बुध स्वाती नक्षत्र में, मंगल अनुराधा तथा शुक्र रोहिणी नक्षत्र में, विराजमान हैं।

 

स्वात्यां भानुसुतश्चासीत् शोभते स्म फणी मृगे। 
रविरात्मा च शीतांशुरिष्टे बन्धं व्यपोहयन्॥३५॥

जब श्री अग्रसेन ने, गर्भ के बंधन से मोक्ष पाकर, धरा पर जन्म लिया, तब सूर्यपुत्र शनि स्वाति नक्षत्र पर, और राहू की सर्पाकार छवि ने मानो मृग (मृगशिरा नक्षत्र) को जकड़ लिया हो।

 

महाजनाश्च सर्वे वै जाता दर्शनलालसाः। 
एतैः परिवृतो राजा स मुनिः प्राप्तवान् स्वयम्॥३६॥

उस बालक के दर्शन की लालसा से, श्रेष्ठीजन तथा जन समुदाय वहाँ आ पहुँचा। इन सबसे घिरे हुए स्वयं महाराज वल्लभसेन महामुनि के साथ वहाँ आ पहुँचे।

 

धन्यां स्तुवन्तो जननीं वन्दिनः सूतमागधाः। 
चक्रुर्नानाविधाश्चेष्टाः सर्वलोकाश्च हर्षिताः॥३७॥

उस नवजात बालक तथा जन्मदात्री विदर्भसुता महारानी 'भगवती' की, बंदी, सूत तथा मागधगण स्तुति-प्रशंसा कर रहे थे। उस समय सभी लोग हर्षित होकर तरह-तरह की चेष्टाएँ करने लगे।

 

तं दृष्ट्वा ऋषयोऽभ्यूचुः यशस्त्वं प्राप्स्यसे महद्। 
श्रीमान् जैत्रो दानशीलः क्षमाशीलो नरेश्वरः॥३८॥

उस बालक को देखकर ऋषिगणों ने कहा — यह बालक निश्चित ही महान यश को प्राप्त करेगा। श्री महालक्ष्मी जी की कृपा से संपन्न होकर यह बालक, दानशील तथा क्षमाशील, मानव श्रेष्ठ तथा कीर्तिवान् राजा होगा।

 

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान् सत्यसङ्गरः।
मान्यो मानयिता चेति स्माशीर्वादं प्रयुञ्जते॥३९॥

साथ ही साथ ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान तथा सत्य का अनुचरण करने वाला, श्रेष्ठ पुरुषों का मान करने वाला एवं माननीय पुरुष होगा। ऋषि गणों ने इस प्रकार आशीर्वचन कहे।

 

गोधनानि च रत्नानि ददौ स ब्राह्मणान् मुनिः। 
उत्सवश्व महानासीत् सूतमागधवन्दिनाम्॥४०॥

पुत्र जन्म के उत्सव के उस अवसर पर राजा वल्लभसेन ने प्रसन्न होकर मुनियों-महात्माओं, ब्राह्मणों को, गोधन तथा रत्न आदि से अलंकृत किया तथा सूत, मागध, वंदीजनों को यथा योग्य उचित पुरस्कार दिये।

 

अन्ये सर्वे जनाः प्राप्ताः लाभकौतुकवीक्षया। 
तेभ्यो रत्नानि वासांसि काञ्चनं प्रददौ बहु॥४१॥

अन्य समस्त जन समुदाय जो दर्शन लाभ तथा कौतुक देखने की इच्छा से वहाँ उपस्थित थे, राजा वल्लभसेन ने उन्हें, बहुत से रत्न, वस्त्र तथा स्वर्ण आदि भेंट किये।

 

अनुक्रमाद् वल्लभोऽपि विनयाढयैर्वचोऽमृतैः। 
सुहृत्सम्बधिनः सर्वांस्तोषयामास मानदः॥४२॥

तदनंतर, महाराज श्री वल्लभसेन ने यथाक्रम अपने संपूर्ण सुहृदयों तथा संबंधियों को हृदय से विनय पूर्वक एवं अमृत तुल्य, मधुर वचनों से परितुष्ट किया।

 

अतीत्यैकादशाहं तु नामकर्म तदाऽभवत्। 
अग्रसेनः इति प्रीतः पुरोधा नाम चाकरोत्॥४३॥

जन्म से ग्यारह दिन बीत जाने पर, उस बालक का नामकरण संस्कार किया गया, तब पुरोहित ने परम प्रसन्नता से उस बालक का 'अग्रसेन' यह नाम निश्चित किया (जो कि लग्न से भिन्न था)।

 

श्रुतेऽथ शस्त्रे शास्त्रे च परेषां जीवने तथा 
चक्रे धातोरर्थयोगाद् अग्रनाम्नाऽऽत्मसम्भवम्॥४४॥

उन्होंने यह विचार करके उस बालक का नाम 'अग्र' रखा कि - यह जीवन में संपूर्ण शस्त्रों एवं शास्त्रों से आगे चला जाएगा। अग्रगामी, आगे जाने के इस अर्थ को सिद्ध करने वाले, स्वरुप को दृष्टिगत रखते हुए "अग्र" नाम ही संभव (सार्थक) है।

 

प्राप्तो वृद्धिं यथा बालचन्द्रोऽसौ तु दिने दिने। 
तथा पितुः प्रयत्नात्स समग्रश्रीरजायत॥४५॥

जिस प्रकार 'बालचंद्र' (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चंद्रमा) प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है, उसी प्रकार बालक अग्रसेन भी ऐश्वर्यवान पिता की देख-रेख में क्रमशः निरंतर वृद्घि को प्राप्त होने लगे (बढ़ने लगे)।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
जन्मेदम् अग्रसेनस्य चेक्ष्वाकोः वंशवर्धनम्। 
यः श्रावयेद् पर्वकाले धन्यकीर्तिर्भवेन्नरः॥४६॥

 

इस प्रकार इक्ष्वाकु वंश की यह कीर्ति कथा तथा श्री अग्रसेन के जन्म का यह वृत्तांत जो विशेष पर्वों पर सुनता है, वह भाग्यशाली पुरुष परम कीर्ति को प्राप्त करता है।

 

॥ इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते प्रथमोऽध्यायः॥ 

॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।