+91 8005792734
Contact Us
Contact Us
amita2903.aa@gmail.com
Support Email
Jhunjhunu, Rajasthan
Address
॥श्री अग्र भागवत॥
बीसवाँ अध्याय
विकास
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रसेनोऽपि तां भार्यां लब्ध्वा सर्वगुणान्विताम्।
मुमुदे माधवी सा च तं लब्ध्वा मनसेप्सितम्॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे महात्मा जनमेजय! सर्व सद्गुण सम्पन्ना नागसुता को भार्या के रूप में पाकर जिसप्रकार 'श्री अग्रसेन' अत्यंत प्रसन्न थे उसीप्रकार 'माधवी देवी' भी अपने अनुकूल मनोवांछित पति के रूप में नरश्रेष्ठ अग्रसेन को पाकर अत्यंत आनंदित थीं।
ततः सह तया रेमे प्रियया प्रीयमाणया।
सीतयेव पुरा रामः पौलोम्येव पुरन्दरः॥२॥
राजन्! जिस प्रकार पूर्वकाल में श्रीरामचंद्रजी सीताजी के साथ तथा देवराज इन्द्र पुलोमकुमारी शचि के साथ सानन्द रमण करते थे उसीप्रकार महाराजा अग्रसेन अपनी प्रियतमा पत्नी माधवीजी के साथ प्रसन्नतापूर्वक रमण करने लगे।
सा हि तस्याभवत् पत्नी चाग्रसेनस्य भामिनी।
पतिव्रता रूपशीलगुणोपेता कुलेन्दिरा॥३॥
वे राजरानी माधवी देवी महाराजा अग्रसेन की एकमेव पत्नी थीं। उनकी वह भामिनी पतिव्रता, रूपवती, सुशीला तथा परम कुलीन नारी थीं।
परिचारैर्गुणैश्चैव प्रश्रयेण दमेन च।
सर्वकामक्रियाभिश्च सर्वेषां तुष्टिमाददे॥४॥
राजरानी माधवीजी ने अपनी सेवा से, गुणों से, विनम्रता से, संयम से तथा सभी कार्यों के उपयुक्त निष्पादन द्वारा दैव, पितृ, ऋषि, पति, संबंधी, परिजन, पुरजन आदि सभी को संतुष्ट किया।
श्वश्रूं परं सुसत्कारैः धर्मयुक्ता ह्यतोषयत्।
तस्याः कामे व्रते सक्ता शुश्रूषाभिरता सती॥५॥
उसी प्रकार (नागसुता) अपने मधुर संभाषण, कार्यकुशलता, शांति तथा एकान्त सेवा द्वारा वे पतिदेव (श्री अग्रसेन) को भी सदा प्रसन्न रखती थीं।
तथैव प्रियवादेन नैपुण्येन शमेन च।
रहश्चैवोपचारेण भर्तारं पर्यतोषयत्॥६॥
वे अपनी श्वासुमाता वैदर्भी को उनकी धर्म युक्त परम सेवा से संतुष्ट करतीं। उनका यह व्रत (नियम) था कि वह सती नारी प्रतिदिन अपनी 'सास' की सेवा में तत्पर रहती।
स तस्यां नागकन्यायां कालेन महता नृपः।
जनयामास सत्पुत्रानष्टादश कुलोद्वहान्॥७॥
हे महात्मन! महाराजा श्री अग्रसेन ने दीर्घकाल में (लम्बे समय में) नागकन्या माधवीदेवी के गर्भ से कुल का भार वहन करने में समर्थ क्रमशः अट्ठारह पुत्रों को जन्म दिया।
विजयो विक्रमोऽजेयो ह्यनलो नीरजोऽमरः।
श्रीमान् सुरेशो नागेन्द्रः सोमश्च धरणीधरः॥८॥
गणेश्वरश्च सिद्धार्थोऽतुलोऽशोकः सुदर्शनः।
अष्टादशैते लोकेशस्तेषां ज्येष्ठोऽभवद् विभुः॥९॥
(वे पुत्र क्रमशः) विभु, विक्रम, अजेय, विजय, अनल, नीरज, अमर, नगेन्द्र, सुरेश, श्रीमन्त, सोम, धरणीधर, अतुल, अशोक, सुदर्शन, सिद्धार्थ, गणेश्वर तथा लोकपति थे। इन सभी अट्ठारह पुत्रों में विभुसेन ज्येष्ठ पुत्र थे।
एकवर्षान्तरास्त्वेते परस्परहितैषिणः।
तांस्तु संस्कृत्य विधिवत् चकाराध्यापनं गुरुः॥१०॥
ये परस्पर हितैषी राजकुमार एक-एक वर्ष के अन्तर से उत्पन्न हुए थे। महर्षि गार्ग्य ने उनके विधिवत् (जातकर्म, उपनयन, यज्ञोपवीत आदि) समस्त संस्कार सम्पन्न कराए।
मनसाऽचिन्तयद् देवी सन्ति मेऽष्टादशात्मजाः।
ममेयं परमा तुष्टिर्दुहिता मे भवेद् यदि॥११॥
अट्ठारह पुत्रों को प्राप्त कर लेने के उपरांत माधवी देवी मन ही मन विचार करने लगीं कि ये मेरे अट्ठारह पुत्र तो हैं, तथापि यदि एक पुत्री और हो जाए तो ही मुझे परम संतोष होगा।
कृतकृत्या भवेयं वै पुत्रदौहित्रसंवृता।
अधिका सा हि नारीणां प्रीतिर्जामातृजा यदि॥१२॥
तब पुत्र-पौत्र और दौहित्रादि दोनों ही से घिरी रहकर मैं कृत-कृतार्थ हो जाऊँगी। जैमिनी जी कहते हैं—हे महाराज जनमेजय! नारियों का पुत्र से अधिक दामाद के प्रति स्नेह होता है।
ज्ञात्वाऽग्रसेनस्तत्कामं पर हर्षमुपागतः।
पुत्रीं च जनयामास विख्याताम् ईश्वरीमिति॥१३॥
महाराजा अग्रसेन महारानी माधवी जी की इस परम इच्छा को जान कर अत्यंत प्रसन्न हुए। तदनंतर उनने एक शुभलक्षणा कन्या को जन्म दिया। जो 'ईश्वरी' के नाम से विख्यात हुई।
सर्वे शास्त्रार्थकुशलाः गुणवन्तो यशोधनाः।
शीलवन्तः पुण्यकृत्या महाभागा महाबलाः॥१४॥
वे सभी पुत्र एवं पुत्री शास्त्रार्थ कुशल, गुणवान्, महायश के कारणों से सम्पन्न, सुशील, आचार-व्यवहार कुशल, पुण्यकर्म करने वाले, भाग्यशाली तथा महाबलशाली थे।
शौर्यसेनः पञ्चपुत्रान् दक्षिणायाम् अजीजनत्।
अनन्तनागकन्यायां ते वीराश्च महारथाः॥१५॥
जैमिनी जी कहते है—हे जनमेजय! इसी प्रकार महाराजा अग्रसेन के अनुज शौर्यसेन ने अपनी पत्नी अनन्तनागसुता 'दक्षिणी' के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न किये—जो सब-के-सब वीर और महारथी थे।
वेदस्याध्ययनं कृत्वा ततः सुचरितव्रताः।
जगृहुः सर्वमिष्वस्त्रमग्रसेनाज्जगद्धितम्॥१६॥
अनुपम ब्रह्मचर्य का पूर्णरूपेण पालन करते हुए उन बालकों ने महर्षि गर्ग से वेदाध्ययन करने के साथ-साथ महाराजा अग्रसेन से सभी अस्त्र-शस्त्र तथा लोकशास्त्र का ज्ञान अर्जित किया।
॥अग्रसेन उवाच॥
उद्भावनार्थं वंशस्य प्रिये कार्यं हि किं त्वया।
त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि तत् प्रभाषितुमर्हसि॥१७॥
(इस प्रकार जब महाराजा अग्रसेन की संतति परिपक्वता को प्राप्त हो गई और उनके विवाहादि की आवश्यकता महसूस की तब एक दिन)
महाराजा श्री अग्रसेन ने (माधवी जी से) कहा—प्रिये! महारानी माधवी! वंश की उन्नति के लिये तुम्हें अब क्या रुचिकर प्रतीत होता है? इस विषय में तुम्हारी जो भावना हो वह मैं जानना चाहता हूँ।
॥माधवी उवाच॥
कुले स्रोतसि सञ्छन्ने स्याद् जन्माऽपि सुदुर्ग्रहम्।
स्ववर्णं वान्यवर्णं वा तच्छीलं शास्ति निश्चितम्॥१८॥
तब महारानी माधवी जी ने कहा हे नाथ! जैसे किसी भी व्यक्ति को देखकर यह नहीं जाना जा सकता कि उसका कुल स्त्रोत क्या है? उसी तरह उसके जन्म के रहस्य को भी जानना अत्यंत दुष्कर है। व्यक्ति का वर्ण तो उसका आचार-व्यवहार और स्वभाव ही निश्चित करता है।
व्याघ्रश्चित्रो यथायोनि पुरुषः संनियच्छति।
तथैव सदृशो रूपे मातापित्रोर्हि जायते॥१९॥
स्वामी! जिस प्रकार बाघ की अपनी चित्रांकित विचित्र खाल और उसका अपना स्वभाव उसके अपने माता-पिता के समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपने माता-पिता के गुणों का अनुसरण करते है।
आख्यायते नाम जनो हि कर्मभिः
शुभाशुभैः शीलकुलैर्गुणैश्च।
प्रणष्टमप्याशु गुणं कुलीनं
स्वकर्मतः स्वां प्रकृतिं लभन्ते॥२०॥
महाराजश्री! मनुष्य अपने शुभ-अशुभ कर्म, शील, गुणों तथा कुल के द्वारा ही पहचाना जाता है। कुलीन पुरुष यदि भाग्यवशात् नष्टप्रायः भी हो जाए, तो भी अपने कुल गौरव के कारण शीघ्र ही पुनः अपने स्वरूप को अपने कुलोचित गुणकर्मों से प्रकाशित कर देता है।
कुलीना स्यात् सवर्णैव भार्या नान्या कथंचन।
जातिर्मातुर्विशेषेण पूर्वमुक्ता स्वयम्भुवा॥२१॥
नरेन्द्र! 'कुलीन व्यक्ति वही है, जिसकी अपने ही समान वर्ण की एक ही पत्नी होती है, अन्य कोई किसी प्रकार भी नहीं। क्योंकि उत्पन्न होने वाली संतान पिता के साथ-साथ माता के गुणों से भी समन्वित होती है यह बात पूर्व में ब्रह्मा जी ने कही है।
स्ववर्णजाता भजतात्सवर्णम्
तथा सवर्णोऽपि भजेत्सवर्णाम्।
जाती विशेषोऽस्त्यपरो नरेन्द्र
विवाह वैशिष्ट्यकृतो विशिष्यते॥२२॥
हे नरेन्द्र! उत्तम पुरुषों से उत्तम स्त्रियों द्वारा जो संतान उत्पन्न होती है, उनकी यह विशिष्टता होती है कि उनके परस्पर विशिष्ट गुण उनकी संतति में आ जाते हैं। यही उत्तम विवाह का वैशिष्ट्य कृत (श्रेष्ठ परिणाम) होता है।
कुलोत्तमस्य सच्छीलं वर्धते श्रीः सुतेष्वपि।
एवं ज्ञातिषु सर्वासु सवर्णः श्रेष्ठतां गतः॥२३॥
हे राजन्! उत्तमकुल की वंशवृद्धि और वंश का उचित विकास अपने तुल्य वर्ण वाली स्त्री से पुत्र उत्पन्न करने से ही होता है। इस प्रकार अपने समान और अपने अनुकूल तथा अनुरूप जातियों व वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न संतति ही श्रेष्ठ कही गई है।
धर्मस्य निश्चयस्त्वेष कुलवंशविवर्धनः।
पितरोऽस्य हि तुष्यन्ति प्रहृष्टमनसः सदा॥२४॥
हे प्राणनाथ! यही निश्चित धर्म है, और यही कुल एवं वंश वृद्धि का निश्चित नियम भी। जो इस प्रकार (वेद एवं शास्त्रसम्मत) नियम का पालन करता है, उनके पितर सदा प्रसन्नचित्त व संतुष्ट रहते हैं।
अनुकूला मनोर्वंश्या नागपुत्रीसमुद्भवाः।
अतः पुत्रवधूनां त्वं सम्मतं ग्रहणं कुरु॥२५॥
हे धर्मज्ञ! मेरा तो यही अभिमत है कि जो अपने अनुकूल हो तथा अपने वंश के अनुरूप हो ऐसी नाग-कन्याओं को पुत्रवधुओं के रूप में ग्रहण करें। हे महाराज! आप तो ज्ञानी पुरुषों द्वारा भी सम्मानित होने वाले धर्म के विज्ञाता हैं। हे नाथ! आपको यह सब कहने की मुझे कोई आवश्यकता ही नहीं है; तथापि आपके द्वारा मुझे मान देने और पूछे जाने के कारण मैंने अपना अभिमत आपके समक्ष अभिव्यक्त किया है।
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रकन्याम् ईश्वरीं तां लेभे काशीकुमारकः।
महेशो मोक्षमास्थाय ब्रह्मभूतोऽभवन्मुनिः॥२६॥
जैमिनी जी कहते हैं—महाराज जनमेजय! महाराजा अग्रसेन की कन्या "ईश्वरी" का परम धार्मिक काशिराज के पुत्र राजा 'महेश' के साथ विवाह हुआ था, जो कि बाद में मोक्षधर्म में स्थापित होकर ब्रह्मस्वरूप महामुनि 'महेश' के रूप में विख्यात हुए हैं।
वासुकिर्यः ख्यातवीर्यो विधिज्ञः पन्नगाधिपः।
प्रादात् नागकुमारीः स्वाः सुतेभ्योऽग्रस्य सद्विधीः॥२७॥
राजन्! इसी प्रकार वासुकी (नागों में एक वर्ण विशेष) नाम से विख्यात महाशक्तिशाली नागराज ने अपनी कन्याएँ विधिपूर्वक श्री अग्रसेन जी के पुत्रों को प्रदान की।
विभुर्हि चित्रया युक्तः शुभया सोऽथ विक्रमः।
अजेयः शीलया साकं कान्त्या च विजयस्तथा॥२८॥
स्वात्याऽनलो रेणुकया समायुक्तश्च नीरजः।
नागेन्द्रः शिरया चैव शुशुभे क्षमयाऽमरः॥२९॥
सख्या सुरेशः श्रीमांश्च श्रीमालाख्यातया युतः।
प्रियया धरणीध्रः सोमः शान्त्या कन्ययाऽतुलः॥३०॥
सावित्र्या च तथाशोको हेमवत्या सुदर्शनः।
सिद्धार्थस्तारया युक्तो नागमण्या गणेश्वरः॥३१॥
प्रभावत्या लोकपतिः सर्वऊढास्तथा विधाः।
प्रकृतिप्रत्यया यद्वत् सभार्या अग्रनन्दनाः॥३२॥
अग्रकुमार श्री विभुसेन ने नागकन्या चित्रा का वरण किया। उसी प्रकार विक्रमसेन ने नागकन्या शुभा का, श्री अजेयसेन ने नागकन्या शीला का, विजयसेन ने नागकन्या कांति का, श्री अनलसेन ने नागकन्या स्वाति का, नीरजसेन ने नागकन्या रेणुका का, श्री अमरसेन ने नागकन्या क्षमा का, नगेन्द्रसेन ने नागकन्या शिरा का, श्री सुरेशसेन ने नागकन्या सखी का, श्रीमंतसेन ने नागकन्या श्रीमाला का, श्री धरणीधर ने नागकन्या प्रिया का, सोमसेन ने नागकन्या शांति का, श्री अतुलसेन ने नागकन्या सुकन्या का, अशोकसेन ने नागकन्या सावित्री का, श्री सुदर्शनसेन ने नागकन्या हेमवती का, सिद्धार्थसेन ने नागकन्या तारा का, श्री गणेश्वर ने नागकन्या नागमणि का, तथा श्री लोकपति ने नागकन्या प्रभावती का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया।
सभी राजकुमारों के विवाह नागकन्याओं से विधिपूर्वक सम्पन्न हुए। वे सभी अग्रपुत्र अपनी-अपनी पत्नी के साथ ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे प्रत्यय शब्दों के मूल में जुड़ गए हों।
॥वासुकिरुवाच॥
सत्यमेतद् ब्रवीम्यद्य काङ्क्षितं पुरुषर्षभ।
एतद् वसु धनं सर्वं विधिशः प्रतिगृह्यताम्॥३३॥
नागश्रेष्ठ वासुकी ने श्री अग्रसेन जी से विनयवत् निवेदन करते हुए कहा – हे पुरुष शिरोमणि! आपके समस्त मनोरथ इन पुत्रों और पुत्रवधुओं के माध्यम से सफल हों। आप इन सुकन्याओं के साथ साथ हमारा समस्त धन, सम्पत्ति और यह विदिशा (विपरीत दिशा का) राज्य भी ग्रहण करें।
॥अग्रसेन उवाच॥
नाहं प्रतिग्रहधनो ब्राह्मणः क्षत्रियोऽस्म्यहम्।
न च मे प्रवणा बुद्धिः परवित्तविनाशने॥३४॥
तब महाराजा श्री अग्रसेन ने कहा—हे नागपति! आपकी यह भावना अत्यंत उत्तम है; तथापि प्रतिग्रह ही जिनका जीवनधन होता है, मैं वह ब्राह्मण नहीं हूँ। मैं तो राजा हूं। राजा का धर्म पोषण है शोषण नहीं। मेरी बुद्धि पराए धन का ग्रहण करके उनके वैभव का क्षय करने के लिये कदापि उद्यत नहीं है।
॥जैमिनिरुवाच॥
तस्य तद् भाषितं श्रुत्वा पन्नगश्च परं मुदा।
आनर्च चोत्तमार्घ्येण नागैरप्यभिनन्दितः॥३५॥
जैमिनी जी कहते हैं—महाराज अग्रसेन के इस प्रकार श्रेष्ठ वचनों को सुनकर नागराज वासुकी परम आनंदित हुए। नागों ने उन्हें उत्तम अर्घ्य निवेदन कर महाराजा श्री अग्रसेनजी का पूजन और अभिनंदन किया।
॥वासुकिरुवाच॥
स्थानं च प्रतिपन्नोऽसि कर्मणा स्वेन निर्जितः।
अचलं शाश्वतं पुण्यमुत्तमं ध्रुवमव्ययम्॥३६॥
नागराज वासुकी ने कहा—हे नरश्रेष्ठ! महाराजा श्री अग्रसेनजी! आपने अपने कर्म से वह श्रेष्ठ स्थान विजित किया है, जो अविचल, शाश्वत, पुण्यमय, उत्तम, ध्रुव तथा अविनाशी है।
त्वया धर्मः श्रितो लोके कीर्तिश्चैवाक्षया तव।
लोके स्वकर्मणा हि त्वम् आदर्शों मार्गदर्शकः॥३७॥
नागराज वासुकी ने कहा—हे परम आदरणीय! महाराजा अग्रसेन! आपने धर्म संग्रह किया है, लोकधर्म का निर्वाह किया है, जिससे आपकी सारे जगत् में अक्षय कीर्ति फैल गई है। आपके लोकहितकारी सत्कर्म सारे जगत् के लिये सदैव आदर्श (दर्पण के समान) तथा मार्गदर्शक रहेंगे।
॥जैमिनिरुवाच॥
समीक्ष्य लोके बहुधा धारितं हितमाश्रुतम्।
बहुश्रुतानां त्रैवर्गम् आख्यानं पावनं त्विदम्॥३८॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! महाराजा श्री अग्रसेन का दिव्य चरित्र जगत् के नाना प्रकार के विचारों का मंथन करके निश्चित किए गए सिद्धांतो को अपनाने वाला, अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, तथा तीनों वर्णों (धर्म, अर्थ, काम) पर सम्यक् दृष्टि रखने वाला हैं। महापुरुष श्री अग्रसेन की लोक उपासना पद्धति है। उनका यह (चरित्र गाथा) आख्यान सभी के लिये परम हितकर व लोककल्याणकारी है।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते विंशोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।