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श्री अग्र भागवत
बारहवाँ अध्याय
अनुराग
जैमिनी जी कहते हैं— जनमेजय! नागराज महीधर की परम सुन्दरी रानी थी, उस सुन्दर कटिवाली रानी का नाम था 'नागेन्द्री'। धर्म में सदैव तत्पर रहने वाली, उस नागेन्द्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम था– 'माधवी'।
वह कन्या नागलोंक की परम सुन्दरी थी, समस्त शुभ गुणों से संपन्न धर्मपरायण नागसुता माधवी बन्धु बान्धवों से सत्कृत होकर पिता के घर नित्य पल बढ़ रही थी।
अत्यन्त रूपवती होने के कारण वह कन्या तीनों लोकों (देव, नाग, नर) को विमोहित कर रही थी। एक दिन नागराज महीधर अपनी उस सुन्दर कन्या को विवाह के योग्य हुई देखकर विचार करने लगे।
वे चिन्ता में पड़ गए कि वे इस गुणवती, परमसुंदरी, कन्या को किस योग्य पुरुष को समर्पित करें। तब उन्होंने कन्या की इच्छा जानने की दृष्टि से उस स्वयंवरा (स्वयं वर का चयन करने वाली—ज्ञातव्य है कि नाग संस्कृति के अनुसार कन्या स्वयं अपने योग्य वर का चयन करती थीं।) कन्या से पूछा—हे पुत्री! तुम्हे कैसा पति रुचिकर है?
तब नागराज महीधर ने कहा—पुत्री! इस नागलोक में सहस्त्रों पन्नग तथा नागपुत्र हैं। चित्रपटों में विराजमान विशिष्ट वीर नागों की ओर तुम दृष्टिपात कर लो, फिर उनमें तुम्हें जो प्रिय लगे बता देना।
जैमिनी जी कहते हैं—पिता नागराज द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर नारी स्वभाव के अनुरुप ही माधवीजी यह सुनकर लज्जित हो गई। फिर वह अपने पिता नागराज को प्रति उत्तर देती हुई कहने लगीं—
माधवी जी ने कहा—हे पिताश्री! मैं नागों में किसी को भी अपना पति नहीं बनाना चाहती। क्योंकि वे सभी विषादि रसायनों को सिद्ध कर मोह ग्रसित हो चुके हैं।
नागराज महीधर ने कहा—शोभने! यदि तुम्हें नागों के प्रति रुचि नहीं तो तुम देवताओं के राजा महाबाहु इन्द्रका पति के रुप में वरण कर लो। वे तो कमनीय नारियों के प्रति सदैव कामुक रहते हैं। तो स्वयं ही तुम्हें प्राप्त करने के लिए इस लोक में चले आएंगे।
जैमिनी जी कहते हैं—पिता के इस तरह वचनों को सुनकर माधवी जी कहने लगी—
माधवी जी ने कहा— हे पिताश्री! मुझे इन्द्र की कदापि कामना नहीं है; क्योंकि वे तो सारे दोषों के कारण हैं।
वे तपस्या और दान के फल स्वरूप प्राप्त होने वाली दूसरों की उन्नति भी नहीं सह पाते पिताश्री! ज्ञात है— देवराज ने ही तो महर्षि गौतम की प्रियतमा पत्नी 'अहिल्या' की कामना की थी।
ऐसे कृतघ्न इन्द्र को भला कौन नारी अपना पति बनाना चाहेगी? हे पिताश्री! मनुष्य (वैष्णव) ही श्रेष्ठ हैं, इनमें ही आप मेरे योग्य किसी का विचार कीजियेगा।
जैमिनी जी कहते हैं-—जनमेजय! माधवी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर महाबली नागराज महीधर आश्यर्च चकित हो गए।
महीधर ने कहा—पुत्री! तुम वैष्णवों को किस प्रकार श्रेष्ठ कहती हो, वे तो लोभी तथा सभी प्रकार के दोषों से युक्त होते हैं।
जैमिनी जी कहते हैं—इसप्रकार नागराज के वचनों को सुनकर माधवीजी बिना कुछ कहे वहाँ से चली गईं। नागराज महीधर की वह कन्या अपनी दिव्य कांतिमयी शोभा से रति का भी उपहास करती प्रतीत होती थी।
तब नागराज कन्या माधवीजी सौ कन्याओं से घिरी हुई मणिपुर के उत्तम उपवन में विहार करने के लिए गई, जो वसंत के आगमन के कारण नए-नए खिले हुए पुष्पों से पूरित था।
वे सभी षोडशी कन्याएँ तब वहाँ पुष्प चयन करने की इच्छा करने लगीं। उनकी अवस्था साढ़े पंद्रह वर्ष की थी और यौवन की समीपता के कारण उनमें चंचलता प्रकट हो रही थी।
राजन्! उनके शरीर पर, कुसुम्भी रंग के वस्त्र शोभा पा रहे थे। और नव बिल्व फलों के समान उभरे हुए स्तनों से अलंकृत उनकी चोली के ऊपर का आंचल हवा में उड़ रहा था।
सुन्दर मोतियों के हारों से विभूषित ऐसे उरोजों वाली वे नागकन्याएँ मार्ग में ताली बजाती हुई और पायल की झनकार के अनुकूल धीरे धीरे मटक मटक कर चल रही थीं।
वे हसंती हुई, गाती हुई, परस्पर हास-परिहास करती हुई, पुष्प संचय करते हुए क्रीड़ा वन में आ पहुँची।
तदनंतर जब पुष्प चयन करते करते श्रम के कारण वे थक गई और नागराजकुमारी माधवी जी का शरीर पसीने से युक्त हो गया, तो वे संचित फूलों के ढ़ेर को सिरहाने रख कर आलस्य वश उसी पर लेट गई, उस समय एक सखी ने नागेन्द्रसुता से कहा—
तब एक सखी ने विनोद करते हुए कहा—
हे रूपसी! तेरी भक्ति से संतुष्ट होकर ही तुझे इस आशय का स्वप्न देकर, वे दोंनो (रति और कामदेव) इस समय तेरे वक्षःस्थल पर प्रकट हुए है; अतः तू इन्हें उनका प्रतीक मानकर इनकी पूजा के लिए किसी पूजक की प्राप्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना कर।
तभी सहसा इन्द्र ने वहाँ आकर उन रूप तथा यौवन से संयुक्त सभी नाग कन्याओं को देखा और गुणसंपन्न उस नागकन्या माधवी जी से देवराज इन्द्र कहने लगे—
इन्द्र ने कहा—हे सुन्दरियों! मैं तुम सबको अपनी पत्नियों के रूप में प्राप्त करने की कामना करता हूँ, आप सभी अपने नागभाव को त्यागिये और देवांगनाओं की भांति मुझे अंगीकार करके दीर्घ आयुष्य को प्राप्त कीजिए।
सुन्दरियों! विशेषतः नर और नागों का यौवन, नित्य ही चलायमान रहता है, अर्थात् धीरे-धीरे यौवन ढल जाता है, यौवन की क्षीणता सौंदर्य को ग्रस लेती है। हे नागकन्याओं! तुम मुझे वरण कर अक्षय यौवन को प्राप्त करोगी। अमर हो जाओगी।
जैमिनी जी कहते हैं— तब सुरश्रेष्ठ इन्द्र के वचनों को सुनकर उनके वचनों का उपहास करती हुई नाग राजकन्या माधवी ने इस प्रकार कहा—
माधवी जी ने कहा— हे देवेन्द्र! मैं भले ही मर जाऊँ; किन्तु तुम्हें तो क्या, मैं किसी भी देवता को अपने पति के रुप में वरण नहीं करूँगी।
जैमिनी जी कहते हैं— नागसुता माधवी के इसप्रकार वचनों को सुनकर देवराज इन्द्र कुपित होकर वहाँ से चले गए।
तब एक सखी ने कहा— हे सखि! इन्द्र के वचनों से हम सभी संतप्त हो गई हैं; अतः अब इस पुष्प वन से कमलों से परिपूर्ण शीतल जल वाले उस सरोवर की ओर हमें चलना चाहिए।
जैमिनी जी कहते हैं—यों क्रीड़ा करती हुई वे नागकन्याएँ कमलिनी के समूहों से सुशोभित उस सरोवर पर जा पहुँची। उस समय उनके नूपुरों की झनकार सुनकर हंस भयभीत होकर उस कमल वन से भाग खड़े हुए।
मानों उन हंसो ने यह विचार किया हो कि ये कमनीय नागकन्याएँ, बहुत से पुष्प लिये जलक्रीड़ा करने के लिए यहाँ आ रहीं हैं, जिससे हमारे मन में उल्हास उत्पन्न करने वाला यह सरोवर (गंदला) कलुषित हो जायगा।
उस सरोवर के तट पर पहुँचकर, जब वे नागकन्याएँ अपने रेशमी तथा सूती वस्त्र उतारने लगीं, तो उन वस्त्रों से सिकुड़ने के कारण मरमराहट की आवाज उत्पन्न होने लगी।
उस समय पवन नागकन्याओं के उन अति महीन वस्त्रों को भी उड़ाने में समर्थ नहीं हो सका। जैमिनी जी कहते हैं—मानो उन कन्याओं के गुणमयी पाशों में बंधे होने के कारण जैसे वे निश्चलता को धारण कर लिये हों।
तदनंतर चंपा के समान गौरवर्ण वाली वे नागकन्याएँ आनन्द पूर्वक क्रीड़ा करने की इच्छा से उस सरोवर में उतर पड़ीं। उस सरोवर के जल में चारों ओर घूम घूम कर क्रीड़ा करती हुई वे परस्पर हास युक्त बातें करने लगीं।
उन नागकन्याओं के मुख रुपी चंद्रमाओं से अंलकृत होने के कारण वह सरोवर अनन्त शोभा से संपन्न हो गया। और तब वह सरोवर इन रत्नों को धारण कर मानो रत्नाकर की शोभा पाने लगा।
तभी जल पीने के लिये सांडों सहित गायों तथा बछड़ों का समूह वहाँ आ पहुँचा और सरोवर को घेर लिया।
उसी समय कोई हिंसक व्याघ्र (सिंह) भयावह घोरनाद करता हुआ वहाँ आ पहुँचा। जिसकी भीषण गर्जना से गायें बछडों के साथ ही शांत हो गईं और भयातुर होकर कांपने लगीं।
यह देखकर (वहाँ विश्रांति कर रहे) सत्य सरंक्षक, पराक्रमी तथा श्रेष्ठ धनुर्धर वीर श्री अग्रसेन का हृदय दया भाव से भर गया और पीड़ित मन से वे गौकुल के सरंक्षण हेतु विचार करने लगे।
और तब श्री अग्रसेन ने उन गायों की रक्षा की भावना से संरक्ष्य विधि से इसप्रकार बाण चलाए कि व्याघ्र के चारों ओर बाणों के समूह का घेरा खड़ा कर दिया, और सहसा आए इस संकट से सब को (गोकुल, नाग कन्याएँ व सिंह भी) मुक्त कर दिया।
ज्ञातव्य—'अहिंसा' दयाभाव तथा जीवमात्र के प्रति ममता का ऐसा उदाहरण सकल सृष्टि में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं। हिंसक जीव की भी हिंसा ना करते हुए उसे केवल अवरुद्ध करके उसके प्रति भी दया भाव दर्शाने वाले 'महाराजा अग्रसेन' का यह अद्भुत कर्म मानवता का परम पोषक है एवं सकल मानवमात्र का मार्गदर्शक भी। वस्तुतः श्री अग्रसेन जी का यह उपक्रम जीवमात्र के प्रति उनकी न केवल सहानुभूति, अपितु समानानुभूति का भी अनुपम व दिव्य उदाहरण है।
जैमिनी जी कहते हैं— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार गौवंश को परित्राण दिलानेवाला यह कृत्य अत्यन्त दिव्यता पूर्ण तथा प्रीति उत्पन्न करने वाला था, जिसने श्री अग्रसेन के वैष्णव तेज को प्रकट किया। और... देखते ही देखते उन्हें नागराज कन्या का प्रिय बना दिया।
उस उत्तम जलक्रीड़ा से निवृत्त होकर तट पर आगत नागराज महीधर की सुकन्या माधवी सरोवर के किनारे स्थित श्री अग्रसेन के इस अद्भुत, प्रियंकर कृत्य से इस प्रकार अभिभूत हो गई कि वे निर्निमेष टकटकी लगाकर उन्हें उसी प्रकार निहार रहीं थीं, जैसे जगदम्बा रमा भगवान् विष्णु को निहार रही हों।
नागसुता माधवी जी गुण के सागर श्री अग्रसेन को देखकर निश्चल खड़ी रह गईं, तथा मन ही मन उन्हें अपने पति के रूप में निश्चय कर उन्हें एकटक निहारने लगीं।
इस उपवन में इस सुन्दर पुरुष (बाह्य सुन्दरता—अत्यन्त रूपवान, आंतरिक सुन्दरता—जो कि श्री अग्रसेन के इस कृत्य से झलकी) के निकट मैं जाऊँ या न जाऊँ? (मन ही मन तर्क वितर्क करती हुई माधवी जी इस प्रकार विचार कर रहीं थीं) कि कामदेव के बाणों ने उनके विवेक को छिन्न भिन्न कर दिया।
तभी अचानक श्री अग्रसेन अपनी ओर दृष्टिपात करती हुई उस अतीव मनोहारी नागसुन्दरी को देखकर विस्मित हो गये और अत्यन्त हर्षित मन से वे उन (माधवी जी) की आँखों में उनके हृदय को पढ़ने लगे।
(आँखे परस्पर मिलते ही वे सोचने लगे) अरे! ऐसा मनोहर देश ओर ऐसी कामरूपिणी कन्या मैंने कभी पहले स्वप्न में भी नहीं देखी। यह सब तो निशा-स्वप्न की भाँति प्रतीत हो रहा है।
वे (माधवी जी) बारंबार (मन में सुनिश्चित) अपने प्राण वल्लभ श्री अग्रसेन की ओर निहारतीं। अन्य नाग कन्याएँ भी अपलक उन पुरुष सिंह को निहारने लगीं।
नागराज सुता माधवी जी अपने प्रिय प्राणवल्लभ का अपलक दर्शन कर प्रसन्नता से विमुग्ध हुई जा रही थीं। साथ ही मन ही मन (देवी से मनोकामना पूर्ती हेतु) प्रार्थना करने लगीं।
मन ही मन भगवान् शंकर प्रिया पार्वती जी का ध्यान करती हुई वे प्रार्थना करने लगीं—हे दक्षकुमारी! मैं आपको नमन करती हूँ! हे देवी! आप मुझे इन्हें ही पति के रूप में प्रदान कीजिएगा।
देवी माधवी इस प्रकार देवी का चिन्तन कर रही थीं, तभी कोई सखी पूछ बैठी— हे कामिनी! तेरे हृदय में क्या इच्छा जागृत हो गई है? तू क्या सोच रही है सखी?
सखियों की ऐसी बातें सुनकर नागसुन्दरी माधवी जी परम प्रसन्न हुई और लज्जा से उनका मुख अवनत हो गया। तदनंतर वह विनीता पैर के अंगूठे के नख से पृथ्वी को इस प्रकार कुरेदने लगी, मानो अपने प्रियतम के गुणों को लिख रही हों।
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।