॥श्री नारायणी चरित मानस॥
॥श्री राणी सत्यै नमः॥
श्री नारायणी चरित मानस
卐 ॐ 卐
-: तृतीय स्कन्ध :-
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
॥भाषा-टीका॥
दैत्यों को मारने वाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवी! मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परमसुख दो, रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो। यश (मोह विजय तथा ज्ञान-प्राप्ति रूप यश) दो, और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥
॥चौपाई॥
यह सब चरित कहा मैं गाई।
दूसरी कथा सुनो मेरे भाई॥
जालीराम एक वैश्य सुजाना।
रहते थे दिल्ली जग जाना॥
दयावान, सुन्दर, मति धीरा।
व्यापारी थे अति गंभीरा॥
लेन देन धन्धा करते थे।
खूब भक्ति शिव की करते थे॥
गुणवंती थी नारी सुन्दर।
रहती पति सेवा में तत्पर॥
नारि धर्म पालन करती थी।
साधु संत सेवा करती थी॥
गति अनुसार समय जाता था।
धन्धा भी अच्छा चलता था॥
एक समय की बात बताऊँ।
मति अनुसार प्रसंग सुनाऊँ॥
नगर हिसार अति विख्याता।
जालीराम रुके मग जाता॥
मिली सूचना जब नवाब को।
झट बुलवाया जालीराम को॥
॥दोहा॥
सेनापति झट ले गया, जालीराम को आय।
खास महल में ले गया, झड़चन्द दिया मिलाय॥१॥
॥चौपाई॥
बहु प्रकार आदर देखाई।
राजोचित् कीन्ही पहुनाई॥
राजनीति की बात चलाई।
अर्ध-निशा चर्चा में जाई॥
जालीराम की देखि चतुरता।
बोले वचन नवाब तुरंता॥
सब प्रकार दूँगा सनमाना।
आदर, ओहदा, धन अरु धाना॥
पद दीवान आप अपनालो।
मित्र हमारी बात न टालो॥
क्षण भर सोच किया मन मांई।
कैसे अब मैं करूँ मनाई॥
कह नवाब दीवान सुजाना।
शीघ्र दिल्ली से वापस आना॥
शीश नवा, अनुशासन लीन्हा।
तुरत शयन व्यापारी कीन्हा॥
प्रातःकाल गणेश मनाई।
रथ दिल्ली की ओर चलाई॥
आकर सारी कथा सुनाई।
सुनि हरषी शारद मन मांई॥
जालीराम कहा समुझाई।
चलने की अब करो उपाई॥
॥दोहा॥
नगर हिसार पहुँच कर, डेरा दीन्हा डाल।
काम दिवानी का सभी, जल्दी लिया सम्माल॥२॥
॥चौपाई॥
बहु प्रकार कल्पना लगाई।
राजकाज करते मन लाई॥
ऐसी सुन्दर नीति बनाई।
जालीराम की फिरी दुहाई॥
बांसल गोत्र जाति जालाना।
दो सुत एक सुता जग जाना॥
जेठे सुत थे तनधन दासा।
मात-पिता, गौ, ब्राह्मणदासा॥
रण बांकुर, तलवार प्रवीणा।
तैसा ही व्यापार प्रवीणा॥
सुता एक थी सुन्दर श्यामा।
गुणवंती थी स्याना नामा॥
दूजे पुत्र कमलरामा थे।
सबकी आँखों के तारे थे॥
मात-पिता, भ्राता अनुसारी।
अति विनीत अति आज्ञाकारी॥
॥दोहा॥
जालीराम प्रसन्न थे, मन में सभी प्रकार।
सुत, दारा, धन, धान्य से, पूरे थे भण्डार॥३॥
दयावान परिवार था, पत्नी जालीराम।
तनधन पुत्र सुजान थे, दूजे कमलाराम॥४॥
॥चौपाई॥
गौ, ब्राह्मण सेवा करते थे।
खूब प्रसन्न सभी रहते थे॥
था नवाब का पुत्र सुजाना।
वय किशोर सब भाँति सुहाना॥
राजकुमार, कमल, तनधन जी।
साथ खेलते थे भरकर जी॥
कबहुँ कबड्डी खेल रचाये।
कबहुँक सब मिल दौड़ लगाये॥
कबहुँ जाय जंगल के मांई।
मृगया कर घर वापस आई॥
तनधन, कमलाराम, राजसुत।
चपल तुरग दौड़ाते इत उत॥
घोड़ी थी इक तनधन पाहीं।
सूर्य अश्व भी देखि लजाहीं॥
पीत वदन गति तेज तरारी।
तनधन जी की आज्ञाकारी॥
अश्व दौड़ में चपल तुरंगी।
आगे रहती तनधन संगी॥
॥दोहा॥
राजकुमार विचारे मन, कैसी तुरगि सुहाय।
घोड़ी तो लायक मेरे, मन में गई समाय॥५॥
यह प्रसंग यहिं छोड़कर, चलो डोकवा ग्राम।
नाराणी रहती जहाँ, भक्तों की सुख धाम॥६॥
सेठानी कह सेठ से, हाथ जोड़ सिर नाय।
वर ढूँढो नाराणी हित, इत उत दूत पठाय॥७॥
॥चौपाई॥
गुरसामल ने दास पठाये।
जोशी जी को तुरत बुलाये॥
लखि ब्राह्मण दम्पति सिर नाई।
मन भावती आशिषा पाई॥
वंदि चरण, ब्राह्मण बैठाये।
नाना विधि पकवान जिमाये॥
भोजन बाद आचमन कीन्हा।
आशीर्वाद विप्र पुनि दीन्हा॥
करि पूजा आसन बैठारी।
सुनहुँ विप्र अब बात हमारी॥
नाराणी के लिए विप्रवर।
ढूँढहूँ बेगि एक सुन्दर वर॥
योग्य विवाह हुई नाराणी।
तेरह बरस की उमर सुहानी॥
दम्पति शुभ विचार तुम कीन्हा।
पुनि आशीष विप्रवर दीन्हा॥
बार-बार दम्पति समुझाई।
ब्राह्मण गवन कियो हरषाई॥
देखे वर अनेक नगरों में।
कोई न वीर चढ़ा नजरों में॥
॥दोहा॥
देश विदेश में ढूँढ कर, ब्राह्मण हुयो निराश।
दूल्हा योग्य न मिल सक्यो, पूरी न मन की आस॥८॥
चारूँ दिशा निहार कर, द्विजवर वापस आय।
अच्छा वर नहिं मिल सका, खबर कराई जाय॥९॥
॥चौपाई॥
गुरसामल मन चिंता छाई।
सेठानी भी अति घबराई॥
नींद न रात दिवस नहिं चैना।
नाराणी बोली मृदु बैना॥
चिंता मत लावो मेरी माई।
कहहुँ उपाय एक समुझाई॥
विप्र पठावो नगर हिसारा।
सबहिं भाँति उपकार तुम्हारा॥
बहु प्रकार धीरज बंधवाई।
द्विज वर चले गणेश मनाई॥
सायंकाल नगर नियराई।
जालीराम घर पहुँचे जाई॥
जालीराम को खबर कराये।
विप्र एक द्वारे पर आये॥
आप आई सादर सिरु नाई।
अन्दर तुरत गये लेवाई॥
उचित बास मेहमान दिवाये।
कहु गुरुदेव कहाँ ते आये॥
सकल प्रसंग दीवान सुनाये।
जेहि हित द्वार तुम्हारे आये॥
॥दोहा॥
सकल कथा सुनि विप्र से, मन में अति हरषाय।
अर्धांगी को मुदित मन, बात सुनाई जाय॥१०॥
॥चौपाई॥
सुनि पति वचन मात हरषानी।
नाराणी सब भांति सयानी॥
सुनु प्रियतम बड़भाग हमारे।
गुरसामल बने समधि हमारे॥
नाराणी तनधन की जोड़ी।
जैसे रति अनंग की जोड़ी॥
काढ़ पत्रिका बाँच सुनाई।
हरषित हुई शारदा माई॥
राम-कमल तेहि अवसर आये।
मात-पिता सादर सिर नाये॥
केहि कारण हरषित पितु माई।
तात कहाँ ते पाती आई॥
सकल प्रसंग दीवान सुनाये।
कमलाराम मगन हो धाये॥
मन हरषाय विप्र पहिं जाई।
हाथ जोड़ बोले सिर नाई॥
जीमन हेतु करो प्रस्थाना।
गुरसामल के विप्र सुजाना॥
भांति-भांति के पाक बनाये।
चौकी पर आगत बैठाये॥
हवा करे खुद जालीरामा।
भोजन परसे कमलारामा॥
तनधन और मात कर जोड़े।
खड़े हुये थे बायें थोड़े॥
मन कल्पना करत है भूसुर।
जालीराम धन्य तेरो घर॥
जालीराम के वैभव देखी।
मन प्रसन्न भये अति विशेषी॥
मन ही मन आशीष सुनावा।
हेतु आचमन नीर मंगावा॥
॥दोहा॥
भोजन कर अति प्रेम से, आशीर्वाद सुनाय।
गवन कियो विश्राम हित, मन में अति हरषाय॥११॥
॥चौपाई॥
बहु प्रकार कीन्ही पहुनाई।
की आगत की बहुत बड़ाई॥
आज्ञा हो सो करूँ गुसांई।
आयसु दो बालक की नांई॥
विप्र कहा सुनु बात हमारी।
अब देरी काहे व्यापारी॥
त्रयोदशी इक्कावन सन् का।
करो लगन है हित सबही का॥
नवमी मंगसिर सुदी सुहाई।
उत्तम लगन गौरि सुत ध्याई॥
ले बरात आवो हे नरवर।
हम भी अब चलते अपने घर॥
विदा किये भूसुर हरषाई।
दारा, सुत समेत सिरनाई॥
बहु प्रकार दक्षिणा दिवाई।
चीर, कनक, रथ, घोड़े, गाई॥
॥दोहा॥
विदा कराया विप्र को, आये अपने धाम।
ब्राह्मण भी पहुँचा तुरत, नाराणी के ग्राम॥१२॥
॥चौपाई॥
अति आदर गुरसामल कीन्हा।
आशीर्वाद महीसुर दीन्हा॥
सकल कथा विस्तार बखानी।
गुरसामल ने अति सुख मानी॥
पत्नी को भी तुरत बुलाया।
पक्का हुआ लगन बतलाया॥
अति हरषित बोली महतारी।
देवन्ह बिगड़ी बात सम्हारी॥
अब विलम्ब केहि कारण कीजे।
काम बहुत है जल्दी कीजे॥
॥दोहा॥
विदा किया ब्राह्मण तभी, दम्पती शीश नवाय।
गुरसामल जी लग गये, तैयारी में जाय॥१३॥
यह प्रसंग यहिं छोड़कर, कथा का बदलूँ मोड़।
रुकमण बोली कृष्ण से, शीश नवा, कर जोड़॥१४॥