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॥श्री अग्र भागवत॥

 

 

सत्रहवाँ अध्याय

 

अमृत

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ततो व्यपेते तमसि सूर्ये विमलरश्मिके। 

शुभे मुहुर्ते सम्प्राप्ते मृद्वर्चिषि दिवाकरे॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं—इस प्रकार रात्री का घोर अंधकार दूर हुआ और निर्मल आकाश में सूर्यदेव के उदित होने पर उनकी कोमल रश्मियाँ सभी ओर बिखर गई।

 

महीधरो मङ्गलया पुण्यवाचा प्रियातिथिम्। 

शुभैः परमसत्कारैः पूजनार्हमपूजयत्॥२॥

तब नागराज महीधर ने विवाह में सम्मलित होने के लिये वर पक्ष के आगत अपने प्रिय अतिथियों की मंगलकारक पुण्य वचनों से परम सत्कार के साथ आवभगत की।

 

अग्रसेनाय दातुं तां प्रीतोदुहितरं स्वकाम्। 

राजानमृषिभिः सार्धं मन्त्रिभिः स्वयमानयत्॥३॥

अग्रसेनं समीप्याथ जनैः सह पुरोहितैः। 

विधिप्रयुक्तसत्कारैः प्राञ्जलिः पन्नगेश्वरः॥४॥

महाराजा श्री अग्रसेन के साथ अपनी पुत्री का वाग्दान करके नागराज महीधर अत्यंत प्रसन्न थे। विवाह में सम्मलित होने के लिये महर्षि गर्ग के साथ मित्र देशों के राजाओं, ऋषि-मुनियों के साथ ही आग्रेय गणराज्य के मंत्री गणों एवं आगत राज्य के नागरिकों का नागराज महीधर ने हाथ जोड़कर विधिवत् सत्कार किया।

 

उवाच वचनं श्रेष्ठं भुजङ्गश्रेष्ठमुन्मुदा। 

भवतो दर्शननैवप्यस्तं लोके परं तमः॥५॥

नागों में श्रेष्ठ नागेन्द्र महीधर ने आनंद मग्न पुरुषप्रवर श्री अग्रसेन एवं ऋषिप्रवर महर्षि गर्ग से कहा—महोदय! आप जैसे तेजस्वियों के दर्शन से इस नागलोक का (आत्म) अंधकार दूर हो गया।

 

॥महीधर उवाच॥

दिष्ट्या प्राप्तो महातेजा अग्रसेनो नृपङ्गवः। 

सह सर्वैद्विजश्रेष्ठे देवैरिव शतक्रतुः॥६॥

नागेन्द्र महीधर ने कहा—महोदय जी! महातेजस्वी नरश्रेष्ठ श्री अग्रसेन ने हमारे सौभाग्य से ही यहाँ पदार्पण किया है। ये आप सभी द्विजों, ज्ञानियों और वीरों के साथ उसीप्रकार शोभायमान हो रहे हैं, जैसे देवताओं के संग इंद्र सुशोभित होते हैं।

 

दिष्ट्या मे निर्जिता विघ्ना संवर्तयितुमर्हसि। 

मध्याह्नेऽत्र नृपश्रेष्ठ विवाह‌मृषिसत्तमैः॥७॥

सौभाग्य से मेरी समस्त विघ्न-बाधाएँ पराजित हो गईं। हे नरश्रेष्ठ! आप मध्यदिवस के अन्तिम चरण में इन महात्माओं के साथ हमारे भवन में पधार कर विवाह के पुनीत शुभ कार्य को सम्पन्न करें।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

नागेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा प्रत्युवाचर्षिपुङ्गवः। 

यथा वक्ष्यसि धर्मज्ञ तत् करिष्यामहे वयम्॥८॥

जैमिनी जी कहते हैं—नागराज के इस प्रकार मधुर प्रिय वचनों को सुनकर प्रति उत्तर में महर्षि गर्ग ने कहा—ठीक है नागेन्द्र! आप तो स्वयं ही धर्म के ज्ञाता है, आप जैसा बतायेंगे हम वैसा ही करेंगे।

 

ततो रथं समानीतं वृहन्तं चारुदर्शनम्। 

मणिहेमविचित्राङ्गं सुध्वजच्छत्रकेतनम्॥९॥

तब मध्याह्न काल में विवाह यात्रा (बारात) के लिये योजित वह विशाल रथ, जो देखने में अत्यंत ही मनोहारी था, सुन्दर ध्वजा, छत्र और पताकाओं से युक्त, स्वर्ण और मोतियों से जड़ित, वह विशाल और दर्शनीय रथ जोता गया।

 

आरुरोहाग्रसेनोऽथ माङ्गल्यैर्ऋषिभिर्युतः। 

माङ्गल्यार्थप्रदैः शब्दैरन्वयुज्यत सादरः॥१०॥

विवाहार्थ मंगल यात्रा हेतु जब श्री अग्रसेन उस दिव्यरथ पर आरूढ़ हुए तो मंगल सूचक (मंगलता के प्रतीक ऋषिगण उनके दाहिनी ओर थे, तथा (बारात में) आए हुए शेष सभी लोग उनके पीछे-पीछे मंगल गान करते हुए चलने लगे।

 

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च गोमुखा नादितास्तदा। 

ववर्ष पथि पर्जन्यः पुष्पवर्षं च भूरिशः॥११॥

उस मंगल यात्रा में शंख, भेरु, नगाड़े, गोमुख, डमरू आदि भाँति-भाँति के वाद्य बजाए जा रहे थे। समतल पथों से जा रही मंगलयात्रा पर नागलोक के निवासियों द्वारा खिले हुए पुष्पों की भारी वर्षा की जा रही थी।

 

पताकाध्वजमालाढ्याः पूर्णकुम्भाः समन्ततः। 

राजमार्गे सवस्त्रा भूश्चन्दनोदकसेचिता॥१२॥

वहाँ राजमार्गों पर चंदनयुक्त जल का छिड़काव करवाया गया था, और पाँवड़ों के रूप में मार्ग में वस्त्र बिछा दिया गया था। वहीं मार्ग के दोनों ओर जल से पूरित कलश रखे गए थे, जो कि ध्वज पताकाओं और मालाओं से अलंकृत थे।

 

नरनागमहिष्यश्च गायद्भिः स्तुतिमङ्गलैः। 

स्वस्थानेषु प्रतीक्षन्ते स्माग्रसेनाय योषितः॥१३॥

मार्ग में जगह-जगह नागों की स्त्रियाँ और पुरुषों के समुदाय स्तुति और मंगल गान कर रहे थे। इस के साथ ही स्थान-स्थान पर नागयुवतियाँ अपने-अपने घरों पर श्री अग्रसेन के आगमन की उनके दर्शन की लालसा से बाट जोह रही थीं।

 

दृष्ट्वाऽऽग्रसेनं तं रम्ये दिव्यरत्नविभूषितम्। 

अङ्गेष्वाभरणं धृत्वा तपन्तमिव भास्करम्॥१४॥

उन कन्याओं ने दिव्य रत्नमय आभूषणों से अलंकृत रम्य विभूषित सर्वांग सुंदर श्री अग्रसेन की उस रमणीय छवि को निहारा। श्री अग्रसेन उन नागतरुणियों को अपनी तेजस्विता से तपते हुए सूर्य की भाँति प्रतीत होते थे।

 

सचामरं सव्यजनं सच्छत्रं सरविध्वजम्। 

श्रिया विभूतं मर्त्येषु दुर्निरीक्ष्यतरं परम्॥१५॥

श्री अग्रसेन जी के दोनों पार्श्वों में, व्यजन डुलाए जा रहे थे। सिर पर छत्र तना था। रथ पर ऊँचा सूर्यांकित ध्वज फहरा रहा था। अद्भुत शोभा से व्याप्त अग्रसेन की तेजस्विता के समक्ष उन नागकन्याओं को उनकी ओर सतत देखना भी अत्यंत कठिन प्रतीत हो रहा था।

 

पन्नगाः भुजगाः नागाः नागलोकनिवासिनः। 

आर्चयामासुरर्चार्हं लोकातिथिमुपस्थितम्॥१६॥

नागगण, भुजंगगण, पन्नगगण व सभी नागलोक निवासी अपने लोक के पूजनीय अतिथि महाराज श्री अग्रसेन को समीप आते देख निकट जाकर उनका यथावत् पूजन करते।

 

तथा दूतैः समाज्ञाय ह्यग्रणीं मण्डपागतम्। 

नागराजोऽब्रवीद् वाक्यं हृष्टरोमाऽग्रसेनकम्॥१७॥

जब दूतों ने श्री अग्रसेन जी के मण्डप में पहुँचने का समाचार नागराज से कहा तो उनके शरीर में हर्षपूर्ण रोमांच हो आया और वे वहाँ उपस्थितों से कहने लगे—

 

॥महीधर उवाच॥

 

स मान्यतां नरश्रेष्ठः पूजार्थ संविधत्स्व च। 

स नो मान्यश्च पूज्यश्च ह्यग्रसेनोऽत्र सर्वथा॥१८॥

 

नागेन्द्र महीधर ने कहा —उन नर श्रेष्ठ श्री अग्रसेन जी का यहाँ योग्यतम सम्मान होना चाहिये। उनके स्वागत सत्कार की अभी तत्काल तैयारी करो। वे हम लोगों के माननीय और सब प्रकार से पूजनीय हैं।

 

समृद्धिभृद्बन्धुजनाधिरुढैर्वृन्दैर्गजानां बहुभिः सहस्रैः। 

प्रत्युज्जगामागमनप्रतीतः प्रसन्नचित्तस्स तु पन्नगेशः॥१९॥

 

इस प्रकार श्री अग्रसेन जी के आगमन से अत्यंत प्रसन्न नागराज महीधर अपने उन घनिष्ट कुटुम्बियों को हाथी पर बैठाकर उन्हें साथ ले श्री अग्रसेन जी की अगवानी के लिये चले।

 

वर्गावुभौ नागनराधिपानां द्वारेऽपिधाने ह्युभयप्रदेशात्। 

समीयतुर्द्वावपि भिन्नवेषौ भिन्नैकसेतू पयसामिवोघौ॥२०॥

जब वर और कन्या दोनों पक्ष वाले वे नाग और नर (दो भिन्न संस्कृतियाँ) एक द्वार पर आकर मिले, तो ऐसा लगने लगा कि जैसे -बाँध के टूट जाने पर अलग-अलग नदियों की दो धाराएँ आकर परस्पर मिल गई हों।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

वैवाहिके कौतुकसंविधाने वर्गावुभौ नागनराधिपानाम्। 

एकीकृतौ सानुमतोऽनुरागादस्तान्तरावेककुलोपमेयम्॥२१॥

जैमिनी जी कहते हैं—विवाह के इस उत्सव में नाग और नर दोनों ही वर्ग वहाँ प्रेममय एकरस होकर इस प्रकार मिल रहे थे कि सभी विभेद मिट गए। तब ऐसा लगने लगा कि जैसे वे एक ही कुल के हों।

 

ततोऽग्रसेनं दृष्ट्वा ताः सम्भ्रान्ताः पन्नगाङ्गनाः। 

आसनेभ्यः समुत्पेतुस्तेजसा तस्य धर्षिताः॥२२॥

वहाँ पधारे श्री अग्रसेन जी को निरखते ही अन्तःपुर की सभी नागसुन्दरियाँ चकित हो गई और मानों उनके तेज से तिरस्कृत होकर वे अपने आसनों से उठकर खड़ी हो गई हों।

 

प्रशंशंसुश्च सुप्रीता अग्रं ता विस्मयान्विताः। 

तेजसा धर्षितास्तस्य लज्जावत्यो भुजाङ्गनाः॥२३॥

विस्मित-सी उन सबने अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक महाराजा श्री अग्रसेन के सौंदर्य की प्रशंसा (गुणगान) की। उनके तेज से वे लजीली नागकन्याएँ एवं नागिनी प्रतिहत थीं।

 

माधवीं परिवार्यैता नागकन्यामलङ्कृताम्। 

रूपवत्यः सुतास्तस्य पुरस्कृत्योपतस्थिरे॥२४॥

उस समय नागराज कुमारी माधवी जी वस्त्र आभूषणों से अलंकृत अत्यंत शोभायमान हो रहीं थी। नागेन्द्र महीधर की वह रूपमती सुकन्या माधवी परिवार की स्त्रियों से घिरी वहाँ (लग्न मण्डप में) उपस्थित हुई।

 

कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम्। 

माधवी मण्डपं भद्रं प्रविवेश शुभानना॥२५॥

लग्न मण्डप सोने के खम्भों से सुशोभित था। तोरणों से उसकी शोभा और बढ़ गई थी। तब सुन्दर मुख वाली नागकन्या माधवी देवी ने उस लग्न मंडप में प्रवेश किया।

 

स्कन्धदेशेऽसृजत्कन्या सजमग्रस्य शोभनाम्। 

वरयामास चैवैतं पतित्वे सा स्वयंवरा॥२६॥

तब स्वयंवरा नागकन्या ने श्री अग्रसेन जी के ऊँचे कन्धों के मध्य शोभित गले में परम सुन्दर फूलों का हार डालकर उनका पति रूप में वरण कर लिया।

 

पुष्पवृष्टिर्महत्यासीदन्तरिक्षात् सुभास्वरा। 

दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः॥२७॥

उस समय अन्तरिक्ष से फूलों की बहुत अधिक वर्षा हुई, जो कि बड़ी सुहावनी लग रही थी। दिव्य दुंदुभियों का दीर्घ घोष, गीतों के मनोहर शब्द और वाद्यों के मधुर स्वर वहाँ आनंद बिखेर रहे थे।

 

॥महीधर उवाच॥

माधवीयं मम सुता सहधर्मचरी तव। 

प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना॥२८॥

तब नागराज महीधर ने कहा—हे राजेन्द्र! मेरी यह सुपुत्री माधवी अब आपकी सहधर्मिणी तथा सहचरी है। इसे स्वीकार कीजिये और इसका हाथ अपने हाथों में लीजिये।

 

इमाश्चाऽपि वराः कन्याः सानुरागाः सभक्तिकाः। 

गृहाण पाणिमेतासामपि मन्त्रपुरस्कृतः॥२९॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! तदनंतर नागराज महीधर ने अपनी अन्य कन्याओं को सम्मुख करते हुए कहा—जंवाईराज! श्री अग्रसेन! आप मेरी इन अनुराग तथा उत्तम भक्ति से युक्त अन्य कन्याओं के साथ भी मंत्रोच्चार सहित पाणिग्रहण कीजिये।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

प्रतीच्छेमाः स्वधर्मेण प्राजापत्येन कर्मणा। 

एता अदात् कन्यकास्ते प्रीतोऽयं पन्नगेश्वरः॥३०॥

जैमिनी जी कहते हैं—उन नागकन्याओं को नागशिरोमणि महीधर ने प्रीति के साथ सौंपते हुए कहा—हे राजन्! आप अपने धर्म ( वैष्णव धर्म के अनुकूल) के अनुसार इन नागकन्याओं को भी स्वीकार करें।

 

श्रुत्वा तु नागराजस्य मतमोऽतिलज्जितः। 

सम्भ्रान्तो व्यथितो भूत्वा नागेन्द्रमिदमब्रवीत्॥३१॥

नागराज महीधर के इस प्रस्ताव को सुनकर श्री अग्रसेन जी ने लज्जा की अनुभूति की और तब व्याकुलता से व्यथित होकर श्री अग्रसेन ने नागेन्द्र से इस प्रकार कहा—

 

॥अग्रसेन उवाच॥

कथं नु वा मनस्विन्याः माधव्याः पाणिपङ्कजम्। 

गृहीत्वा नागदुहितुर्लोकेऽधर्मं चराम्यहम्॥३२॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे नागराज! मैं मन को वश में रखने वाला मनस्वी पुरुष, लोकधर्म का उत्तम आचरण करने वाला नागराज की दुहिता माधवीदेवी का वरण कर लेने के उपरांत अब अन्य का पाणिग्रहण भला कैसे कर सकता हूँ? (अर्थात् कदापि नहीं कर सकता।)

 

अनियोज्ये नियोगे मां न नियुङ्क्ष्व महामते। 

भगिन्यो धर्मतो या मे तत्स्पर्शं त्वं कथं वदेः॥३३॥

हे श्रेष्ठ ज्ञान सम्पन्न नागेन्द्र! इस प्रकार तो आप मुझे ऐसे अनुचित कार्य में लगाना चाह रहे हैं, जो कदापि योग्य नहीं है। पत्नी की अन्य बहिनें ये सब मेरे लिये धर्म की दृष्टि से बहिनें ही हैं, अतः आप मुझसे भला इस प्रकार कैसे कह रहे हैं। अर्थात् आपका यह कथन कदापि उपयुक्त नहीं।

 

आर्षं धर्मं बुवाणोऽहं नागाधिप यथा भवान्। 

अधर्मात् पाहि नागेश मां धर्म प्रतिपादय॥३४॥

हे निष्पाप नागेन्द्र! मैं आपसे जो आर्षधर्म है- वह स्पष्ट कह रहा हूँ। नागेश! आप मुझे इस तरह अधर्म में न डालें। आप अधर्म से बचाइये और मुझे धर्म का पालन करने दीजिये, मुझे धर्म पथ पर चलने दीजिये।

 

॥महीधर उवाच॥

स्त्रियः पवित्रा अतुला नरेन्द्र ननु धर्मतः। 

अस्मिन् विवाहे मा म्लासीरहं पापं नुदामि ते॥३५॥

महीधर ने कहा—हे नरेन्द्र! स्त्रियाँ अनुपम एवं पवित्र वस्तुएँ हैं। यह धर्मतः स्वीकार किया गया है। (अन्य कन्याओं से विवाह अर्थात् बहु विवाह) अतः इस प्रकार विवाह को लेकर आपके मन में किसी भी प्रकार का ग्लानि भाव नहीं होना चाहिये। इस प्रकार (बहु) विवाह से आपको यदि कहीं पाप की प्रतीति होती हो, तो मैं (अपनी तपशक्ति के बल से) आपको उस पाप से विमुक्त करता हूँ।

 

नृपस्य बहव्यो विहिता महिष्यो लोकसम्मताः। 

श्रूयन्ते बहवः पुंसः एकस्याः पतयोऽपि च॥३६॥

हे राजन्! नरलोक के राजाओं की अनेक रानियाँ होना तो लोकमान्य है ही, किन्तु हमने तो सुना है कि वहाँ एक ही कमनीय नारी के अनेक पुरुष पति भी होते हैं? क्या यह सच नहीं?

 

एवं प्रव्याहृतं पूर्वम् आनुपूर्व्येण ता भज। 

मा च शङ्का तु तेऽत्र स्यात् कथञ्चिदपि मानुष॥३७॥

हे नरेन्द्र! मैं आपको बहु-विवाह की अनुमति प्रदान करता हूँ। आप किंचित् भी संकोच न करें। इन सबका क्रमशः पाणिग्रहण करें। आपको इस विषय में किसी प्रकार (पाप-पुण्य, लोककथन, नीति, धर्म आदि) की चिन्ता नहीं करना चाहिये।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

अधर्मोऽयं मतो मेऽद्य विरुद्धो लोकगर्हितः। 

ततोऽहं न करोम्येव व्यवसायं क्रियां प्रति॥३८॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे नागराज! (जैसा आपने कहा—) मेरी राय में तो यह अधर्म ही है और यह लोक तथा लोकहित दोनों के ही विरुद्ध है; इसलिये मैं लोकधर्म विरोधी ऐसे आचरण को कदापि व्यवहार में नहीं ला सकता।

 

आत्मनो यः श्रुतो धर्मः स धर्मो रक्षति प्रजाः। 

शरीरं लोकयात्रां च धनं स्वर्गमृषीन् पितॄन्॥३९॥

हे नागराज! पत्नी पति का आधा अंग होती है, यह श्रुति का स्पष्ट वचन है। वह धर्म सहित, प्रजा, शरीर, लोकजीवन, धन, स्वर्ग, ऋषि तथा पितरों आदि इन सबकी रक्षा करती है।

 

कृतदारोऽस्मि नागेन्द्र भार्येयं दयिता मम। 

पुरुषाणां च नारीणां सुदुःखा ससपत्नता॥४०॥

हे नागेन्द्र! मैं विवाह कर चुका हूँ। यह मेरी प्रिय पत्नी (माधवी जी) विद्यमान हैं। सौत का रहना केवल नारी के लिये ही अत्यंत दुःखों का कारण नहीं; अपितु पत्नी की सौत का होना पुरुष के लिये भी सदा ही दुःख का कारण होता है।

 

वरं कूपशताद् वापी वरं वापीशतात् कतुः। 

वरं क्रतुशताद् भार्या पत्न्येका स्त्रीशताद् वरम्॥४१॥

हे नागराज! सौ कुएँ खुदवाने की अपेक्षा एक बावड़ी बनवाना उत्तम है। सौ बावड़ियों की अपेक्षा एक यज्ञ कर लेना श्रेयस्कर कहा गया है। सौ यज्ञ करने से, पत्नी उपलब्ध कर ग्रहस्थ धर्म का पालन करना उत्तम माना गया है, उसमें भी सौ की अपेक्षा एक ही पत्नी होना सर्वोत्तम है।

 

न चान्यासां पतिरहं सत्यमेतद् वचो मम॥४२॥

(इन माधवीदेवी के अतिरिक्त) मैं अब अन्य किसी का पति नहीं हो सकता। यह मेरा सत्य वचन है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

इत्युक्तवाऽथ स जग्राह माधव्यास्स करं वरम्॥४३॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! इस प्रकार अपना स्पष्ट निर्णयात्मक मत अभिव्यक्त करते हुए श्री अग्रसेन ने नागकन्या माधवीजी के आभूषण युक्त कोमल हाथ अपने हाथों में ले लिये।

 

विलज्जमानाऽऽयतलोचनौ तौ। 

बद्धाञ्जली कुङ्‌कुमचर्चिताङ्गौ। 

तौ दम्पती तर्पितमाज्यपूरैः। 

हुताशनं सप्तपदान्ययास्ताम्॥४४॥

तदनंतर विशाल नेत्रों वाली उन नागसुता माधवी जी ने लजाते हुए श्री अग्रसेन के उत्तरीय का छोर अपने हाथों में थाम लिया। फिर वे दोनों पति-पत्नी (श्री अग्रसेन और माधवी जी) जिनके शरीर कुंकुम से चर्चित थे, अपनी अंजली बाँध कर यज्ञवेदी के निकट आए। वहाँ उन दोनों ने घी की आहूति से भली-भाँति तृप्त किए गए अग्निदेव की परिक्रमा की। फिर वे दोनों सात पग साथ साथ चले।

 

विवाहो नागकन्यायास्त्वग्रसेनेन तत्र वै। 

सम्पन्नो नरनागानां बभूव परमोत्सवः॥४५॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! इसप्रकार नागराज कुमारी माधवी देवी का श्री अग्रसेन के साथ विवाह सम्पन्न होने पर उससमय नर तथा नागों (शैवों-वैष्णवों) के मन हर्ष से प्रफुल्लित हो गए।

 

ततो महीधरो हृष्टः प्रददौ कन्यकाधनम्। 

हिरण्मयस्य स्वर्णस्य मुक्ताया विद्रुमस्य च॥४६॥

तदनंतर नागराज ने अपनी प्रसन्नता से कन्या के निमित्त कन्या धन (दहेज) में बहुत सारा धन दिया। विपुल स्वर्ण, रजत, मोती, मूंगे आदि कन्याधन (दहेज) के रूप में प्रदान किया।

 

तदाऽग्रसेनो धर्मात्मा विवाहे निर्वृते शुभे। 

ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं यदुपाहरदच्युतम्॥४७॥

विवाह सम्पन्न हो जाने पर नागराज द्वारा समर्पित (दहेज) में से धर्मवीर महाराजा अग्रसेन ने बहुत कुछ ब्राह्मणों को दान कर दिया।

 

दत्त्वा महीधरो दध्यौ किमस्मै दीयते मया। 

अग्रसेनाय तल्लोकमर्पयामीति मे मतिः॥४८॥

इस प्रकार जो कुछ दिया गया था (उतने मात्र से नागराज महीधर को संतुष्टि अनुभूत नहीं हुई) नागराज महीधर ने अपने मन में विचार किया कि मैं अपने जामाता महाराजा अग्रसेन को क्या दे रहा हूँ? (अर्थात् मात्र यह तो कुछ उपयुक्त नहीं है) इसलिये मेरी मति में यह उपयुक्त लगता है कि मैं (नागलोक के तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, व पाताल इन सात लोकों में सै) एक तल (राज्य) श्री अग्रसेन को अर्पित कर दूँ।

 

पश्यतां सर्वनागानां नागराजोऽब्रवीद्वचः।

ऐसा मन में निश्चय कर नागराज महीधर ने।सभी नागों के समक्ष यह घोषित किया—

 

॥महीधर उवाच॥

अग्रस्य नाम्ना भाषेरन् इमं लोकं तलोत्तमम्॥४९॥

नागराज महीधर ने कहा—इस नागलोक का यह उत्तम तल (राज्य) आज से श्री अग्रसेन के नाम से पुकारा जाएगा।

 

सुसंस्कृतेभ्यः सर्वेभ्यः रमणीयो भविष्यति। 

इदमग्रतलं नाम्ना त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥५०॥

दोनों संस्कृतियों (शैव और वैष्णव संस्कृति) का यह सम्मिलित केन्द्र_अत्यंत मनोहर प्रदेश "अग्रतल" के नाम से तीनों (देवलोक, नागलोक, मानवलोक) लोकों में प्रसिद्ध होगा।

 

सर्वरत्नाकरवती सर्वकामफलद्रुमा। 

सर्वाश्रमाधिवासा साऽग्रतलाख्या गुणैर्युता॥५१॥

इस तल पर जो नगर बसेगा (बसाया जाएगा) वह सब प्रकार के रत्नों की खान होगा। यहाँ के वृक्ष सम्पूर्ण मनोवांच्छित कामनाओं को फल के रूप में प्रदान करने वाले वाले होंगे। सभी आश्रमों के लोग यहाँ निवास करेंगे। यह नगर समस्त अभिलाषित गुणों से परिपूर्ण होगा।

 

यथायम् अग्रसेनो मे जामाता माधवीयुतः। 

पुत्रैः पौत्रैः परिवृतश्चिरकालं प्रशास्त्विमाम्॥५२॥

(श्री अग्रसेन के मंगल की पुनः कामना करते हुए नागराज ने कहा—) नागकन्या माधवी सहित मेरे जामाता श्री अग्रसेन पुत्र पौत्रादिकों से संपन्न होकर चिरकाल तक पृथ्वी पर शासन करें।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

नानालङ्करणैर्गार्ग्यं पूजयित्वाऽहिपो गुरुम्। 

प्रददौ चाखिलेभ्योऽपि रत्नश्रीकाञ्चनं बहु॥५३॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! तदनंतर, नागराज ने महर्षि गर्ग का नाना अलंकारों, वस्त्रादिकों से पूजन किया तथा शेष सभी को बहुत सारा स्वर्ण, रत्न, इत्यादिक प्रदान किये।

 

नागराजस्य लोके तु स महः सुमहानभूत्। 

माधव्या अग्रसेनस्य समे विघ्नाः पराजिताः॥५४॥

नागराज महीधर का वह नाग लोक विवाह के इस महोत्सव से अत्यंत सुशोभित हो रहा था। जहाँ विघ्नों को पराभूत कर नागकन्या माधवी का श्री अग्रसेन से विवाह सम्पन्न हुआ।

 

विवाहेऽत्यद्भूतं किं वा वक्तुं शक्नुमहे वयम्। 

न श्रुतं न च वा दृष्टं तेन मन्यामहेऽद्भुतम्॥५५॥

जैमिनी जी कहते है—हे महाप्राज्ञ परमजिज्ञासु जनमेजय! श्री अग्रसेन तथा नागसुता माधवीजी का यह अद्भुत विवाह प्रसंग जिस प्रकार (दो संस्कृति का समन्वय, नारी भोग की वस्तु नहीं, अपितु सहधर्मिणी, एक पत्नी व्रत आदि घटनाओं से युक्त) पूर्ण हुआ। जिसका यथावत् वर्णन करना भला कैसे संभव है? क्योंकि ऐसा अन्यत्र न तो किसी ने कभी देखा था और न ही कभी पहले सुनने में ही आया इसलिये मैं इस विवाह प्रसंग को अत्यन्त ही अद्भुत मानता हूँ।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते सप्तदशोऽध्यायः॥ 

॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।