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श्री अग्र भागवत

 

बारहवाँ अध्याय

 

अनुराग

 

॥जैमिनिरुवाच॥
महीधरस्य महिषी नागेन्द्रीति सुमध्यमा। 
प्रासूत माधवीं कन्यां सुन्दरीं धर्मतत्पराम्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— जनमेजय! नागराज महीधर की परम सुन्दरी रानी थी, उस सुन्दर कटिवाली रानी का नाम था 'नागेन्द्री'। धर्म में सदैव तत्पर रहने वाली, उस नागेन्द्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम था– 'माधवी'।

 

सर्वलक्षणसम्पन्ना सा लोके पुरसुन्दरी। 
वर्धमाना पितृगृहे रूपिणी बन्धुपूजिता॥२॥

वह कन्या नागलोंक की परम सुन्दरी थी, समस्त शुभ गुणों से संपन्न धर्मपरायण नागसुता माधवी बन्धु बान्धवों से सत्कृत होकर पिता के घर नित्य पल बढ़ रही थी।

 

अतीव रूपसम्पन्नां त्रैलोक्यस्यापि मोहिनीम्। 
महीधरस्तु तां वीक्ष्य कालेन कियता सुताम्॥३॥

अत्यन्त रूपवती होने के कारण वह कन्या तीनों लोकों (देव, नाग, नर) को विमोहित कर रही थी। एक दिन नागराज महीधर अपनी उस सुन्दर कन्या को विवाह के योग्य हुई देखकर विचार करने लगे।

 

कस्मै प्रदेया कन्येयमिति चिन्तापरोऽभवत्। 
स्वयंवरां तां प्रपच्छ भर्ता कस्ते तु रोचते॥४॥

वे चिन्ता में पड़ गए कि वे इस गुणवती, परमसुंदरी, कन्या को किस योग्य पुरुष को समर्पित करें। तब उन्होंने कन्या की इच्छा जानने की दृष्टि से उस स्वयंवरा (स्वयं वर का चयन करने वाली—ज्ञातव्य है कि नाग संस्कृति के अनुसार कन्या स्वयं अपने योग्य वर का चयन करती थीं।) कन्या से पूछा—हे पुत्री! तुम्हे कैसा पति रुचिकर है?

 

॥महीधर उवाच॥
पन्नगाः पन्नगसुताः सन्ति पुत्रि सहस्रशः। 
पट्टस्थान् पश्य वीरास्तांस्ततो ब्रूहि स्ववल्लभम्॥५॥

तब नागराज महीधर ने कहा—पुत्री! इस नागलोक में सहस्त्रों पन्नग तथा नागपुत्र हैं। चित्रपटों में विराजमान विशिष्ट वीर नागों की ओर तुम दृष्टिपात कर लो, फिर उनमें तुम्हें जो प्रिय लगे बता देना।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
तं प्रत्युवाच पितरं माधव्यथ विलज्जिता।

जैमिनी जी कहते हैं—पिता नागराज द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर नारी स्वभाव के अनुरुप ही माधवीजी यह सुनकर लज्जित हो गई। फिर वह अपने पिता नागराज को प्रति उत्तर देती हुई कहने लगीं—

 

॥माधवी उवाच॥
न पन्नगं कामयेऽहं गरलावेष्टितं जनम्॥६॥

माधवी जी ने कहा—हे पिताश्री! मैं नागों में किसी को भी अपना पति नहीं बनाना चाहती। क्योंकि वे सभी विषादि रसायनों को सिद्ध कर मोह ग्रसित हो चुके हैं।

 

॥महीधर उवाच॥
देवराजं महाबाहुं वरं वरय शोभने। 
आगमिष्यति लोकेऽत्र कामिनीकामुकः स्वयम्॥७॥

नागराज महीधर ने कहा—शोभने! यदि तुम्हें नागों के प्रति रुचि नहीं तो तुम देवताओं के राजा महाबाहु इन्द्रका पति के रुप में वरण कर लो। वे तो कमनीय नारियों के प्रति सदैव कामुक रहते हैं। तो स्वयं ही तुम्हें प्राप्त करने के लिए इस लोक में चले आएंगे।

 

॥जैमिनिरुवाच॥ 
पितृवाक्यं समाकर्ण्य माधवी च तमब्रवीत्।

जैमिनी जी कहते हैं—पिता के इस तरह वचनों को सुनकर माधवी जी कहने लगी—

 

॥माधवी उवाच॥ 
इन्द्रं न कामये तात सर्वदोषस्य कारणम्॥८॥

माधवी जी ने कहा— हे पिताश्री! मुझे इन्द्र की कदापि कामना नहीं है; क्योंकि वे तो सारे दोषों के कारण हैं।

 

परोदयं न सहते तपोदानादिसाधितम्। 
देवराजो गौतमस्य प्रियां कामयते स्म सः॥९॥

वे तपस्या और दान के फल स्वरूप प्राप्त होने वाली दूसरों की उन्नति भी नहीं सह पाते पिताश्री! ज्ञात है— देवराज ने ही तो महर्षि गौतम की प्रियतमा पत्नी 'अहिल्या' की कामना की थी।

 

पदं यस्मान्महत् प्राप्तं कृतघ्नः किल वासवः। 
मानुषं तु वरं तात मम योग्यं विचिन्तय॥१०॥

ऐसे कृतघ्न इन्द्र को भला कौन नारी अपना पति बनाना चाहेगी? हे पिताश्री! मनुष्य (वैष्णव) ही श्रेष्ठ हैं, इनमें ही आप मेरे योग्य किसी का विचार कीजियेगा।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
एवंविधं वचः श्रुत्वा विस्मितोऽभून्महाबलः।

जैमिनी जी कहते हैं-—जनमेजय! माधवी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर महाबली नागराज महीधर आश्यर्च चकित हो गए।

 

॥महीधर उवाच॥ 
मानुषं न वरं मन्ये, वैष्णवं दोषभाजनम्॥११॥

महीधर ने कहा—पुत्री! तुम वैष्णवों को किस प्रकार श्रेष्ठ कहती हो, वे तो लोभी तथा सभी प्रकार के दोषों से युक्त होते हैं।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
माधवी तत् समाकर्ण्य वचस्तस्य रुषाऽन्विता
कदाचिन्नागकन्या सा रतिं हसति या श्रिया॥१२॥

जैमिनी जी कहते हैं—इसप्रकार नागराज के वचनों को सुनकर माधवीजी बिना कुछ कहे वहाँ से चली गईं। नागराज महीधर की वह कन्या अपनी दिव्य कांतिमयी शोभा से रति का भी उपहास करती प्रतीत होती थी।

 

महीधरसुता माता जग्मतुः परिवारिते। 
तदा वसन्ते पुष्पाढ्यं पुरोपवनमुत्तमम्॥१३॥

तब नागराज कन्या माधवीजी सौ कन्याओं से घिरी हुई मणिपुर के उत्तम उपवन में विहार करने के लिए गई, जो वसंत के आगमन के कारण नए-नए खिले हुए पुष्पों से पूरित था।

 

पुष्पावचयमिच्छन्त्यः ययुः सर्वाश्चः कन्यकाः। 
सार्धपञ्चदशाब्दास्ता यौवनोद्भेदचञ्चलाः॥१४॥

वे सभी षोडशी कन्याएँ तब वहाँ पुष्प चयन करने की इच्छा करने लगीं। उनकी अवस्था साढ़े पंद्रह वर्ष की थी और यौवन की समीपता के कारण उनमें चंचलता प्रकट हो रही थी।

 

कौसुम्भाम्बरधारिण्यः स्फुरत्कञ्चुकपल्लवाः।
नानाबिल्वफलाभाभ्यां स्तनाभ्यां समलङ्कृताः॥१५॥

राजन्! उनके शरीर पर, कुसुम्भी रंग के वस्त्र शोभा पा रहे थे। और नव बिल्व फलों के समान उभरे हुए स्तनों से अलंकृत उनकी चोली के ऊपर का आंचल हवा में उड़ रहा था।

 

रम्यमौक्तिकहारैश्च मण्डितास्ताः शनैर्ययुः। 
नृत्यन्त्यो नूपुररवैस्तालिकाशब्द‌कैः पथि॥१६॥

सुन्दर मोतियों के हारों से विभूषित ऐसे उरोजों वाली वे नागकन्याएँ मार्ग में ताली बजाती हुई और पायल की झनकार के अनुकूल धीरे धीरे मटक मटक कर चल रही थीं।

 

गायन्त्यः स्म हसन्त्यः स्म प्रापुः क्रीडावनं महत्।
परस्परं हसन्त्यस्ताः प्राकुर्वन् पुष्पसञ्चयम्॥१७॥

वे हसंती हुई, गाती हुई, परस्पर हास-परिहास करती हुई, पुष्प संचय करते हुए क्रीड़ा वन में आ पहुँची।

 

अथ पुष्पाण्युपादाय शिरस्याधाय निद्रिताम्। 
पुष्पावचित्त्या स्विन्नङ्गीं प्राहुर्नागेन्द्रजां हि ताः॥१८॥

तदनंतर जब पुष्प चयन करते करते श्रम के कारण वे थक गई और नागराजकुमारी माधवी जी का शरीर पसीने से युक्त हो गया, तो वे संचित फूलों के ढ़ेर को सिरहाने रख कर आलस्य वश उसी पर लेट गई, उस समय एक सखी ने नागेन्द्रसुता से कहा—

 

॥सख्य ऊचुः॥
भक्त्या प्रादुरभूतां ते स्वप्नं दत्वा रतिस्मरौ 
कञ्चित् प्रार्थय पूजार्थमनयोर्लिङ्गयोः सखि॥१९॥

तब एक सखी ने विनोद करते हुए कहा—

हे रूपसी! तेरी भक्ति से संतुष्ट होकर ही तुझे इस आशय का स्वप्न देकर, वे दोंनो (रति और कामदेव) इस समय तेरे वक्षःस्थल पर प्रकट हुए है; अतः तू इन्हें उनका प्रतीक मानकर इनकी पूजा के लिए किसी पूजक की प्राप्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना कर।

 

दृष्ट्वाऽऽगताः समालोक्य रूपयौवनसंयुताः। 
कन्यां तां गुणसम्पन्नामिद‌मिन्द्रो वचोऽब्रवीत्॥२०॥

तभी सहसा इन्द्र ने वहाँ आकर उन रूप तथा यौवन से संयुक्त सभी नाग कन्याओं को देखा और गुणसंपन्न उस नागकन्या माधवी जी से देवराज इन्द्र कहने लगे—

 

॥शक्रः उवाच॥
अहं वः कामये सर्वा भार्या मम भविष्यथ। 
त्यज्यतां पान्नगो भावो दीर्घमायुरवाप्स्यथ॥२१॥

इन्द्र ने कहा—हे सुन्दरियों! मैं तुम सबको अपनी पत्नियों के रूप में प्राप्त करने की कामना करता हूँ, आप सभी अपने नागभाव को त्यागिये और देवांगनाओं की भांति मुझे अंगीकार करके दीर्घ आयुष्य को प्राप्त कीजिए।

 

चलं हि यौवनं नित्यं नरे नागे विशेषतः। 
अक्षयं यौवनं प्राप्ता अमर्यश्च भविष्यथ॥२२॥

सुन्दरियों! विशेषतः नर और नागों का यौवन, नित्य ही चलायमान रहता है, अर्थात् धीरे-धीरे यौवन ढल जाता है, यौवन की क्षीणता सौंदर्य को ग्रस लेती है। हे नागकन्याओं! तुम मुझे वरण कर अक्षय यौवन को प्राप्त करोगी। अमर हो जाओगी।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा शक्रं तं सुरसत्तमम्। 
अपहास्य ततो वाक्यं नागकन्येद‌मब्रवीत्॥२३॥

जैमिनी जी कहते हैं— तब सुरश्रेष्ठ इन्द्र के वचनों को सुनकर उनके वचनों का उपहास करती हुई नाग राजकन्या माधवी ने इस प्रकार कहा—

 

॥माधवी उवाच॥
मा भूत् स कालो दुर्मेधः भर्ताऽन्यो नो भविष्यति।

माधवी जी ने कहा— हे देवेन्द्र! मैं भले ही मर जाऊँ; किन्तु तुम्हें तो क्या, मैं किसी भी देवता को अपने पति के रुप में वरण नहीं करूँगी।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा शक्रः कोपमुपेयिवान्॥२४॥

जैमिनी जी कहते हैं— नागसुता माधवी के इसप्रकार वचनों को सुनकर देवराज इन्द्र कुपित होकर वहाँ से चले गए।

 

॥सख्य ऊचुः॥
अलं पुष्पवनेनाद्य सन्तप्ता इन्द्रतो वयम्। 
यामः शीतजलं यत्र तत् सरः कमलाकरम्॥२५॥

तब एक सखी ने कहा— हे सखि! इन्द्र के वचनों से हम सभी संतप्त हो गई हैं; अतः अब इस पुष्प वन से कमलों से परिपूर्ण शीतल जल वाले उस सरोवर की ओर हमें चलना चाहिए।

 

॥जैमिनिरुवाच॥
एवं तास्तत्सरः प्रापुः पद्मिनीखण्डमण्डितम्। 
हंसा भीताः पलायन्त नुपुरश्रवणाद् वनात्॥२६॥

जैमिनी जी कहते हैं—यों क्रीड़ा करती हुई वे नागकन्याएँ कमलिनी के समूहों से सुशोभित उस सरोवर पर जा पहुँची। उस समय उनके नूपुरों की झनकार सुनकर हंस भयभीत होकर उस कमल वन से भाग खड़े हुए।

 

अस्माकं मानसोल्लासि सरः कलुषितं भवेत्। 
पुष्पवत्यो विशेषेण कन्या आयान्ति कामुकाः॥२७॥

मानों उन हंसो ने यह विचार किया हो कि ये कमनीय नागकन्याएँ, बहुत से पुष्प लिये जलक्रीड़ा करने के लिए यहाँ आ रहीं हैं, जिससे हमारे मन में उल्हास उत्पन्न करने वाला यह सरोवर (गंदला) कलुषित हो जायगा।

 

सरस्तीरे दुकूलानि नेतुं न क्षमतेऽनिलः। 
तासां गुणमयैः पाशैर्बद्धो निश्चलतां ययौ॥२८॥

उस सरोवर के तट पर पहुँचकर, जब वे नागकन्याएँ अपने रेशमी तथा सूती वस्त्र उतारने लगीं, तो उन वस्त्रों से सिकुड़ने के कारण मरमराहट की आवाज उत्पन्न होने लगी।

 

सूक्ष्माण्यपि दुकू‌लानि नेतुं न क्षमतेऽनिलः। 
तासां गुणमयैः पाशैर्बद्धो निश्चलतां ययौ॥२९॥

उस समय पवन नागकन्याओं के उन अति महीन वस्त्रों को भी उड़ाने में समर्थ नहीं हो सका। जैमिनी जी कहते हैं—मानो उन कन्याओं के गुणमयी पाशों में बंधे होने के कारण जैसे वे निश्चलता को धारण कर लिये हों।

 

ताश्चम्पकाङ्ग‌यो विविशुस्तत्सरः शिवलीलया। 
परस्परं हाससूक्तीश्चक्रुस्ता अभितः सरः॥३०॥

 

तदनंतर चंपा के समान गौरवर्ण वाली वे नागकन्याएँ आनन्द पूर्वक क्रीड़ा करने की इच्छा से उस सरोवर में उतर पड़ीं। उस सरोवर के जल में चारों ओर घूम घूम कर क्रीड़ा करती हुई वे परस्पर हास युक्त बातें करने लगीं।

 

अनन्तश्रीधरं तासां मुखचन्द्रैरलङ्कृतम्। 
तत्सरः शुशुभेऽतीव रत्नाकरनिभं स्फुटम्॥३१॥

उन नागकन्याओं के मुख रुपी चंद्रमाओं से अंलकृत होने के कारण वह सरोवर अनन्त शोभा से संपन्न हो गया। और तब वह सरोवर इन रत्नों को धारण कर मानो रत्नाकर की शोभा पाने लगा।

 

ततो हि जलपानार्थं गावो वत्ससमाकुलाः।
परिवव्रुः सरस्तत्र सवृषाश्च समन्ततः॥३२॥

तभी जल पीने के लिये सांडों सहित गायों तथा बछड़ों का समूह वहाँ आ पहुँचा और सरोवर को घेर लिया।

 

ततस्स कोऽपि व्याघ्रश्च घोरनादो बभूव ह। 
तेनाकम्पन्त वत्साश्च गावः श्रान्तास्तथाऽऽतुराः॥३३॥

उसी समय कोई हिंसक व्याघ्र (सिंह) भयावह घोरनाद करता हुआ वहाँ आ पहुँचा। जिसकी भीषण गर्जना से गायें बछडों के साथ ही शांत हो गईं और भयातुर होकर कांपने लगीं।

 

स दृष्ट्वा चिन्तयित्वाऽग्रः सद्यः सत्यपराक्रमः।
श्रेष्ठो धनुष्मतां वीरो दयाभावसमीरितः॥३४॥

यह देखकर (वहाँ विश्रांति कर रहे) सत्य सरंक्षक, पराक्रमी तथा श्रेष्ठ धनुर्धर वीर श्री अग्रसेन का हृदय दया भाव से भर गया और पीड़ित मन से वे गौकुल के सरंक्षण हेतु विचार करने लगे।

 

ररक्ष विधिना गाश्च बाणैर्व्याघ्रमताडयत्। 
शरसंनिचयस्थोऽयं तं गावः पर्यवारयन्॥३५॥

और तब श्री अग्रसेन ने उन गायों की रक्षा की भावना से संरक्ष्य विधि से इसप्रकार बाण चलाए कि व्याघ्र के चारों ओर बाणों के समूह का घेरा खड़ा कर दिया, और सहसा आए इस संकट से सब को (गोकुल, नाग कन्याएँ व सिंह भी) मुक्त कर दिया।

 

ज्ञातव्य—'अहिंसा' दयाभाव तथा जीवमात्र के प्रति ममता का ऐसा उदाहरण सकल सृष्टि में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं। हिंसक जीव की भी हिंसा ना करते हुए उसे केवल अवरुद्ध करके उसके प्रति भी दया भाव दर्शाने वाले 'महाराजा अग्रसेन' का यह अद्भुत कर्म मानवता का परम पोषक है एवं सकल मानवमात्र का मार्गदर्शक भी। वस्तुतः श्री अग्रसेन जी का यह उपक्रम जीवमात्र के प्रति उनकी न केवल सहानुभूति, अपितु समानानुभूति का भी अनुपम व दिव्य उदाहरण है।

 

परित्रातं गोधनं तद् अतिदिव्यं कृतं प्रियम्।
समग्रं वैष्णवं तेजो विनिगूहति तत्र वै॥३६॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार गौवंश को परित्राण दिलानेवाला यह कृत्य अत्यन्त दिव्यता पूर्ण तथा प्रीति उत्पन्न करने वाला था, जिसने श्री अग्रसेन के वैष्णव तेज को प्रकट किया। और... देखते ही देखते उन्हें नागराज कन्या का प्रिय बना दिया।

 

तां विहाय जलकेलिमुत्तमां
सा महीधरसुता तटस्थिता।
अन्ववैक्षत हरिं यथा रमा
साऽग्रसेनमथ तत्सरस्तटे॥३७॥

उस उत्तम जलक्रीड़ा से निवृत्त होकर तट पर आगत नागराज महीधर की सुकन्या माधवी सरोवर के किनारे स्थित श्री अग्रसेन के इस अद‌्भुत, प्रियंकर कृत्य से इस प्रकार अभिभूत हो गई कि वे निर्निमेष टकटकी लगाकर उन्हें उसी प्रकार निहार रहीं थीं, जैसे जगदम्बा रमा भगवान् विष्णु को निहार रही हों।

 

अग्रसेनं गुणनिधिं पश्यन्ती निश्चलं स्थिता।
पतिवत् माधवी तं हि दत्तदृष्टिरवैक्षत॥३८॥

नागसुता माधवी जी गुण के सागर श्री अग्रसेन को देखकर निश्चल खड़ी रह गईं, तथा मन ही मन उन्हें अपने पति के रूप में निश्चय कर उन्हें एकटक निहारने लगीं।

 

किं न याम्यथवा यामि सुन्दरं पुरुषं विना। 
अमुं विवेकं मदनस्तदीयं व्यालुनाच्छरैः॥३९॥

इस उपवन में इस सुन्दर पुरुष (बाह्य सुन्दरता—अत्यन्त रूपवान, आंतरिक सुन्दरता—जो कि श्री अग्रसेन के इस कृत्य से झलकी) के निकट मैं जाऊँ या न जाऊँ? (मन ही मन तर्क वितर्क करती हुई माधवी जी इस प्रकार विचार कर रहीं थीं) कि कामदेव के बाणों ने उनके विवेक को छिन्न भिन्न कर दिया।

 

ततो ददर्श रुचिरं मनोहरमतीव सः। 
पूजयामास नेत्रं स्वम् अग्रोप्यत्यन्तहर्षितः॥४०॥

तभी अचानक श्री अग्रसेन अपनी ओर दृष्टिपात करती हुई उस अतीव मनोहारी नागसुन्दरी को देखकर विस्मित हो गये और अत्यन्त हर्षित मन से वे उन (माधवी जी) की आँखों में उनके हृदय को पढ़ने लगे।

 

अदृष्टपूर्वो देशोऽयं निशि स्वप्ने व्यलोकयम्। 
न दृष्टा हीदृशी स्वप्ने कान्ता सा कामरूपिणी॥४१॥

(आँखे परस्पर मिलते ही वे सोचने लगे) अरे! ऐसा मनोहर देश ओर ऐसी कामरूपिणी कन्या मैंने कभी पहले स्वप्न में भी नहीं देखी। यह सब तो निशा-स्वप्न की भाँति प्रतीत हो रहा है।

 

पुनः पुनरपश्यत्ताम् अग्रसेनः स्ववल्लभाम्। 
निर्निमेष नृहर्यक्षं नागकन्याऽप्यवीक्षत॥४२॥

वे (माधवी जी) बारंबार (मन में सुनिश्चित) अपने प्राण वल्लभ श्री अग्रसेन की ओर निहारतीं। अन्य नाग कन्याएँ भी अपलक उन पुरुष सिंह को निहारने लगीं।

 

पतिं तं स्वं प्रार्थयन्तं हृष्टा सा प्रियदर्शनात्।
निश्चलोऽभूत् स सा चापि पश्यन्ती प्राणवल्लभम्॥४३॥

नागराज सुता माधवी जी अपने प्रिय प्राणवल्लभ का अपलक दर्शन कर प्रसन्नता से विमुग्ध हुई जा रही थीं। साथ ही मन ही मन (देवी से मनोकामना पूर्ती हेतु) प्रार्थना करने लगीं।

 

ध्यायन्ती मनसा देवीं पार्वतीं शङ्करप्रियाम्। 
भर्तारं देहि मे देवि दाक्षायणि नमोऽस्तु ते॥४४॥

मन ही मन भगवान् शंकर प्रिया पार्वती जी का ध्यान करती हुई वे प्रार्थना करने लगीं—हे दक्षकुमारी! मैं आपको नमन करती हूँ! हे देवी! आप मुझे इन्हें ही पति के रूप में प्रदान कीजिएगा।

 

इति सञ्चिन्तयन्तीं तां वयस्या काचिदब्रवीत्। 
मनोरथस्ते किं जातः किं चिन्तयसि कामिनि॥४५॥

देवी माधवी इस प्रकार देवी का चिन्तन कर रही थीं, तभी कोई सखी पूछ बैठी— हे कामिनी! तेरे हृदय में क्या इच्छा जागृत हो गई है? तू क्या सोच रही है सखी?

 

इत्थं सखीनां वचनेन पन्नगी 
प्रहर्षिताऽधोवदना लिलेख। 
भूमिं यदाऽङ्गुष्ठनखेन भर्तुः 
गुणानिवाग्य्रान् अथ माधवीति॥४६॥

सखियों की ऐसी बातें सुनकर नागसुन्दरी माधवी जी परम प्रसन्न हुई और लज्जा से उनका मुख अवनत हो गया। तदनंतर वह विनीता पैर के अंगूठे के नख से पृथ्वी को इस प्रकार कुरेदने लगी, मानो अपने प्रियतम के गुणों को लिख रही हों।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अद्योपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीम‌द्ग्रभागवते द्वाद‌शोऽध्यायः॥१२॥ 
॥शुभं भवतु कल्याणम् ॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।