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॥श्री नारायणी चरित मानस॥

 

॥श्री राणी सत्यै नमः॥

 

श्री नारायणी चरित मानस

 

卐    ॐ    卐

 

-: पंचम स्कन्ध :-

 

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। 
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

 

॥भाषा-टीका॥

 

नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो, कल्याण दायिनी शिवा हो, सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है। बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवी तुम्हें नमस्कार है।

॥चौपाई॥

मति अनुसार कथा मैं भाखी। 
अब सुनहू जो बीच हि राखी॥
शहजादा घोड़ी पाने की। 
रचने लगा कला लड़ने की॥
साफ हृदय थे तनधन दासा। 
समझ न सके मित्र की आसा॥
बात बढ़ी बातों बातों में। 
उठा लिये भाले हाथों में॥
पटका पटकी हुई कठोरा। 
तनधन जी का हाथ मरोरा॥
तनधन के मन रीस समाई। 
कोल में मुक्का एक जमाई॥
मुरछित होय पड्यो धरनी पर। 
तनधन चाल्यो चढ़ थोड़ी पर॥
आय पिता को बात बताई। 
शहजादे से ठनी लड़ाई॥
पिता कहे मन चिंता लाई। 
बेटा अच्छी नहीं लड़ाई॥
 
॥दोहा॥
 
हम सेवक वह शाह है, उनसे कैसा वैर। 
घोड़ी के खातिर लिया, नाहक तुमने वैर॥१॥
 
॥चौपाई॥
 
जब शहजादा होश में आया। 
कपड़े झाड़ तुरत घर आया॥
सकल बात पितु का समझाकर।
कैद करो तनधन को जाकर॥
तुरत नवाब दूत दौड़ाई।
जालीराम को लिया बुलाई॥
बहुत सजनता ज्ञान बताई।
ठंडा किया शाह समुझाई॥
वापस अपने घर को आये। 
तनधन को सब बात बताये॥
उधर कुमार विचारे मन में।
तनधन को कब मारूँ रण में॥
तुरत पिता को शीष नवाकर।
बोला बात कठिन जिद्दी कर॥
सुन्दर घोड़ी मैं लेऊँगा।
नहीं अन्न नहीं जल पीऊँगा॥
शाह तुरत सेनापति भेज्या।
कह दीवान को घोड़ी देज्या॥
 
॥दोहा॥
 
कह तनधन दीवान से, सादर शीश नवाय। 
घोड़ी मैं दूंगा नहीं, चाहे प्राण भी जाय॥२॥
 
॥चौपाई॥
 
सेनापति सुनी जब बाता। 
जल्दी से सेना बुलवाता॥
दोनों वीर डटे रण मांई। 
तनधन दास, कमल लघु भाई॥
मारकाट जब करने  लागे। 
आगे होकर सैनिक भागे॥
सेनापति को मार गिराया। 
सकल फौज को दूर भगाया॥
अगणित सिर वहाँ कटे पड़े थे। 
भाले, बाण, कृपाण गड़े थे॥
दूसरी फौज तुरत चढ़ आई। 
तनधन कमलाराम भगाई॥
एहि प्रकार बहु सैनिक मारे। 
कई मरे, कई थे अधमारे॥
शाह विचार करे मन मांही। 
एहि संग वैर भलाई नाहीं॥
दोनों भाई घर को आये। 
मात पिता सब हाल सुनाये॥
 
॥दोहा॥
 
शारद बोली भय सहित, समझ पड़े कछु नाहीं। 
पानी मांही मगर संग, कियां बैर भल नाहिं॥३॥
 
॥चौपाई॥
 
शहजादे को नींद न आई।
करे विचार करूँ क्या भाई॥
बहु प्रकार मन में विचार कर।
पहुँचा छुपके जालीराम घर॥
घुड़शाला में पहुँचा जाई।
झट घोड़ी की बाग थमाई॥
हिनहिनाट घोड़ी ने कीन्हा।
एक लात छाती जड़ दीन्हा॥
बहुत जोर घोड़ी हिन्नाये।
घर के सारे लोग जगाये॥
तनधन कर में भाला लेकर।
आ पुचकारा हाथ फेर कर॥
शहजादा फिर डर कर भागा।
तनधन उसके पीछे लागा॥
भाला फेंक निशाना मारा।
उतरा तुरत कलेजे पारा॥
अपनी करनी का फल पाया।
शहजादा परलोक सिधाया॥
 
॥दोहा॥
 
पिता कही समझाय कर, सुन बेटे मेरी बात।
जल्दी चलो झुँझुनू, बीत न जाये रात॥४॥
 
॥चौपाई॥
 
रातों रात सब साज सजाई।
झुँझुनू जाकर सूर्य उगाई॥
शाह हिसार झुँझुनू शाह में।
थी कटुता दोनों शाहों में॥
एहि कारण दीवान सुजाना।
अच्छा समझा झुँझुनू जाना॥
उधर बहुत सूरज चढ़ आया।
शहजादा घर पर नहीं पाया॥
जालीराम घर पता चलाया।
मरा हुआ शहजादा पाया॥
रह गया शाह बहुत चिल्लाकर। 
पा न सका वह तनधन का कर॥
बहु प्रकार मन में पछताये।
बदले की योजना बनाये॥
इस प्रकार श्री जालीरामा।
आकर बस गये झुंझुनू ग्रामा॥
 
॥दोहा॥
 
यह चरित्र संक्षेप में, कहा कवित्त बनाय। 
'रमाकांत' जो भी पढ़े, रण में हार न खाय॥५॥
 
॥चौपाई॥
 
धीरे समय चक्र चलता था।
सुखमय सूर्य रोज ढलता था॥
सोचे नाराणी महतारी। 
मुकलावे की करूँ तैयारी॥
बारह मास ब्याह को हो गया।
गौने का अब समय हो गया॥
दास भेज नेवगी बुलाया।
गांव झुँझुनू तुरत पठाया॥
मुकलावे का मुहूर्त बताया।
तनधन को जल्दी बुलवाया॥
सब प्रकार सेवक समझानी।
नाई विदा हुआ सुख मानी॥
जालीराम मन करे विचारा।
गाँव दूर है मग दुस्तारा॥
चुन चुन शत योद्धा बुलवाये।
तनधनजी के साथ लगाये॥
अति विश्वास पात्र राणा को।
तनधन सौंपा है राणा को॥
 
॥दोहा॥
 
बहुत भांति समझाय के, तनधन राणा साथ। 
चले वीर गौना करण, लिए शस्त्र सब हाथ॥६॥
 
॥चौपाई॥
 
मात-पिता चरणन सिरनाई। 
तनधन चले गणेश मनाई॥
धर-धर कूँचा धर-धर मझला।
पहुँचे दिन ढलने की बेला॥
सबको सुन्दर बास दिवाई।
तनधन को घर गये लिवाई॥
बहुत उछाह सेठ घर छाया।
घर में परमानन्द समाया॥
जब जीमण को बैठे जँवाई।
जीमण गीत लुगायां गाई॥
 
॥गीत॥
 
धोया धोया थाल परोस दिया भात जी।
आवो आवो तनधनदासजी बैठो न थालजी॥
बैठो न थाल बतावो थारी जात जी।
बाप म्हारो राजाजी, माय पटराणी जी॥
च्यारूँ भाई चतरसा, भ्हैण सुजान जी।
भूवा म्हारी सोधरा, रसोइयां क मांय जी॥
चाची म्हारी सेठाणी, बा बैठे पीडो ढाल जी॥
 
॥चौपाई॥
 
सोवण हेत भवन जब आये।
सखियां खूब मजाक बनाये॥
नित नव होत अधिक पहुनाई।
दिवस सात गए बीत सुहाई॥
राणा तनधन को बुलवाया।
तात समझ कर जल्दी आया॥
 
॥दोहा॥
 
चलने का अब साज सजो, हमें हो रही देर।
अब रूकना अच्छा नहीं, बहुत हो गई सैर॥७॥
 
॥चौपाई॥
 
तनधन अन्दर कियो जनाई।
विदा करो माता सुखु पाई॥
बचन सुनत माता हरषाई।
सब सखियों को लिया बुलाई॥
जावो सजावो नाराणी को।
सब प्रकार सुन्दर दुलहन को॥
पीठी मल अस्नान कराया।
सुंदर वस्त्र दुलहन पहनाया॥
नाराणी सब विधि शृंगारी।
मन ही मन हरषी महतारी॥
मुख चमके चंदा की नांई। 
माथे बिन्दु सुहाग सुहाई॥
घूँघर वारे केस बनाये।
जैसे भंवर समूह सुहाये॥
नैन विशाल भृकुटि है बाँकी।
जिनमें है कजरे की झाँकी॥
दुलहन बनी लगे नाराणी।
जैसे रति जमीन पर आनी॥
रूप राशि की खान भवानी। 
कवि करे क्या रूप बखानी॥
सम्वत् त्रयोदशी बावन का।
मंगसिर बदी दिवस नवमी का॥
प्रातः काल का समय सुहाना।
रथ अरु तुरग सजाये नाना॥
 
॥दोहा॥
 
सब तैयारी ठीक कर, दहली दई पुजवाय। 
बेटी को करदी विदा, रथ में दी बिठलाय॥८॥
 
सखियां सब रोने लगी, गुड़ियों को ले हाथ।
गुड़िया माँ को सौंपदी, सदा सुलाना साथ॥९॥
 
॥चौपाई॥
 
गुरसामल, सासू सिर नाई। 
तनधन चले संग सुभटाई॥
माता राणा को समझाई।
संग तुम्हारे मेरी जाई॥
सब प्रकार से रक्षा करना।
प्राणों का तुम मोह न धरना॥
राणा बोले वक्ष फुलाई।
कोई तन को छूले बाई॥
चिंता नेक करो मत माता।
शूर वीर तेरा जामाता॥
होत विलम्ब मात सिर नाई।
चले सकल हरषित सुभटाई॥
चलन हेतु जब रथ को खींचा।
छींक हुई तेहि अवसर बीचा॥
 
(गीत)
 
मनड़ो नहीं धारे धीर। 
कैयां थाने समझाऊँ जी॥
जब समय विदा का आया।
या छींक कुसूण बताया॥
सामी छींक चल्या जो घर से।
नहीं लौट कर आया॥
हिवड़ै मँ उठ रही टीस।
कैयां थाने चीर बताऊँ जी॥
थाने समझाऊँ जी....
 
कई देवी, देव मनाया।
कई खेतरपाल धुकाया॥
जद जाकर या कन्या देखी।
मनड़ै में हरषाया॥
म्हे के के कोड कर्या थानै।
कैयां समझाऊँ जी॥
थाने समझाऊँ जी....
 
सुन राणा बात हमारी। 
थारै संग करी सुकुमारी॥
प्राणां को थे मोह न करज्यो।
रखज्यो लाज हमारी॥
थारा सारी उमर गुण गाऊँ जी।
थानै समझाऊँ जी॥
 
मेरे बूढपणै को सहारो।
तनधन जामाता प्यारो॥
राणा बोल्यो डरपो मत माता। 
वचन निभास्यूँ म्हारो॥
यो रमाकांत गुण गावै जी। 
थानै समझाऊँ जी॥
 
॥चौपाई॥
 
धेनु मिली बांई अकुलाई। 
ऊपर से बागल चिल्लाई॥
सबके मन में चिंता छाई। 
फिर भी चले गौरिसुत ध्याई॥
 
॥दोहा॥
 
तनधन चाले मगन हो, मन में अति हरषाय। 
अब वह सुनो जो होनि थी, घोर जंगल के मांय॥१०॥
 
शहजादे को मार कर, तनधन पिता समेत। 
गाँव झुँझुनू बस गये, माता भाई समेत॥११॥
 
॥चौपाई॥
 
पुत्र मरण सुनु अति विकलाई।
शाह एक पल मुरछा आई॥
रोने लगा पीट कर छाती।
कहाँ गया तनधन सुत घाती॥
दुखिया पुत्र वधू को देखा।
लगा कलेजे बज्र सरेखा॥
मन में बहुत निराशा छाई।
केहि विधि बदला लेऊँ जाई॥
बेगम बोली वचन सुहावा।
तनधन का होगा मुकलावा॥
कद मुकलावो राखो बेरो।
जाय बीच जंगल में घेरो॥
युक्ति शाह चित्त में आई।
तुरत गुप्तचर दिये पठाई॥
आय गुप्त संदेशा दीन्हा।
तनधन डोकव से चल दीन्हा॥
जल्दी शाह उठा अकुलाई।
आज निकालूँ सब बैराई॥
 
॥दोहा॥
 
सेनापति को बोल कर, दीन्ही फौज पठाय।
घाट, बाट सब रोक कर, लीन्ही घात लगाय॥१२॥
 
तनधन भी कुछ देर में, आये जंगल मांय।
नाराणी, सौ सुभट अरु, संग राणा से राय॥१३॥
 
॥चौपाई॥
 
दूर कहीं पर गर्द उड़ाये।
तनधन राणा से बतलाये॥
दिखता है कुछ दाल में काला।
करो उपाय कोई तत्काला॥
एहि प्रकार बतलाये दोऊ।
घेर लिया शत्रु चहुँ ओऊ॥
तलवारें चमकी तेहि काला।
तनधन ने भाला सम्भाला॥
हर-हर महादेव बर बंका।
बजा दिया फिर रण का डंका॥
मारकाट का खेल रच गया।
नर संहार तेज हो गया॥
एक हाथ तलवार सुहाये।
दूजे भाला काल डराये॥
तुरग बाग में मुंह अटकाई।
घुसा अनी के अन्दर जाई॥
 
॥दोहा॥
 
मारकाट करने लगे, तनधन के सब लोग।
थोड़े थे, रणचण्डी को, लगा रहे अरि भोग ॥१४॥
 
॥चौपाई॥
 
जो शत्रु भी सामने आया।
खा भाला धरनी पर आया॥
वार करे दोनों हाथों से।
घोड़ी भी कुचले लातों से॥
राणा ने शूरता दिखाई।
जो आया यमपुर पहुँचाई॥
 साथी लड़े बहुत हरषाई।
एक एक शत शत को खाई॥
घूँघट से नाराणी झाँके।
पति की शूर वीरता आंके॥
सकल फौज को मार भगाई।
किन्तु दूसरी जल्दी आई॥
थोड़े थे तनधन के साथी।
शत्रु अधिक संग थे हाथी॥
फिर भी धन्य हिन्द की नारी।
जनमाये ऐसे बलकारी॥
साथी एक इधर मरता था।
किन्तु प्रलय पहले करता था॥
 
॥दोहा॥
 
दूजी बार भी फौज को, दीन्ही मार भगाय। 
चलने की जल्दी करो, रथ को दिया बढ़ाय॥१५॥
 
॥चौपाई॥
 
सेनापति ने युक्ति बनाई।
सन्मुख जीति न जाय लड़ाई॥
छुपकर अब बैरी मारूँगा।
तनधन का मैं सिर तारूँगा॥
नई फौज ज्यादा मंगवाई। 
सहस्र दसेक तुरत चलि आई॥
हुक्म दिया सब सैनिक जाकर।
घेरो जंगल घात लगाकर॥
बना योजना आगे आया।
छुप कर भाला वार चलाया॥
तनधन पीठ घुसा वह जाई।
वीर एक पल मुरछा आई॥
पुनि उठकर तलवार उठाई।
प्रलय विपिन के मांय मचाई॥
गया जिधर कर दिया सफाया। 
कोई न जीवित बचने पाया॥
पीछे से शत्रु ने आकर।
वार किया गरदन पर कसकर॥
आँखों से राणा समझाया।
तुरत वीर परलोक सिधाया॥
नाराणी को पड़ी खबर जब।
चढ़ा वीर रस अबला पर तब॥
आँखें लाल अँगारा बन गई।
नाराणी तुरंत ही तन गई॥
 
॥दोहा॥
 
याद किया रणचण्डी को, चण्डी बन गया रूप।
कूद पड़ी रण भूमि में, महाकाल का रूप॥१६॥
 
॥चौपाई॥
 
एक हाथ में पति का भाला।
दूजे में तलवार कराला॥
कूद पड़ी रणचण्डी रण में।
कटने लगे शत्रु प्रांगण में॥
मार काट करने लगि भारी।
सेना में भगदड़ भई भारी॥
रूप सहस्र धरे रण मांई।
जहँ देखो नाराणी माई॥
शत्रु कट कट महि गिरता था।
जो मरता सद्गति पाता था॥
तलवारें खन खन चलती थी।
खच खच दुश्मन तन घुसती थी॥
हा-हा कार मच्यो रण मांई।
अल्ला अकबर करो सहाई॥
अनी सहस्र थी अबला एका।
लेकिन सत का तेज अनोखा॥
कछुक देर में सकल संहारे।
जो कुछ बचे ते जाये पुकारे॥
तुरत शाह नई फौज भिजाई।
खुद झड़चन्द करे अगुवाई॥
रण में जब नाराणी देखी।
बोला वचन कपट मय पेखी॥
सुन्दरी नाहक क्यों लड़ती है।
क्यों बेमौत आज मरती है॥
पटरानी पद दूँगा तुझको।
सब सुख दूँ अपनाले मुझको॥
सुनत वचन नाराणी बोली।
पहन चूड़ियाँ बैठो डोली॥
ठहर दुष्ट बतलाऊँ तोही।
तेरी ही तलाश थी मोही॥
काटूँ सिर तेरा क्षण मांई।
अगर युद्ध से भाग न जाई॥
इतना कह दौड़ी तेहि ओरा।
घेर लई सैनिक चहुँ ओरा॥
मारु-मारु, धरु-धरु, चिल्लाये।
बहुत भांति हथियार चलाये॥
लेकिन धन्य शूर नारी को।
मार गिराया पल में सबको॥
राणा जो शूरता बताई।
मेरी मति में नहीं समाई॥
नाराणी जो शीश उतारे।
सीधे विष्णु लोक सिधारे॥
दोनों शूर डटे रण मांई।
लाशों का था ढेर लगाईं॥
 
॥दोहा॥
 
मारकाट करती हुई, पहुँची झड़चन्द पास।
हाथी पर था चढ़ा हुआ, सेना थी चहुँ पास॥१७॥
 
॥चौपाई॥
 
अगणित योद्धा वहाँ संहारे।
पीछे से राणा संहारे॥
शाह विचार करे मन मांई।
यह नारी अब जीति न जाई॥
तेहि अवसर नाराणी बढ़कर।
मारी एड़ घोड़ी को तनकर॥
घोड़ी उछल गई हाथी पर।
मारा एक वार छाती पर॥
आर पार तलवार हो गई।
छाती धड़ से दूर हो गई॥
फौज मांहि भगदड़ भई भारी।
इत उत भागे अनी बिचारी॥
भागी सकल फौज रण त्यागी।
राणाजी की तन्द्रा जागी॥
हाथ जोड़ कर विनती कीन्ही।
तुरत शस्त्र कर से तज दीन्ही॥
फिर राणा से बोली जाओ।
तुरत पति का शव ले आवो॥
राणा युद्ध भूमि में जाई।
धड़ और शीश तुरत ले आई॥
राणा से बोली जल्दी कर।
ईंधन, लकड़ी लाओ चुनकर॥
सूर्य ढले से पहले आना।
हमको तो है पति संग जाना॥
जो आज्ञा कह राणा जाई।
चंदन काष्ट बहुत जुटाई॥
 
॥दोहा॥
 
राणा को देरी लगी, सत का तेज दिखाय। 
छै बज कर दस मिनट पर, रवि को दिया थमाय॥१८॥
 
॥चौपाई॥
 
लाय लकड़ियां ढेर लगाई।
खड़ा रहा फिर शीश झुकाई॥
राणा से बोली पुनि जाओ।
स्नान हेतु जल्दी जल लावो॥
कह राणा जंगल है कठोरा।
पानी नहीं कहीं चहुँ ओरा॥
अपने सत का तेज दिखाया।
कूवा एक तुरत खुद आया॥
चिता तैयार हुई पल मांई।
नाराणी निज हाथ बनाई॥
आप न्हाय पति को नहलाया।
सकल भांति श्रृंगार बनाया॥
तनधन शीश अलग था धड़ से।
जोड़ दिया पल में निज सत से॥
ले पति गात चिता पे चढ़ गई।
राणा की तो हिचकी बंध गई॥
प्रथम चिता की पूजा कीन्ही।
माथे तिलक पति के दीन्ही॥
प‌द्मासन बैठी महारानी।
राणा से गठ जोड़ मंगानी॥
गांठ जोड़ घूँघटा निकाला।
जैसे दुल्हन बैठी डोला॥
पति के सकल शस्त्र मंगवाई।
सजा दिये पति शीश लगाई॥
 
॥दोहा॥
 
राणा था हतप्रभ खड़ा, समझ नहीं कुछ आय।
रोते रोते मात से, बोला अति विकलाय॥१९॥
 
॥चौपाई॥
 
हाथ जोड़ बोला सेवक को।
किसके सहारे छोड़ा मुझको॥
झुँझुनू जाय खबर क्या देऊँ।
क्या खुश खबरी माँ को देऊँ॥
बहुत रुदन राणा करता था।
बार बार चरणन पड़ता था॥
माता बोली हाथ उठाकर।
सुनो बात मेरी ध्यान लगाकर॥
चक्रब्यूह महाभारत मांई।
अभिमन्यु रथ हांका जाई॥
अभिमन्यु रण मांय गिराई।
तब तुमने की बहुत लड़ाई॥
तब तुम वीर गति को पाये।
मन में यह अभिलाष बनाये॥
जनम-जनम अभिमन्यु दासा।
हे भगवान यही है आशा॥
एहि कारण इस कलियुग मांई।
जनमे राणा नाम धराई॥
अब चिंता केहि कारण हेतू।
पार लगन हित बांधा सेतू॥
 
॥दोहा॥
 
सुनु राणा होनी प्रबल, सीख बताई मात। 
हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ॥२०॥
 
॥चौपाई॥
 
अब मानो एक बात हमारी।
अमर नाम होगा बलकारी॥
सत की घर-घर पूजा होगी। 
कलयुग का आधार बनेगी॥
मुझसे पहले नाम तुम्हारा।
कलयुग माँई सकल संसारा॥
'राणासती' नाम गूँजेगा।
मुझसे पहले तूँ पूजेगा॥
जब भस्मी बन जाय हमारी।
सुन राणाजी बात हमारी॥
तुम पति की घोड़ी ले जावो।
संग हमारी भस्म ले जावो॥
जाय जहाँ घोड़ी अड़ जाये।
वहीं मेरा मंदिर बन जाये॥
कोई न मूर्ति वहाँ पर होगी।
मेरा रूप त्रिशूल पुजेगी॥
भादो बदी अमावस्या को।
मेला लगे प्रति सम्वत् को॥
जो आज्ञा कह शीश नवाया।
आशीर्वाद सुहाना पाया॥
नवमी बदी माह मंगसिर का।
तेरह सौ बावन सम्बत् का॥
सायंकाल की बेला आई। 
छै बज कर दस मिनट सुहाई॥
ब्रह्मा, विष्णु और त्रिपुरारी।
चढ़े सकल नभ में असुरारी॥
जय जयकार गगन भयो भारी।
सकल देव जय कार उचारी॥
नाराणी समय शुभ जानी।
याद किया जगदम्ब भवानी॥
अंबा कर त्रिशूल थमाई।
आशीर्वाद दिया हरषाई॥
मात, पिता, अरु सास ससुर को।
कर प्रणाम सब गुरु जनों को॥
हाथ जोड़ देवन्ह सिरु नाई।
शक्ति अनूठी तन में आई॥
मुख पर तेज अनोखा छाया।
दिव्य अनूप रूप बन आया॥
सूर्य देव को शीश नवाई।
चूड़े से अग्नि प्रगटाई॥
लौ निकली एक दिव्य सुहानी।
सकल चिता को ली लिपटानी॥
चिता भभक उठी पल भर में।
मिल गइ जोत जोत पल भर में॥
पति प्राणों में जाय समाई।
जय जय जय नाराणी माई॥
सब देवन्ह जयकार उचारी।
की फूलों की वर्षा भारी॥
तब नव दुर्गा रूप बनाकर।
दरश दिया राणा को आकर॥
ले विमान खुद शचिपति आये।
तनधन और सती बैठाये॥
गरुड़ चढ़े नारायण आये।
नीलकंठ चढ़ नन्दी आये॥
हंस चढ़े आये ब्रह्मा जी।
वाम भाग ब्रह्माणी राजी॥
आशीर्वाद दिये विधि नाना।
सकल देवता कियो पयाना॥
 
॥दोहा॥
 
दर्शन पा सती मात का, शीश नवा, कर जोङ।
भस्मी बांधी अश्व पर, तुरग लगाई दौड़॥२१॥ 
 
कैर का एक वृक्ष था बन में। 
वहीं अड़ा घोड़ा जंगल में॥
अश्व रुका झुँझुनू के मांई।
तुरत भस्म तहँ दी पधराई॥
रोप त्रिशूल आरती उतारी।
घर जाने की बात बिचारी॥
जालीराम खबर जब पाई।
पड़े भूमि पर मुरछा खाई॥
बहु प्रकार माता बिलखानी।
छोटे सुत को गले लगानी॥
तब राणा सब चरित बखाना।
जेहि विधि शाह लड़ाई ठाना॥
बहु प्रकार सब चरित बखाने।
जेहि विधि शत्रु यम पहुँचाने॥
सती भई सो बात बताई।
आज्ञा दई सो मात बताई॥
गांव बाहेर वह स्थान बताया।
जहां सती तिरशूल लगाया॥
जालीराम बहुरि समझावा।
धीरज बहुत भाँति बंधावा॥
अब चलिए जहाँ भस्म बसाई।
हेतु सती मन्दिर बनवाई॥
 
॥दोहा॥
 
जालीराम आये जहाँ, भस्म त्रिशूल सुहाय।
मंदिर अति सुंदर बना, सबके मन को भाय॥२२॥
 
॥चौपाई॥
 
मंदिर देखि सकल हरषाने।
घंट घड़ावल धुनि सुहाने॥
नित्य आय पूजा जन करहिं।
पुष्प, नारियल, दूब चढ़ावहिं॥
सती जाय कर पति के पासा।
सेवा करने लगी सुपासा॥
द्वादश सती हुई कुल मांई।
सत की जोत अखंड जलाई॥
नाराणी थी सबसे पहली।
जिसकी जोत जगत में फैली॥
कछुक दिवस पति की सेवा कर।
हुई प्रगट झुँझुनू में आकर॥
वैश्य एक था झुँझुनू मांही।
था सम्पन्न व्यापार चलाही॥
एक रात डाकू घर आये।
बनिये को घर से हर लाये॥
जाय छोड़ दिया जंगल मांही।
एकल पड़ गया राह भुलाहीं॥
 
॥दोहा॥
 
तभी एक देवी सुभग, लालटेन ले हाथ। 
बोली आ पीछे मेरे, नहीं छोड़ना साथ॥२३॥
 
॥चौपाई॥
 
बनिया कुशल गांव पहुँचाई।
सपने में दिया दरश सुहाई॥
पूजा करो नित्य मन लाई।
यह आज्ञा सती मात सुनाई॥
जो मन से मुझको ध्यायेगा।
नाना सुख सम्पत्ति पायेगा॥
रोग दुःख कुछ निकट न आये।
जो नर मेरा ध्यान लगाये॥
अंतर्ध्यान भई सती माता।
वैश्य सभी को बात बताता॥
बात सकल गांवों में आई।
सत की जीत चहुँ दिशि छाई॥
यात्री आने लगे झुँझुनू।
तीर्थ बन गया गांव झुँझुन॥
हर सम्वत् भादव महिना को।
मेला भरे प्रति मावस को॥
 
॥दोहा॥
 
पूजने लगि संसार में, सतियों की सिर मोर।
पाठ, भजन होने लगे, दुनियां में चहुँ ओर॥२४॥
 
॥चौपाई॥
 
'राणी सती' है नाम सुहाना।
'दादी' नाम सकल जग जाना॥
है प्रत्यक्ष कलियुग में माता।
जो ध्याता अभिमत फल पाता॥
आस सभी की पूरण वारी।
दादी माँ तेरो नाम सुखारी॥
प्रति मावस जो पाठ कराई।
दीपक ज्योत अखंड जलाई॥
मानस पाठ अखंड कराई।
घर में कभी अनिष्ट न आई॥
जो नर पाठ करे प्रति दिवसा।
विघ्न हरे पूरे सब मनसा॥
और गुप्त एक बात बताऊँ।
दादी के मन की दर्शाऊँ॥
नवमी जन्म, ब्याह नवमी का।
सती भई सो दिन नवमी का॥
लगता मुझे बहुत शुभकारी।
नवमी का दिन मंगल कारी॥
नवमी के दिन जो व्रत राखे।
घर में वास करूँ मैं ताके॥
कृष्ण जन्म मम जन्म एक तिथि।
जन्म राम का भी नवमी तिथि॥
 
॥दोहा॥
 
नवमी बदि प्रति मास को, व्रत का नियम निभाय।
सुंदर पुत्र खिलायसी, पति के मन को भाय॥२५॥
 
॥चौपाई॥
 
दादी जी की आज्ञा पाई।
बना चरित सुंदर सुख दाई॥
कहँ दादी का चरित अपारा।
कहँ मति मोरी अपढ़ गंवारा॥
सत की महिमा सकी न गाई।
शेष, शारदा गये थकाई॥
जय-जय-जय-नाराणी माता।
निशदिन तुमको शीश नवाता॥
भक्ति विमल देवो अब माता।
चरणों में तेरे शीश नवाता॥
मंगल कारण चरित तुम्हारा।
सकल सिद्धि का देवन हारा॥
आशा पूर्ण करो मेरे मन की।
विपदा हरो मात जन जन की॥
जय जय कार करे नर नारी। 
लेत नाम जन होय सुखारी॥
जय जगदम्बे मात भवानी।
तनधन प्रिया मात नाराणी॥
नाम तेरो लक्ष्मी महाराणी।
एक जनम शंकर प्रिया जानी॥
एक जनम तेरो नाम भवानी।
रघुवर प्रिय सीता महाराणी॥
राधा, रुकमण नाम तुम्हारा।
कृष्ण प्रिया जाने संसारा॥
नाम कहाँ तक गिनूँ तुम्हारे।
और अनेक चरित्र सुखारे॥
सब विधि तुम हो पूरण कामा।
कलि अवलम्ब तुम्हारो नामा॥
नाम लेत उतरहीं नर पारा।
सज्जन मन में करो विचारा॥
नाराणी करुणामयी माता।
हाथ जोड़ कर शीश नवाता॥
कष्ट निवारणि विपद विदारणि।
रमा उमा दादी सुहासिनी॥
सुन्दर दयावान भय हारी।
भक्त बछल माता अधिकारी॥
 
॥दोहा॥
 
ब्रह्मा, विष्णु, महेश अरु, ब्रह्माणी गुण खानि।
रमा, उमा का रूप है, राणी सती महारानि॥२६॥
 
॥चौपाई॥
 
जय दुर्गे ब्रह्माण्ड निकाया।
अगम-निगम है तेरी माया॥
नखत तुम्हारा मुकुट सजाये।
सूर्य, चन्द्र बलिहारी जायें॥
परमानन्द ग्यान की दाता।
परम सती नाराणी माता॥
दरश सुकोमल शांति दाता।
सकल जगत की भाग्य विधाता॥
कर त्रिशूल अरु शंख बिराजे।
दरशन से दारुण दुख भाजे॥
रोग शोक सब कष्ट निवारिणि।
जग पालक माता नारायणि॥
गाँव झुँझुनू वास तिहारो।
कष्ट हरो मां दास तिहारो॥
मंदिर भव्य बरनि नहिं जाई।
दरशन दारुन दुःख नसाइ॥
माया तेरी अपरंपारा।
पावन तेरे सत की धारा॥
मैं सेवक मूरख अज्ञानी।
आया शरण जोड़ जुगपानी॥
मंगल रचा आयसू पाई।
जो सुनता सब कष्ट नसाई॥
घर बैठाय सुने नर नारी।
प्रेम सहित आरती उतारी॥
मनवांछित फल वो पायेंगे।
दादी की किरपा पायेंगे॥
सब प्रकार दादी सिरु नाई।
करहुँ समाप्त कथा सुखदाई॥
 
॥दोहा॥
 
इस मंगल को जो सुने, विधिवत पाठ बैठाय। 
मन इच्छा पूरी करे, दादीजी खुद आय॥२७॥
 
सकल देव घर जाइये, रहिये देव गणेश। 
रिद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धनद, करिये वास हमेश॥२८॥
 
नाराणी करुणामयी, तनधन जी संग आय।
कारज सबके सारियो, हे भय हारिणि माय॥२९॥
 
हाथ जोड़ विनती करें, खड़े तुम्हारे दास।
राणी सती दादी करो, मन मंदिर में वास॥३०॥
 
भक्त सभी घर जाइये, राणी सती चितलाय।
"रमाकांत" हे स्वामिनी! देवो वर मन भाय॥३१॥
 
卐 बोलो श्री राणी सती मात की जय 卐
॥इति शुभम्॥