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॥श्री अग्र भागवत॥

 

पन्द्रहवाँ अध्याय

 

मन्थन

 

॥जैमिनिरुवाच॥

अग्रस्य मोक्षं श्रुत्वा वै पन्नगो नागपाशतः। 

मनोगतं च नागेन्द्र्या इन्द्रस्य कोधकारणम्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन के नागपाश से विमुक्त हो जाने का समाचार सुनकर नागराज महीधर को बड़ी चिन्ता हुई। वे विचार करने लगे कि माधवी तथा महारानी नागेन्द्री का जो विचार है, वह निश्चित रुप से देवेन्द्र के कोप का कारण बनेगा, क्योंकि महीधर उन्हें आश्वस्त कर चुके थे।

 

महीपश्चिन्तयामास सङ्कटोऽयम् उपस्थितः। 

ततः स मन्त्रयामास भ्रातृ‌भिः सह पन्नगैः॥२॥

इस संकट से किस प्रकार विमुक्त हुआ जा सकता है? नागराज महीधर इसी चिन्ता में ग्रस्त थे, अतः उन्होंने अपने नागबंधुओं तथा सभी श्रेष्ठ नागों से इस संकट से विमुक्ति के विषय में मंत्रणा की।

 

॥महीधर उवाच॥

सङ्कटो हि यथा दृष्टो विदितं वस्तथानघाः। 

तन्मोक्षार्थ मन्त्रयित्वा प्रतिघातो विधीयताम्॥३॥

नागराज महीधर ने कहा—हे नागगणों! जिस प्रकार यह संकट आज उपस्थित हुआ है, वह सब आप लोगों को विदित ही है, इस आसन्न संकट से विमुक्त होने का क्या उपाय हो सकता है? एवं किस प्रकार इसका प्रतिकार संभव है? इस विषय में आप लोगों के क्या विचार हैं?

 

तस्मात् सम्मन्त्रयामोऽद्य पन्नगानामनामयम्। 

यथा भवेद्धि सर्वेषां मा नः कालोऽत्यगादयम्॥४॥

इसलिये हमें अभी ही अच्छी तरह से विचार कर लेना चाहिए कि किस किस उपाय से हमारा हित संभव है। जिससे हम सभी नाग कुशलतापूर्वक रह सकें। अब हमें समय को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए।

 

॥मणिनाग उवाच॥

नागसुतोद्वाह एव भुजङ्गभयकारणम्। 

यथा विवाहो न भवेद् तथा कार्य भुजङ्गम॥५॥

तब मणिनाग ने कहा—हे भुजंगपति! नागों के विनाश का एकमात्र कारण नागराज सुता का विवाह ही होगा (क्योंकि श्री अग्रसेन से विवाह न करने पर नागसुता अपने प्राणों की आहूति देने को आतुर हैं और नागेन्द्री रुष्ट होंगी, जिससे नागलोक में व्यापक असंतोष व्याप्त हो जाएगा और यह लोक विनाश की ओर प्रवृत्त होगा और यदि श्री अग्रसेन से विवाह कर दिया जाए, तो इन्द्रदेव रुष्ट होंगे। तो देवों से मैत्री संबंध समाप्त हो जायेंगे और दैवों से यह शत्रुता विनाश का कारण बनेगी। विनाश तो निश्चित ही है) अतः हमें ऐसा कोई उपाय सोचना चाहिए, जिससे ये विवाह अभी टल जाय या इसमें कोई विघ्न पड़ जाय।

 

॥अनन्तनाग उवाच॥

हेतुभिः कारणैश्चैव दर्शयन्त्यगुणान् बहून्। 

यथा विवाहो न भवेत्प्रेत्य चेह च दारुणम्॥६॥

अनन्तनाग ने अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए कहा—हे पन्नगश्रेष्ठ! हमें युक्ति और कारणों द्वारा यह दिखाना चाहिए कि इस (अग्र-माधवी) विवाह से नागलोक और मानव लोक अर्थात् शैव और वैष्णव दोनों संस्कृतियों में अनेक भयंकर दोष उत्पन्न होंगे, साथ ही वे सब कारण दर्शाये जायँ जिनके अनुरुप यह विवाह संभव न हो सके। 

 

॥कल्माष उवाच॥

तं गत्वा दशतात्कश्चिद् भुजङ्गः स मरिष्यति। 

तस्मिन् मृते हि पुरुषे विवाहो न भविष्यति॥७॥

कल्माष ने कहा – हे पन्नगराज! वह (अग्रसेन) जहाँ हो, वहाँ जाकर कोई नाग उसे विष दंशित करे। विष के प्रभाव से वह निश्चित ही मर जायगा। तब उस मृतक पुरुष से विवाह ही कैसे संभव होगा?

 

॥जैमिनिरुवाच॥ 

अपरे त्वब्रुवन्नागाः धर्मात्मनो दयालवः। 

अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत्॥८॥

जैमिनी जी कहते हैं कि—नागों के इस प्रकार के विचारों को सुनकर अन्य दूसरे दयालु तथा धर्मात्मा नागों ने उन्हें सचेत करते हुए कहा– संकट से बचने के लिए उत्तरोत्तर अधर्म की प्रवृत्ति तो संपूर्ण जगत् का ही नाश कर डालेगी।

 

मायायोगाद् वञ्चनीयः एकोपायः स एव हि । 

इत्युक्त्वा समुदैक्षन्त महीघ्रं पन्नगोत्तमम्॥९॥

'फिर तो माया के योग से मोह में आवेष्टित करके उसे ठग लिया जाय–यही एक उपाय दिखता है।' ऐसा कहकर वे पूर्व वक्ता सर्प नागराज महीधर की ओर देखने लगे।

 

॥कर्कोटक उवाच॥

भयस्य कारणं दैवम् इदं पन्नगसत्तमाः। 

दैवमेवाश्रयोऽस्माकं नान्यदत्रपरायणम्॥१०॥

कर्कोटक ने कहा – पन्नगश्रेष्ठ! हमारे ऊपर आच्छादित इस भय में देव भी विशेष रुप से कारणीभूत हैं। यदि देवों का भय न हो तो निःसंकोच स्वयंवरा माधवी जी अभिलाषित वर से विवाह की न्यायवत् अधिकारिणी हैं। ऐसी परिस्थिति में हमें देवों की ही शरण लेना चाहिए, इसके सिवा अब यहाँ कोई और दूसरा उपाय नहीं है।

 

॥महीधर उवाच॥

ज्ञातिवर्गस्य सौहार्दादात्मानः पन्नगोत्तमाः। 

न च जानाति मे बुद्धिः किञ्चित् कर्तुं वचो हि वः॥११॥

तब नागराज महीधर ने कहा—हे पन्नग गण! अपने जाति बंधुओं! आत्मीयों! हितैषियों! एवं सभी नाग श्रेष्ठियों! आपके कथनानुसार कोई भी उपाय मुझे हितकर प्रतीत नहीं होता।

 

॥नागाचार्य उवाच॥

कथं दुर्बलतां प्राप्तो निर्विषाः फणिनो यथा। 

क ते पुरुषमानित्वं क्क ते वाचस्तथाविधाः॥१२॥

तब नागाचार्य ने (फटकारते हुए) कहा—नागों! तुमने किसलिए जलसर्पों की भाँति विवशता को धारण कर लिया है? क्या सचमुच तुम्हारी विषशक्ति विनिष्ट हो गई है, कहाँ गया तुम्हारा पौरुष्य का अभिमान? कहाँ गई तुम्हारी दर्भ भरी बातें?

 

किं कृतं तेन राज्ञा हि तवाऽनिष्टं फणीश्वर।

किं दण्डभयमायातं नानुरूपं नृपात्मजात्॥१३॥

हे पन्नगेश्वर! (महीधर) उस राजा (अग्रसेन) ने तुम्हारा क्या अनिष्ट किया है? तुम्हें देवताओं के किस दंड का भय है? (अर्थात् तुमने देवताओं का क्या अपराध किया है? जो वे तुम्हें या राज्य को अकारण ही दंड दे सकें) तुमने देवताओं के अनुरूप क्या नहीं किया है? फिर देवों का व्यर्थ भय क्यों?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

परं भुजङ्गभवनं संवीक्ष्य स मनोरमम्। 

अग्रसेनो विवेशाथ महीधरकमन्दिरम्॥१४॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे परम जिज्ञासु जनमेजय! जब नागराज के राजभवन में इस प्रकार विचार विमर्श चल रहा था, तभी अपने लक्ष को दृष्टिगत रखते हुए नागपाश से विमुक्त हुए निर्द्वन्द श्री अग्रसेन वहाँ आ पहुँचे। नागराज महीधर के उस मनोहारी विशाल राजमहल में श्री अग्रसेन ने प्रवेश किया तथा देखा कि–

 

विमलैः पद्मगन्धैश्च महापातकनाशनैः। 

दिव्यैर्वृक्षैर्लताभिश्च शोभितं चामृतेन च॥१५॥

नागराज का वह भवन, महान् पातकों का विनाश करने वाले कमल की सुगन्ध से परिपूर्ण, निर्मल तथा दिव्य वृक्षों और लताओं से युक्त तथा अमृत से सुशोभित था।

 

नवकुण्डैः सुधापूर्णैर्महानागैः सुरक्षितम्। 

नानाभावैर्विचित्रं हि सर्वतश्चारु शोभनम्॥१६॥

वहाँ अमृत से भरे नव कुण्ड रखे थे, जिनकी रक्षा में विशालकाय नाग नियुक्त थे। सब ओर से नाना प्रकार के भावों को प्रदर्शित करने वाले विचित्र दृश्यों से वह राजभवन अत्यन्त सुन्दर लग रहा था।

 

नानारत्नमयं दिव्यं नानासद्मविराजितम्। 

मण्डितं तन्महीशेन फणाद्वादशकार्चिषा॥१७॥

अनेक प्रकार के रत्नों से बना हुआ वह दिव्य भवन अनेक सदनों (कक्षों) से सुशोभित था, जहां बारह फनों वाले नागछत्र के आसन पर नागराज महीधर विराजमान थे।

 

उपविष्टं ददर्शैनं प्रभया परया युतम्। 

सजीवा इव लक्ष्यन्ते नागराजाः सदस्स्थिताः॥१८॥

वहाँ श्री अग्रसेन ने उत्कृष्ट प्रभा से युक्त नागराज की उस काल्पनिक सी लगने वाली विचित्र शोभा को प्रत्यक्ष देखा। जहाँ नागराज के साथ ही नागगण विराजिमान थे।

 

सभा तस्य विचित्रैव रत्नचित्रा हिरण्मयी। 

अयुतस्तम्भसंयुक्ता नानाभावप्रदर्शिका॥१९॥

स्वर्णमयी दीवारों पर रत्नों की चित्रित वह विचित्र आश्चर्यजनक सभा जो अनेकों प्रियदर्शी स्तंभों से युक्त थी, अनेकों प्रकार के भावों का प्रदर्शन कर रही थी।

 

कर्पूरदीपैः शतशो भासिता वीथिकान्विता। 

दीपाश्चन्दनतैलेन केचित् सिक्ताः प्रभान्विताः॥२०॥

वह नागराज भवन सैकड़ों जलती हुई कर्पूर दीपों से उ‌द्भासित हो रहा था। संध्याकाल के सूचक तथा चन्दन के तेल से भरे कुछ दीपक वहाँ अपनी प्रभा के साथ ही सुगंध भी बिखेर रहे थे।

 

नानाव्यालसमाकीर्णैः शिखरैरिव मन्दिरम्। 

अग्रसेनो विस्मितोऽथ नागाऽधिपमथैक्षत॥२१॥

तब श्री अग्रसेन वहाँ नागाधिपति महीधर, जो नाना प्रकार के सर्पों से युक्त अनेकों शिखरों वाले मंदराचल पर्वत की भांति शोभायमान हो रहे थे, उन्हें विस्मय के साथ देखकर आश्चर्य चकित हो गए।

 

भ्राजमानं ततो दृष्ट्वाऽग्रसेनो भुजगेश्वरम्। मनसा चिन्तयामास तेजसा तस्य मोहितः॥२२॥

उन दीप्तिवान् भुजंगराज महीधर को अच्छी तरह देखकर उनके तेज से मोहित हो श्री अग्रसेन मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे–

 

अहो रूपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः। अहो पन्नगराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥२३॥

अहो! पन्नगराज का कैसा अद्भुत स्वरूप है! कैसा अनोखा धैर्य है! कैसी अनुपम शक्ति है! कैसा आश्चर्यजनक तेज है! इनका इस तरह संपूर्ण राज्योचित श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त होना सचमुच ही आश्चर्यजनक है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

शङ्कात्मा चिन्तयामास नागेन्द्रस्तेजसावृतम्। 

षडाननः किमेषोऽयं भवेत् साक्षादिहागतः॥२४॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! एक ओर श्री अग्रसेन इस प्रकार नागराज के व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित थे, वहीं श्री अग्रसेन को देखकर वे शंका ग्रसित नागराज मन में तरह-तरह के विचार करने लगे कि इस तेजस्वी के रूप में कहीं कुमार कार्तिकेय तो यहाँ नहीं पधारे हैं। श्री अग्रसेन की तेजस्विता से उन्हें मन में श्री अग्रसेन में कुमार कार्तिकेय का भान हो रहा था –यह अत्यंत ही शुभलक्षण था।

 

अग्रसेनः पुरः स्थित्वा प्रत्युवाच फणीश्वरम्। 

काम्यया शरणं प्राप्तो भवन्तं पन्नगेश्वरम्॥२५॥

हे जनमेजय! तत्पश्चात नागराज महीधर के सामने अपनी उपस्थिति को अभिव्यक्त करते हुए श्री अग्रसेन ने कहा – हे नागराज! मैं विशिष्ट कामना से यहाँ आपकी शरण में आया हूँ।

 

अग्रसेनस्तदाऽऽसीनः परमे पन्नागासने। 

द्विजिह्वपतिरव्यग्रो महीघ्रोप्यभ्यभाषत॥२६॥

तदनंतर नागों द्वारा दिए हुए उस चित्रित श्रेष्ठ आसन पर जब महाराजा अग्रसेन विराजमान हो गए तब नागराज महीधर ने उनसे शांत भाव से कहा—

 

॥महीधर उवाच॥

कुतस्त्वं कोऽसि कस्यासि किमिहास्ति प्रयोजनम्। 

नैवंविधः परिज्ञातो दृष्टपूर्वोऽत्र वै नरः॥२७॥

तब नागराज महीधर ने पूछा—आप कहाँ से आए हो? कौन हो? किसके पुत्र हो? यहाँ आने का आपका प्रयोजन क्या है? हमारे द्वारा आपके जैसा पुरुष यहाँ इस नागलोक में पहले कभी नहीं देखा गया। (आप सर्वथा नये आये हो)

 

॥अग्रसेन उवाच॥

अहं सूर्यकुलोद्भूतो वल्लभस्य सुतस्तथा। 

महालक्ष्मीप्रसादाय गार्ग्येनाथानुदीक्षितः॥२८॥

श्री अग्रसेन ने कहा – हे नागराज! सर्वलोकों (देव, नाग, नर, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि)-में विख्यात सूर्यकुल में उत्पन्न महाराज वल्लभसेन का मैं पुत्र हूँ जिसे महर्षि गर्ग ने दिशा प्रदान की, जिससे महालक्ष्मी की महत् कृपा से मेरे द्वारा स्वयं के राज्य की संरचना की गई है।

 

वृणुयाद् नागकन्या मां, कामयानोऽहमागतः। 

गच्छेयं तामनुप्राप्य वर एष वृतो मया॥२९॥

हे नागराज! मैं नागराज सुता माधवी देवी को वरण करने की कामना से ही यहाँ इस नागलोक में आया हूँ और उनके साथ विवाह करके ही यहाँ से जाऊँगा। यही मेरा अनुष्ठान (व्रत) है।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं तमुवाच फणीश्वरः। 

पुङ्गवेदं दुर्लभं ते कथं नागसुताऽर्थ्यते॥३०॥

 

जैमिनी जी कहते हैं—जनमेजय! श्री अग्रसेन की यह बात सुनकर नागराज महीधर ने कहा—मनुजश्रेष्ठ! तुम जो इस प्रकार नागपुत्री हेतु प्रार्थना कर रहे हो वह तुम्हारे लिए सर्वथा दुर्लभ है।

 

शिवस्यायं द्वेष इति चिन्तयन् पन्नगेश्वरः। 

विष्णुद्वेषादिदानीञ्चैवान्तरं प्रेप्सुरब्रवीत्॥३१॥

जैमिनी जी कहते हैं – राजन् जनमेजय! नागराज महीधर वैष्णवों से द्वेष भाव रखते थे। वे ये सोचते थे कि वैष्णव शिवद्रोही हैं, तथा (नाग संस्कृति के पोषक नागराज नागों का, विष्णु वाहन गरूङ से स्थाई वैर की भावना से वशीभूत) नागेन्द्र सदैव वैष्णवों के दोष ही ढूँढते रहते थे।

 

॥महीधर उवाच॥

जानामि शीलं लोकेषु ज्ञात्याचरणमप्यहम्। 

हृष्यन्ति व्यसनेष्वेते ज्ञातीनां ज्ञातयः सदा॥३२॥

तब महीधर ने कहा—तुम्हारे लोक में तुम्हारे सजातीय बंधुओं का जो स्वभाव है, तथा आचार व्यवहार है, उसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे यहाँ स्व-जातीय जन सर्वदा अपने अन्य सजातीय बंधुओं के दुःख में या आपत्ति में पड़ने पर ही हर्ष मनाते हैं।

 

यथा पुष्करपत्रेषु पतितास्तोयबिन्दवः। 

तथा न श्लेषमिच्छन्ति ज्ञातयः स्वेषु सौहृदम्॥३३॥

जैसे कमल के पत्तों पर पर गिरी हुई पानी की बूंदे उसमें अधिक देर नहीं टिकती, वैसे ही आर्यों के हृदय में परस्पर सौहाद्र अधिक देर नहीं टिकता।

 

श्रूयन्ते ज्ञातयोऽप्येवं परं परिभवन्ति च। 

कृत्स्नाद् भयाज्ज्ञातिभयं कुकष्टं विहितं च नः॥३४॥

सुना है– वहाँ कुटुम्बी जन आपस में एक-दूसरे को अपमानित करने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की चेष्टा करते रहते हैं, वहाँ दूसरे भयों से अधिक स्वयं जाति भाईयों से प्राप्त होने वाला भय ही अधिक कष्टदायक होता है।

 

नागकन्यां प्रार्थयानस्त्वं नाप्यामकृतात्मभिः। 

विनशिष्यसि दुर्बुद्धे तदुपारम मा चिरम्॥३५॥

वैष्णव, जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है अथवा जो पुण्यात्मा नहीं है, उनके लिये नागकन्या की प्राप्ति असंभव है। हे दुर्बुद्धे! तुम नागकन्या की प्राप्ति के लिये याचना करते-करते विनाश को प्राप्त हो जाओगे, तो भी तुम उसे प्राप्त नहीं कर सकते। अतः इस दुराग्रह को छोड़कर जितना शीघ्र हो सके, तुम यहाँ से चले जाओ।

 

न पद्माङ्का न चक्राङ्का न वज्राङ्का हि वैष्णवाः। 

लिङ्गाङ्कका भगाङ्काश्च तस्माच्छैवाः समे जनाः॥३६॥

ब्रूहि श्रेष्ठः कोऽत्र कस्मात् शैववैष्णवयोः परः। 

कथं प्राप्या नागकन्या? ज्ञातिना पुङ्गव व्रज॥३७॥

तब नागेन्द्र महीधर ने कहा—तुम वैष्णव कहलाने वाले विष्णु के भक्तों के शरीरों में न तो कहीं पद्म का चिह्न दिखाई देता, न चक्र का, न ही वज्र का ही (फिर तुम कैसे वैष्णव हो?) किन्तु शैवों के आराध्य शिव-शिवा के प्रतीक चिह्न लिंग तथा भग तो सारी सृष्टि के स्त्री-पुरुषों में विद्यमान हैं। कहो– वैष्णवों और शैवों में कौन श्रेष्ठ है? कैसे श्रेष्ठ है? (अर्थात वैष्णव से शैव परम श्रेष्ठ हैं) फिर हे आर्य जाति के पुरुष! (जब तुम हमारे समकक्ष नहीं हो) तो तुम्हें नागकन्या किस तरह प्राप्त हो सकती है? अतः इस दुराग्रह को छोड़कर तुम तुरंत लौट जाओ।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

भवान् मान्यः पितृसमो न च धर्मपथे स्थितः। 

स त्वं भ्रान्तोऽसि मे ब्रूहि यदिच्छसि करोमि ते॥३८॥

तब श्री अग्रसेन ने कहा – हे नागपति! आप मेरे लिये पिता तुल्य आदरणीय हैं, आप कुछ भी कह सकते हैं, किन्तु आपके कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी बुद्धि भ्रम में फँसी हुई है, अतः आप धर्म पथ पर स्थित नहीं हैं। आपका यह कथन सही नहीं है, आप यदि स्वीकृति दें तो मैं यह स्पष्ट कर सकता हूँ।

 

मतिमान् शास्त्रवित् प्राज्ञः विज्ञानी चासि पन्नग। 

त्यजेमां प्राकृतां बुद्धिं कृत्वाऽऽत्मार्थप्रदूषणीम्॥३९॥

हे नागेन्द्र! आप परम बुद्धिमान् हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, विचार कुशल हैं, विशेष ज्ञान संपन्न हैं, अतः आप कृतात्मा पुरुषों की भाँति इस अर्थदूषक प्राकृत बुद्धि का परित्याग करें।

 

कथं श्रेष्ठः स यो मानी नरो वाऽन्योऽन्यनिन्दकः। 

आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थकाम्॥४०॥

जो नर या नाग व्यर्थ अभिमान करके आन्वीक्षिकी (छिद्रन्वेशी) तथा निरर्थक तर्क विद्या (बुद्धिविलास)-में अनुरुक्त होकर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये दूसरों की निन्दा करते हैं, वे किसप्रकार श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं?

 

देवेषु नागमर्त्येषु सर्वभूतेषु सर्वदा। 

सर्वे पूज्याश्च मान्याश्च श्रुतवन्तोऽनसूयकाः॥४१॥

महामने! अच्छी और बुरी प्रकृति के लोग सर्वत्र विद्यमान हैं, तथापि देवों में, नागों में, मनुष्यों में, तथा अन्य सभी लोकों में विद्वान् और दोष रहित पुरुष ही देव, नाग, नर, नर, गंधर्व, यक्ष चाहे कोई हो सदा ही पूजनीय और माननीय रहते हैं।

 

अक्रोधः सत्यवचनो न हिंस्रो दान्त आर्जवी। 

अद्रोहोऽनभिमानश्च तितिक्षुः शान्त उत्तमः॥४२॥

यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि नागप। 

स्वभावतो निविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति॥४३॥

हे नागेन्द्र! जिनमें क्रोध का अभाव, सत्यभाषण, अहिंसा की भावना इन्द्रिय संयम, सरलता, द्रोह हीनता, अंहकार शून्यता, लज्जा, सहनशीलता, धैर्य और मनोनिग्रह ये गुण संभवतः दिखाई देते हों तथा जिनके कार्य धर्म विरुद्ध न हों, वस्तुतः वे ही सम्मान के अधिकारी होते हैं और कन्यादान के योग्य पात्र भी। यही श्रुतियों का श्रेष्ठ मत है।

 

भक्तिज्ञाने न भिन्ने ते न भिन्नौ शिवकेशवौ। 

तस्माद् भेदो न कर्तव्यस्तदकर्तुः सदा सुखम्॥४४॥

हे नागेन्द्र! जिस प्रकार भक्ति और ज्ञान भिन्न नहीं होते, भक्ति बिना ज्ञान नहीं होता, और ज्ञान बिना भक्ति नहीं होती, शिवजी ज्ञान के प्रतीक हैं और विष्णु भगवान भक्ति के। उसी प्रकार शिव और विष्णु भिन्न-भिन्न नहींहै। आपका ईश्वर के रूप में भेद करना उचित नहीं।

 

कः शिवः को हरिः को वा रुद्रः को वा विधिश्च कः। 

एतेषु निर्गुणः को वा ह्येतं नश्छिन्धि संशयम्॥४५॥

शिव कौन है? विष्णु कौन है? रुद्र कौन है? ब्रह्मा कौन है? इस विषय में भ्रांतियों के कारण हमारे मनों मे बड़ा संदेह है। हे नागराज! आप इन संशयों से मुक्त हों। वस्तुतः ईश्वर तो एक ही है।

 

यच्चादौ हि समुत्पन्नं निर्गुणात्परमात्मनः। 

तदेव शिवसञ्ज्ञातं वेदवेदान्तिनो विदुः॥४६॥

हे नागेन्द्र! इस सृष्टि के आरंभ में जो निर्गुण, निराकार परमात्मा हुए; उन्हें ही वेदों, तथा वेदान्त के ज्ञाताओं ने 'शिव' नाम से जाना है।

 

तस्मात्प्रकृतिरुत्पन्ना पुरुषेण समन्विता। 

ताभ्यां तपः कृतं तत्र जलस्थाभ्यां पुरा सुधीः॥४७॥

हे नागराज! उन्हीं शिव से प्रकृति सहित पुरुष का उद्भव हुआ और फिर उन दोनों ने जल में स्थित होकर तपस्या की।

 

सम्भाव्य मायया युक्तस्तत्र सुप्तो हरिः स वै। 

नारायणेति विख्यातः शक्तिर्नारायणी मता॥४८॥

यह जानकर 'श्री विष्णु' अपनी माया के साथ उसी जल में शयन करने लगे और तब पुरुषरूपा वे 'हरि' ही 'नारायण' नाम से विख्यात हुए तथा प्रकृति ही 'नारायणी' के रूप में पूजित हुईं।

 

उभयोर्वामशयने यद्रूपं दर्शितं तदा। 

महादेवेति विख्यातं निर्गुणं सा शिवा मता॥४९॥

हे पन्नगपति! निर्गुण स्वरूप वाले भगवान् 'शिव' ने ही ब्रह्मा और विष्णु के मध्य उपजे इसी श्रेष्ठता के पारस्परिक विवाद को शांत करने के लिये अपने जिस स्वरूप का प्रदर्शन किया था वही स्वरूप 'महादेव' के नाम से विख्यात हुआ।

 

शिवे त्रिगुणराहित्यं हरौ तु गुणधामता। 

वस्तुतो न हि भेदोऽस्ति स्वर्णे सा भूषणे भिदा॥५०॥

इस प्रकार हे नागेन्द्र! माया के तीनों गुणों से रहित होकर स्थित निराकारी भगवान् 'शिव' तथा माया से संयुक्त सगुण साकार रूप भगवान् 'श्री विष्णु' में उसी तरह कोई भेद नहीं है, जिस प्रकार स्वर्ण में और स्वर्ण से निर्मित आभूषण में कोई भेद नहीं होता। उसी प्रकार हे नागेन्द्र! वस्तुतः ईश्वर तो एक ही है।

 

समरूपसुकर्माणौ समं भक्तगतिप्रदौ। 

समानावखिलैः सेव्यौ नानालीलाविहारिणौ॥५१॥

ये दोनों ही समान स्वरूप तथा समान कर्मों वाले अनेक प्रकार की लीलाएँ करने तथा अपने भक्तों को समान रूप से सद्गति प्रदान करने वाले और सभी के द्वारा चाहे वे शैव हों या वैष्णव, दोनों ही समान भाव (ऐकात्म भाव)-से सेवा पूजा किये जाने के योग्य हैं। इस प्रकार यह सिद्ध है, कि ईश्वर तो एक है।

 

यथैक एव सूर्योऽयं ज्योतिर्नानार्च्यते जनैः 

जलादि च विशेषेण दृश्यते तत्तथैव तौ॥५२॥

हे पन्नगपति! जिस प्रकार एक ही सूर्य के लोगों को चंचल जल में अनेक सूर्य दिखाई देते हैं, उसी प्रकार वह परम पिता परमात्मा एक होते हुए भी भ्रांति के कारण ही अनेक रूपों में भासमान होते हैं, वस्तुतः ईश्वर तो एक ही है।

 

विश्लेषण—

उर्ध्व रेता का एक अर्थ होता है तपस्वी और दूसरा ऊपर देखने वाला—दोनों को सूर्य (ईश्वर) एक ही दिखाई देता है, किन्तु सागर की लहरों के किनारे बैठने वाले व्यक्ति को जिस प्रकार हर लहर के साथ सूर्य के भिन्न स्वरूप का भास होता है, उसी प्रकार संसार सागर में मन की चंचल लहरों के कारण ईश्वर भिन्न दिखाई देते हैं, किन्तु स्थिर जल में अर्थात् आत्मदर्शी होने पर सूर्य (ईश्वर) एक है, स्पष्ट आभास हो जाता है।

 

इति नो विविधं वाक्यमृषीणां च समागतम्। 

इत्येवञ्च समाख्यातं यत्पृष्टं पन्नगानघ॥५३॥

हे निष्पाप नागेन्द्र! अपकारी होकर आपने भगवान् शिव-विष्णु में जिस प्रकार भेद प्रदर्शित करते हुए जो कुछ पूछा था—मैंने ऋषियों के सतसंग से प्राप्त ज्ञान के आधार पर आपको स्पष्ट कर दिया कि ईश्वर तो एक ही है।

 

हरस्याभूषणं शेषं धरापर्वतधारिणम्। 

नारायणः स्वासनं तं कुरुते श्रीकरं सुखम्॥५४॥

हे नागराज! पर्वतों सहित धरा मंडल को धारण करने वाले नागेश्वर शेषनाग एक ओर भगवान शिवशंकर के आभूषण स्वरूप हैं, उसी प्रकार भगवान् विष्णु के छत्र सहित आसन भी, जिन पर श्री लक्ष्मी जी सहित भगवान् विष्णु सुखपूर्वक विराजमान हैं। आप तो स्वयं दोनों संस्कृतियों के सम्मिलित स्वरूप के प्रतीक हैं। हे नागेन्द्र! अतः कृपया अपनी भेद-दृष्टि का परित्याग कीजिएगा।

 

॥महीधर उवाच॥

विस्मयो मे महान् श्रुत्वा राजन् ते परमाद्भुतम्। 

एतद् रहस्यं विज्ञातं याथातथ्येन हि त्वया॥५५॥

तब नागेन्द्र महीधर ने कहा—हे राजन्! इस परम रहस्य को आपके द्वारा जिस प्रकार तथ्यों सहित शिव – विष्णु के एकात्म रूप में दर्शाया गया, उस परम अद्भुत यर्थाथ स्वरूप को आपसे सुनकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ। वस्तुतः ईश्वर एक ही है, इनमें विभेद करना भ्रम ही है। आपने आज हमारे ज्ञान चक्षु खोल दिये।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

युवा मतिमतां श्रेष्ठो ज्ञानविज्ञानकोविदः। 

सर्वानेव निजग्राह चकार च निरुत्तरान्॥५६॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे महामनीषी जनमेजय! श्री अग्रसेन युवा होकर भी श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त तथा ज्ञान विज्ञान में प्रवीण थे, इसीलिये उन्होंने अपने तर्क पूर्ण आग्रह वचनों से सभी को निगृहीत करते हुए निरुत्तर कर दिया।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

नरनागविरोधेन भविता कुलसङ्करः। 

पौत्रस्ते भविता नागस्तेजोवीर्यसमन्वितः॥५७॥

तब श्री अग्रसेन ने कहा—हे नागेन्द्र! नर और नागों में विरोध होने पर (युद्धादि के कारण) दोनों ही कुलों में संकरता आ जायगी। (महर्षि गर्ग एवं ऋषिश्रेष्ठ उद्दालक द्वारा प्रेरित इस उपक्रम का वास्तविक कारण है कि)- नागवंश की इस सुकन्या से हमारे वंश में तेजस्विता का संचार होगा। जिससे दोनों ही कुल यशस्वी होंगे।

 

नारी कुलं वर्धयति नारी पुष्टिर्गृहे परा। 

नारी लक्ष्मीः रतिः साक्षात् प्रतिष्ठा सन्ततिस्तथा॥५८॥

श्रेष्ठ नागेन्द्र! नारी ही कुल की वृद्धि करती है, वह घर में परम पुष्टि स्वरूपा होती है, तथा नारी ही घर की लक्ष्मी कही गयी है, वही रति है, वही मूर्तमती प्रतिष्ठा तथा संतान परंपरा का आधार है।

 

महाकुलानां चरितं तनोति निकषोपमम्। 

दातारं हव्यकव्यानां प्रसूते पुत्रकञ्च या॥५९॥

पत्नी के स्थान पर प्रतिष्ठित होकर नारी देवों तथा पितरों को हव्य कव्य प्रदान करने वाले पुत्रों को जन्म देती है, वही अपने सदाचार के द्वारा उच्चकुलों के चरित्र की कसौटी समझी जाती है।

 

ततस्ते वंशकार्यार्थमहं त्वां समुपागतः। 

एवं मनो दृढं कृत्वा त्वयि सर्वं निवेदितम्॥६०॥

हे नागराज! इसीलिये दोनों कुलों के तेज से संभूत वंश के विकास की कामना अभिपूर्ति हेतु मैं आपके इस नाग लोक में आया हूँ और अपने हृदय के इस दृढ़ निश्चय के साथ आपकी पुत्री नागकन्या माधवी देवी के साथ विवाह का प्रस्ताव आपके समक्ष पुनः रख रहा हूँ।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

तामुवाच तु नागेन्द्रः कथं त्वां प्रीणयाम्यहम्। कथं ह्यहं प्रतिश्रुत्य महेन्द्राय विशेषतः॥६१॥

जैमिनी जी कहते हैं—श्री अग्रसेन जी की तात्विक बातों से अत्यंत प्रभावित होने के बावजूद नागेन्द्र महीधर ने उनसे कहा कि हे राजन्! किन्तु मैं माधवी का पाणिग्रहण तुम्हारे साथ कैसे कर सकता हूँ? मैं देवराज इन्द्र से इस हेतु वचन बद्ध होकर अब इस प्रकार तुमसे उसका विवाह नहीं कर सकता।

 

तेन वैरं त्वया सार्धं कर्तव्यं नात्र संशयः। 

न तस्य पादरजसा तुल्योऽहं प्रीणयामि वा॥६२॥

ऐसा करने पर देवराज इन्द्र आपके साथ वैर कर सकते हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि तुम उनके पैरों के धूल के समान भी नहीं हो, फिर तुम्हारे साथ किस प्रकार मैं अपनी कन्या का विवाह कर दूँ?

 

एवं चिन्तयमानस्य श्रुत्वा वाचमहीशितुः। 

अग्रसेनोऽब्रवीद् वाक्यमर्थशास्त्रविशारदः॥६३॥

ऐसा विचार करने वाले नागराज महीधर के उन वचनों को सुनकर तब अर्थयुक्त वचन बोलने में प्रवीण श्री अग्रसेन ने तब इस प्रकार कहा—

 

॥अग्रसेन उवाच॥

नाकृतज्ञा न च क्लीबा नावलिप्ता न बालिशाः। 

न देवाः क्षुद्रकर्माणः मा मैवं नागराड्वर॥६४॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे तात! कृपया ऐसी बात न कहिए। देवता ऐसा छुद्र निम्न स्तरीय कर्म करने वाले नहीं होते। वे न तो कृतघ्न होते, न कायर, न ही अहंकारी और न मूर्ख ही।

 

तत्परस्तन्मनाश्चास्मि तद्भक्तस्तत्प्रिये रतः। 

कथं पापं करिष्यन्ति विज्ञायैवंविधं हि माम्॥६५॥

मैं शरीर से सत्याचरण द्वारा उन देवताओं के हित कार्यों में, जिनसे दैव प्रसन्न होते हैं, सदैव तत्पर रहता हूँ। मन में उनका निरंतर चिन्तन करता हूँ, उनमें भक्ति भाव रखता हूँ, सदैव उनकी प्रियता में रत रहता हूँ। यह जानकर भी वे मेरे साथ अकारण पापपूर्ण दुर्व्यवहार क्यों करेंगे?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

इत्येवमुक्ते वचनेऽग्रेण वै नागमण्डले। 

उदतिष्ठन्महान् नादः प्रशंसन् अग्रसेनकम्॥६६॥

जैमिनी जी कहते हैं—श्री अग्रसेन के इस प्रकार आश्वस्ति प्रदायक वचनों को सुनकर वहाँ नाग मंडल में श्री अग्रसेन की प्रशंसा से युक्त हर्षपूर्ण तीव्र कोलाहल होने लगा।

 

॥उद्दालक उवाच॥

अग्रसेनो महाबाहुर्योद्धा तादृङ्न विद्यते। 

अमी नागसुतास्तस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥६७॥

इस प्रकार घटना क्रम की निरंतरता के मध्य वहाँ नागों के पूज्य महर्षि उद्दालक पधारे। महर्षि उद्दालक ने कहा—ये श्री अग्रसेन जिस तरह शास्त्रों में विशेष पारंगत हैं, उसी तरह ये महान् योद्धा भी हैं। जो तुम देख ही चुके हो नागराज! इस नागलोक में इनकी सोलहवीं कला के बराबर भी कोई नहीं है।

 

वैष्णवानां प्रभावोऽयं न केन विदितः पुरा। 

देवतानां सकाशं च ये गच्छन्ति निमन्त्रिताः॥६८॥

हे नागराज! ऐसा और कौन है? जिसे इन आर्यों (वैष्णवों) के उस प्रभाव का ज्ञान नहीं कि ये ही आर्ष पुरुष देवताओं द्वारा निमंत्रित होने पर देवासुर संग्राम में देवों की सहायता के लिये जाते हैं।

 

देवतार्थं नृणां यत्नः सदा दानवसङ्क्षये। 

तेषां प्रियार्थं संग्रामे युज्यन्ते नरपुङ्गवाः॥६९॥

देवत्व जीवन्त करने के लिये देवताओं के लिये ही श्रेष्ठ नर देवों की ओर से देवासुर संग्राम में जूझते हैं।

 

सदृशो धर्मसम्बन्धः सदृशो गुणसम्पदा। 

सम्बन्धेनानुबध्येतां भवन्तौ पुण्यकर्मणा॥७०॥

नागराज! 'अग्रसेन और माधवी का विवाह' सम्बन्ध सर्वथा धर्म पूर्ण तथा परम पुण्य दायक कर्म होगा। गुण, रूप, संपदा में दोनों ही समान हैं। और दोनों ही कुल समान रूप से धर्म को मानने वाले हैं। अतः इन्हें एकसूत्र 'परिणयसूत्र' में बाँध दिया जाना चाहिये।

 

प्राप्तः सुरामयः स्वामिन् मनो मार्गाच्युतं तव। 

भविष्यति श्रेयसीह सर्वलोकहितावहे॥७१॥

हे नागराज! इस सौभाग्यशाली समय में तुम्हारा हृदय श्रेयस मार्ग से विचलित हो रहा है। यह 'माधवी-अग्रसेन' का विवाह वृहत् यश प्रदायक, तथा देव, नाग, नर सभी लोकों के लिये हितकारी है, अतः आप देवों की ओर से पूर्ण निश्चिंत होकर प्रसन्न मन से सुसम्बन्ध स्वीकार करें।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

सोऽहर्षयत् तु सर्वेषां मधुरोऽश्रुयुतस्वनः। 

नागेन्द्री नागकन्या च सभाभवनमागते॥७२॥

जैमिनी जी कहते हैं—तभी सबके हर्ष को बढ़ाता हुआ वह मधुर घोष सब ओर सुनाई देने लगा। महर्षि के वचनों के अनुकूल नागराज की स्वीकृति स्वरूप वहाँ राजभवन में नागेन्द्री और नागकन्या माधवी जी आ पहुँची।

 

माधवी प्रसमीक्ष्यैनमग्रं लज्जितमानसा। 

आश्वासयद् वरारोहां स हृष्टेनान्तरात्मना॥७३॥

और तब नागसुता माधवी जी ने लजाते हुए श्री अग्रसेन जी की ओर दृष्टिपात किया तो श्री अग्रसेन ने उल्हासित अन्तरमन से उस सुन्दरी को नयनों से आश्वस्त किया।

 

तौ परस्परसम्प्रीताववन्देतां कृताञ्जली। 

प्रशंसताम् अग्रसेनं शब्दोऽभूद् विस्मयावहः॥७४॥

वे दोनों 'अग्रसेन और माधवी' एक दूसरे को पाकर बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे, तथा उपस्थितों का हाथ जोड़कर अभिनंदन कर रहे थे। सब ही हर्षित होकर श्री अग्रसेन जी की प्रशंसा कर रहे थे और इनके भाग्य को सराह रहे थे।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

नो शक्यमग्रसेनेन जनमेजय यत् कृतम्। 

यत्र धीर्ह्रीः स्थिता तत्र श्रीश्च लभ्याऽनपायिनी॥७५॥

जैमिनी जी कहते हैं– हे जनमेजय! अद्भुत एवं सर्वथा असंभव सा प्रतीत होने वाला यह कार्य, जैसा श्री अग्रसेन द्वारा किया गया, भला इनके सिवाय और कौन पुरुष कर सकता था? अर्थात् और कोई नहीं।

जैमिनी जी कहते है—यह सत्य ही है कि जहाँ बुद्धि है वहाँ श्री विद्यमान है और जहाँ श्री विद्यमान है वहाँ क्या अलभ्य है?

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते पञ्चदशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का पंद्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।