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प्रथम अध्याय
उदय
मैं अन्तर्यामी नारायण भगवान श्रीहरि को, श्रेष्ठ प्रतिभापुरुष जिनका प्रेरणास्पद जीवन मानवमात्र का पथ प्रदर्शक है, ऐसे नरोत्तम श्री अग्रसेन को, तथा प्रभुनारायण की लीला कथाओं, एवं महामानवों की कर्म कथाओं के तत्त्वज्ञान को प्रकट करने वाली देवी सरस्वती को, महर्षि व्यास को तथा उनके प्रधान शिष्य जयभारत ग्रंथ के प्रणेता, महर्षि जैमिनी को नमस्कार करके मानव मात्र को सांसारिक माया पर विजय प्रदान कराने वाली, ऐतिहासिक गाथाओं का पठन पाठन करता हूं।
संत समागम के केंद्रस्थल – नैमिष्यारण्य में धर्मात्मा एवं कुलपति जिज्ञासु वृत्ती के शौनिक जी ने, लोमहर्षण सूतजी के पुत्र, जो सर्व शास्त्रों के विशेषज्ञ थे, उनसे सादर पूछा—
शौनिक जी ने कहा— हे सूतनन्दन। आपने हमें भरतवंश के चंद्रवंशी राजाओं तथा उसी प्रकार सूर्यकुल के इक्ष्वाकुवंश के श्रेष्ठ राजाओं के विशद कथावृत्तयुक्त आख्यान सुनाए हैं।
महर्षे! आपने अतिविचित्र कथा प्रसंगो तथा अद्भुत चमत्कारों से परिपूर्ण कर्मों की प्राचीन, तथा पुण्यप्रद कथाओं का अपनी मृदु वाणी से वर्णन किया है।
इसप्रकार, सूतनन्दन की प्रशस्ति करने के उपरांत, महाप्राज्ञ शौनिकजी ने, लोमहर्षण सूत के पुत्र, उग्रश्रवा जी से सादर निवेदन किया कि— आप कृपया हमें महाराजा श्री अग्रसेन के अद्भुत व लोककल्याणकारी कर्मो की कथा विस्तार पूर्वक सुनाइये—
सूतनन्दन ने कहा— हे शौनिक जी! व्यासजी के वेदवेत्ता परमशिष्य महर्षि जैमिनी जी ने, अशांत जनमेजय से, जिस प्रकार विस्तृत किया था, उन्हीं के बतलाये अनुसार, मैं कथा आरंभ करता हूँ। यह कथा श्री अग्रसेन जी की कीर्ति का विस्तार करने वाली है।
सदा स्वयं के ही भरण, पोषण तथा रक्षण में प्रयत्नशील, क्षुद्रवृत्ति वाले राजा तो सैकड़ों हैं, किन्तु परहित को ही, स्वहित मानने वाला यदि कोई है, तो वे हैं एकमेव – श्री अग्रसेन ही हैं।
हे महात्मन! इस प्राचीन इतिहास को एकाग्रचित्त होकर सुनिये। हे महाबाहो, श्री अग्रसेन की कर्मों कथा विस्तार पूर्वक कहना संभव नहीं अर्थात् अत्यंत विशद है।
सूत जी कहते हैं — कुरुकुल भूषण जनमेजय, अपने बीते हुए भयंकर अतीत का स्मरण करके क्षण भर भी शांति नहीं पाते थे उनका मन चिन्ता और शोक में डूबा हुआ था।
तब इस प्रकार अमर्ष से भरे हुए, चिन्ता से क्रुद्ध, परिक्षित् कुमार राजा जनमेजय से महर्षि व्यास के परम शिष्य, वेदज्ञ, महर्षि जैमिनी ने यह बात कही -
जैमिनी जी ने कहा— हे महाराजा जनमेजय! आपने अमर्ष पूर्वक नागों से अपने बैर का बदला चुका लिया, किन्तु हे राजन्! क्रोध करने से बैर की अग्नि कभी शांत नहीं होती।
हे जनमेजय! यज्ञ में कोई छिद्र पाकर इन्द्र ने तुम्हारे लिये जिस प्रकार विघ्न उपस्थित किया था, जो कि तुम्हारा केवल भ्रम था, जिससे अमर्ष के वशीभूत होकर आपने इन्द्र को श्राप देकर उन्हें भ्रष्ट कर दिया।
हे धर्मज्ञ राजन् ! इस तरह कुपित होकर, आपके द्वारा रानी वपुष्टमा का परित्याग कर देने से तथा क्रोध के वशीभूत आपके द्वारा ऋत्विजों तथा द्विजों को अपमानित किये जाने से, आपका यश किस प्रकार बढ़ गया? अर्थात् कम ही हुआ है।
हे धर्मज्ञ जनमेजय! आपने रोष उत्पन्न होने के कारण, यह कैसा अनर्थ किया? आपने यह कैसा अनीति पूर्ण व्यवहार किया? अपने ही गुरुजनों – अर्जुन के जनक आपके प्रपितामह इन्द्र को तथा जिन्होंने यज्ञ कराए, उन ॠत्विजों को तुमने शाप दे दिया। तुमने विचार भी नहीं किया कि इन्द्र भला प्रपोत्र वधु के साथ बलात्कार कैसे कर सकते हैं? कदापि नहीं कर सकते।
हे जनमेजय! आप तो धर्म को जानने वाले धर्मज्ञ हो, आपके द्वारा इस प्रकार इन्द्र के प्रति निर्मूल शंका ग्रस्त होकर, बिना यह विचार किये कि इन्द्र आपके प्रपितामह हैं, उन्हे श्राप देना। उन यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों का क्या दोष था? अपने उन गुरुजनों को आपके द्वारा अपमानित कर प्रताड़ित किया जाना एवं पतिव्रता रानी वपुष्टमा के प्रति भ्रम के वशीभूत हो, शंकाग्रस्त होकर धर्मपरायण पत्नी का तिरस्कार कर उसे घर से निकाल देना, ऐसे सर्वथा दुर्लक्षणीय दोष पूर्ण कृत्य आपके द्वारा किस लिये किए गए?
हे महाप्राज्ञ जनमेजय! जैसे— जल के प्रवाह के प्रतिकूल तैरना कठिन होता है, यह सच है कि उसी प्रकार देवकृत भाग्य से पार पाना कठिन अवश्य है। तथापि धीरमना पुरुष देवों द्वारा विघ्न उपस्थित किये जाने पर भी, धैर्य का कदापि परित्याग नहीं करते अपितु धैर्य धारण करके ही उन बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, बाधाओं से मुक्ति पाई जा सकती है।
इसलिए हे जनमेजय! तुम्हे यह विदित होना ही चाहिये कि "क्रोध का परित्याग ही महान धर्म है" तथा क्रोध का मार्जन ही स्वर्ग तथा सुख का सर्वोत्तम आधार है।
अतः हे कुरुश्रेष्ठ! जनमेजय! तुम अब शोक न करो। क्योंकि हे परंतप! तुम्हारे जैसे महात्मा पुरुष कभी शोक नहीं करते।
हे जनमेजय! जैसे समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले वणिक के लिये, जहाज की आवश्यकता होती है, उसके लिये जहाज ही एकमेव आश्रय होता है, उसी तरह स्वर्ग की कामना करने वालों के लिये, शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित धर्म का आचरण ही जहाज है, दूसरा अन्य कोई आधार नहीं।
अतः हे महात्मन! जनमेजय! तुम्हे अग्रसेन के परम पुण्यप्रदायी इतिहास को एकाग्रचित्त होकर सुनना चाहिये। महाराजा श्री अग्रसेन के कर्मों की कथा, विस्तार से कहना संभव नहीं है। क्योंकि श्री अग्रसेन के पावन कर्मों की अत्यंत विशद है।
हे राजन! श्री अग्रसेन जी ने, अनेकों अतिदिव्य चारों—पुरुषार्थ से परिपूर्ण, कर्म किए हैं। उनके उन अद्भुत कार्यों के विचित्र कथा प्रसंग, मानव लोक के लिये अत्यंत हितकारी व परम कल्याणकारी हैं।
हे अनघ ! उन (श्री अग्रसेन जी) के विषय में, आप यदि सुनना चाहें तो ही मैं उस (गूढ़) विषय में तुम्हे बताऊंगा। हे जनमेजय! मैं तुम्हें ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति (श्री अग्रसेन) का परिचय दूंगा, इस पृथ्वी पर अभी जो राजा हैं, उनमें श्री अग्रसेन अत्यन्त श्रेष्ठ व महानतम राजा हैं।
सम्राट् जनमेजय ने कहा— हे महामुने! ऐसे महान राजा श्री अग्रसेन जी के पुण्य कर्मों की कथा, मुझ धर्मच्युत की, धर्म प्राप्ति की इच्छा को दृष्टिगत रखते हुए अवश्य कहिये। मैं आपसे सादर निवेदन करता हूँ कि मुझ जिज्ञासु को श्री अग्रसेन जी के पुरुषार्थ की कथा विस्तार पूर्वक सुनाइयेगा।
जैमिनी जी ने कहा— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! आप तो जानते ही हैं इक्ष्वाकुकुल आदिवंश के रूप में विख्यात है, जो कि परम विशुद्ध एवं सात्त्विक वंश माना गया है। इस वंश के किसी एक का भी विस्तार से वर्णन वर्षों में भी संभव नहीं है। (ज्ञातव्य है कि इक्ष्वाकुकुल में अनेकों पुण्यकर्मा महापुरुष हुए हैं, जिनके प्रेरणास्पद जीवन की कथाओं का, पृथक् पृथक् अनेकों आख्यानों, उपाख्यानों तथा पुराणों मे विस्तार पूर्वक विश्लेषण उपलब्ध हैं।)
महाराजा इक्ष्वाकु के इसी कुल में महाराजा माधान्ता, महाराजा दिलीप, भगीरथ, कुकुत्स्य, महाराजा मरूत्त, महाराजा रघु, भगवान् श्री राम आदि अनेकों कीर्तिवन्त राजा हुए हैं। (जिनकी कथाएँ जन जन में पुण्य-स्मरण स्वरूप विद्यमान है।)
इसी सूर्यकुल में महाराजा अग्निवर्ण के, दैवपुत्रों के सदृश्य पांच पुत्र हुए, जिनमें से तीन पुत्रों ने अपने वंश का विस्तार किया। तथा वे सूर्यकुल की कुल कीर्ति बढ़ाने वाले हुए।
महाराजा विश्वसाह के पुत्र प्रसेनजित हुए, जिन्होंने एक अजेय पुरी का निर्माण करवाया। प्रसेनजित के प्रतापी पुत्र वृहत्सेन हुए।
वज्रनाभ के कुल में, जिस प्रकार महाराजा मरु के पुत्र बृहद्वल हुए। उसी प्रकार वृहत्सेन के कुल में राजा वल्लभसेन उत्पन्न हुए।
सूर्यकुल में उद्भूत महाराज श्री वल्लभसेन प्रतापपुर के राजा (नायक) थे। प्रतापपुर उन्नीस गांवो का वह देश था, जिस पर राजा श्री वल्ल्भसेन उस समय राज्य करते थे।
प्रतापपुर नामक वह पुरी, ऊंचे टीलों पर बने हुए सुन्दर प्राकारों, (परकोटों) से अलंकृत सूर्य की प्रभा के समान प्रतीत होती थी, जो कि तीन दिशाओं में नदी से आवृत थी (तीन ओर से नदी ने घेर रखा था) जिसे लांघना अत्यंत कठिन था, अतः वह दूसरों के लिये दुर्गम थी।
मेधावी राजा वल्लभसेन, अपने राज्य प्रतापपुर की प्रजा का विधिवत पालन करते थे। उनकी धर्मपत्नी विदर्भकन्या 'भगवती' के नाम से विख्यात थीं।
राजा वल्लभसेन से महारानी भगवती को, चंद्रमा के समान कांतिवान, मनुष्यों मे अग्रगण्य, एक वंशकर (अपनी विशिष्टताओं से युक्त, शास्त्रानुकूल वंश व्यवस्था की संरचना करने वाला – जिसके नाम से वंशजों को जाना जाए, ऐसा) पुत्र उत्पन्न हुआ।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा तिथि को, रविवार के शुभ दिन, महेन्द्र (श्रेष्ठकाल) समय के शुभ मुहुर्त में, इस अत्यंत भाग्यशाली बालक ने जन्म लिया।
जन्म काल के समय हस्त नक्षत्र था, तदानुरुप कन्या लग्न। जिस पर सूर्य व चंद्र विराजमान हैं। गुरु पुष्यनक्षत्र का भोग कर रहे हैं, बुध स्वाती नक्षत्र में, मंगल अनुराधा तथा शुक्र रोहिणी नक्षत्र में, विराजमान हैं।
जब श्री अग्रसेन ने, गर्भ के बंधन से मोक्ष पाकर, धरा पर जन्म लिया, तब सूर्यपुत्र शनि स्वाति नक्षत्र पर, और राहू की सर्पाकार छवि ने मानो मृग (मृगशिरा नक्षत्र) को जकड़ लिया हो।
उस बालक के दर्शन की लालसा से, श्रेष्ठीजन तथा जन समुदाय वहाँ आ पहुँचा। इन सबसे घिरे हुए स्वयं महाराज वल्लभसेन महामुनि के साथ वहाँ आ पहुँचे।
उस नवजात बालक तथा जन्मदात्री विदर्भसुता महारानी 'भगवती' की, बंदी, सूत तथा मागधगण स्तुति-प्रशंसा कर रहे थे। उस समय सभी लोग हर्षित होकर तरह-तरह की चेष्टाएँ करने लगे।
उस बालक को देखकर ऋषिगणों ने कहा — यह बालक निश्चित ही महान यश को प्राप्त करेगा। श्री महालक्ष्मी जी की कृपा से संपन्न होकर यह बालक, दानशील तथा क्षमाशील, मानव श्रेष्ठ तथा कीर्तिवान् राजा होगा।
साथ ही साथ ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान तथा सत्य का अनुचरण करने वाला, श्रेष्ठ पुरुषों का मान करने वाला एवं माननीय पुरुष होगा। ऋषि गणों ने इस प्रकार आशीर्वचन कहे।
पुत्र जन्म के उत्सव के उस अवसर पर राजा वल्लभसेन ने प्रसन्न होकर मुनियों-महात्माओं, ब्राह्मणों को, गोधन तथा रत्न आदि से अलंकृत किया तथा सूत, मागध, वंदीजनों को यथा योग्य उचित पुरस्कार दिये।
अन्य समस्त जन समुदाय जो दर्शन लाभ तथा कौतुक देखने की इच्छा से वहाँ उपस्थित थे, राजा वल्लभसेन ने उन्हें, बहुत से रत्न, वस्त्र तथा स्वर्ण आदि भेंट किये।
तदनंतर, महाराज श्री वल्लभसेन ने यथाक्रम अपने संपूर्ण सुहृदयों तथा संबंधियों को हृदय से विनय पूर्वक एवं अमृत तुल्य, मधुर वचनों से परितुष्ट किया।
जन्म से ग्यारह दिन बीत जाने पर, उस बालक का नामकरण संस्कार किया गया, तब पुरोहित ने परम प्रसन्नता से उस बालक का 'अग्रसेन' यह नाम निश्चित किया (जो कि लग्न से भिन्न था)।
उन्होंने यह विचार करके उस बालक का नाम 'अग्र' रखा कि - यह जीवन में संपूर्ण शस्त्रों एवं शास्त्रों से आगे चला जाएगा। अग्रगामी, आगे जाने के इस अर्थ को सिद्ध करने वाले, स्वरुप को दृष्टिगत रखते हुए "अग्र" नाम ही संभव (सार्थक) है।
जिस प्रकार 'बालचंद्र' (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चंद्रमा) प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है, उसी प्रकार बालक अग्रसेन भी ऐश्वर्यवान पिता की देख-रेख में क्रमशः निरंतर वृद्घि को प्राप्त होने लगे (बढ़ने लगे)।
इस प्रकार इक्ष्वाकु वंश की यह कीर्ति कथा तथा श्री अग्रसेन के जन्म का यह वृत्तांत जो विशेष पर्वों पर सुनता है, वह भाग्यशाली पुरुष परम कीर्ति को प्राप्त करता है।
॥ इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते प्रथमोऽध्यायः॥
॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।