पुत्र मरण सुनु अति विकलाई।
शाह एक पल मुरछा आई॥
रोने लगा पीट कर छाती।
कहाँ गया तनधन सुत घाती॥
दुखिया पुत्र वधू को देखा।
लगा कलेजे बज्र सरेखा॥
मन में बहुत निराशा छाई।
केहि विधि बदला लेऊँ जाई॥
बेगम बोली वचन सुहावा।
तनधन का होगा मुकलावा॥
कद मुकलावो राखो बेरो।
जाय बीच जंगल में घेरो॥
युक्ति शाह चित्त में आई।
तुरत गुप्तचर दिये पठाई॥
आय गुप्त संदेशा दीन्हा।
तनधन डोकव से चल दीन्हा॥
जल्दी शाह उठा अकुलाई।
आज निकालूँ सब बैराई॥
॥दोहा॥
सेनापति को बोल कर, दीन्ही फौज पठाय।
घाट, बाट सब रोक कर, लीन्ही घात लगाय॥१२॥
तनधन भी कुछ देर में, आये जंगल मांय।
नाराणी, सौ सुभट अरु, संग राणा से राय॥१३॥
॥चौपाई॥
दूर कहीं पर गर्द उड़ाये।
तनधन राणा से बतलाये॥
दिखता है कुछ दाल में काला।
करो उपाय कोई तत्काला॥
एहि प्रकार बतलाये दोऊ।
घेर लिया शत्रु चहुँ ओऊ॥
तलवारें चमकी तेहि काला।
तनधन ने भाला सम्भाला॥
हर-हर महादेव बर बंका।
बजा दिया फिर रण का डंका॥
मारकाट का खेल रच गया।
नर संहार तेज हो गया॥
एक हाथ तलवार सुहाये।
दूजे भाला काल डराये॥
तुरग बाग में मुंह अटकाई।
घुसा अनी के अन्दर जाई॥
॥दोहा॥
मारकाट करने लगे, तनधन के सब लोग।
थोड़े थे, रणचण्डी को, लगा रहे अरि भोग ॥१४॥
॥चौपाई॥
जो शत्रु भी सामने आया।
खा भाला धरनी पर आया॥
वार करे दोनों हाथों से।
घोड़ी भी कुचले लातों से॥
राणा ने शूरता दिखाई।
जो आया यमपुर पहुँचाई॥
साथी लड़े बहुत हरषाई।
एक एक शत शत को खाई॥
घूँघट से नाराणी झाँके।
पति की शूर वीरता आंके॥
सकल फौज को मार भगाई।
किन्तु दूसरी जल्दी आई॥
थोड़े थे तनधन के साथी।
शत्रु अधिक संग थे हाथी॥
फिर भी धन्य हिन्द की नारी।
जनमाये ऐसे बलकारी॥
साथी एक इधर मरता था।
किन्तु प्रलय पहले करता था॥
॥दोहा॥
दूजी बार भी फौज को, दीन्ही मार भगाय।
चलने की जल्दी करो, रथ को दिया बढ़ाय॥१५॥
॥चौपाई॥
सेनापति ने युक्ति बनाई।
सन्मुख जीति न जाय लड़ाई॥
छुपकर अब बैरी मारूँगा।
तनधन का मैं सिर तारूँगा॥
नई फौज ज्यादा मंगवाई।
सहस्र दसेक तुरत चलि आई॥
हुक्म दिया सब सैनिक जाकर।
घेरो जंगल घात लगाकर॥
बना योजना आगे आया।
छुप कर भाला वार चलाया॥
तनधन पीठ घुसा वह जाई।
वीर एक पल मुरछा आई॥
पुनि उठकर तलवार उठाई।
प्रलय विपिन के मांय मचाई॥
गया जिधर कर दिया सफाया।
कोई न जीवित बचने पाया॥
पीछे से शत्रु ने आकर।
वार किया गरदन पर कसकर॥
आँखों से राणा समझाया।
तुरत वीर परलोक सिधाया॥
नाराणी को पड़ी खबर जब।
चढ़ा वीर रस अबला पर तब॥
आँखें लाल अँगारा बन गई।
नाराणी तुरंत ही तन गई॥
॥दोहा॥
याद किया रणचण्डी को, चण्डी बन गया रूप।
कूद पड़ी रण भूमि में, महाकाल का रूप॥१६॥
॥चौपाई॥
एक हाथ में पति का भाला।
दूजे में तलवार कराला॥
कूद पड़ी रणचण्डी रण में।
कटने लगे शत्रु प्रांगण में॥
मार काट करने लगि भारी।
सेना में भगदड़ भई भारी॥
रूप सहस्र धरे रण मांई।
जहँ देखो नाराणी माई॥
शत्रु कट कट महि गिरता था।
जो मरता सद्गति पाता था॥
तलवारें खन खन चलती थी।
खच खच दुश्मन तन घुसती थी॥
हा-हा कार मच्यो रण मांई।
अल्ला अकबर करो सहाई॥
अनी सहस्र थी अबला एका।
लेकिन सत का तेज अनोखा॥
कछुक देर में सकल संहारे।
जो कुछ बचे ते जाये पुकारे॥
तुरत शाह नई फौज भिजाई।
खुद झड़चन्द करे अगुवाई॥
रण में जब नाराणी देखी।
बोला वचन कपट मय पेखी॥
सुन्दरी नाहक क्यों लड़ती है।
क्यों बेमौत आज मरती है॥
पटरानी पद दूँगा तुझको।
सब सुख दूँ अपनाले मुझको॥
सुनत वचन नाराणी बोली।
पहन चूड़ियाँ बैठो डोली॥
ठहर दुष्ट बतलाऊँ तोही।
तेरी ही तलाश थी मोही॥
काटूँ सिर तेरा क्षण मांई।
अगर युद्ध से भाग न जाई॥
इतना कह दौड़ी तेहि ओरा।
घेर लई सैनिक चहुँ ओरा॥
मारु-मारु, धरु-धरु, चिल्लाये।
बहुत भांति हथियार चलाये॥
लेकिन धन्य शूर नारी को।
मार गिराया पल में सबको॥
राणा जो शूरता बताई।
मेरी मति में नहीं समाई॥
नाराणी जो शीश उतारे।
सीधे विष्णु लोक सिधारे॥
दोनों शूर डटे रण मांई।
लाशों का था ढेर लगाईं॥
॥दोहा॥
मारकाट करती हुई, पहुँची झड़चन्द पास।
हाथी पर था चढ़ा हुआ, सेना थी चहुँ पास॥१७॥
॥चौपाई॥
अगणित योद्धा वहाँ संहारे।
पीछे से राणा संहारे॥
शाह विचार करे मन मांई।
यह नारी अब जीति न जाई॥
तेहि अवसर नाराणी बढ़कर।
मारी एड़ घोड़ी को तनकर॥
घोड़ी उछल गई हाथी पर।
मारा एक वार छाती पर॥
आर पार तलवार हो गई।
छाती धड़ से दूर हो गई॥
फौज मांहि भगदड़ भई भारी।
इत उत भागे अनी बिचारी॥
भागी सकल फौज रण त्यागी।
राणाजी की तन्द्रा जागी॥
हाथ जोड़ कर विनती कीन्ही।
तुरत शस्त्र कर से तज दीन्ही॥
फिर राणा से बोली जाओ।
तुरत पति का शव ले आवो॥
राणा युद्ध भूमि में जाई।
धड़ और शीश तुरत ले आई॥
राणा से बोली जल्दी कर।
ईंधन, लकड़ी लाओ चुनकर॥
सूर्य ढले से पहले आना।
हमको तो है पति संग जाना॥
जो आज्ञा कह राणा जाई।
चंदन काष्ट बहुत जुटाई॥
॥दोहा॥
राणा को देरी लगी, सत का तेज दिखाय।
छै बज कर दस मिनट पर, रवि को दिया थमाय॥१८॥
॥चौपाई॥
लाय लकड़ियां ढेर लगाई।
खड़ा रहा फिर शीश झुकाई॥
राणा से बोली पुनि जाओ।
स्नान हेतु जल्दी जल लावो॥
कह राणा जंगल है कठोरा।
पानी नहीं कहीं चहुँ ओरा॥
अपने सत का तेज दिखाया।
कूवा एक तुरत खुद आया॥
चिता तैयार हुई पल मांई।
नाराणी निज हाथ बनाई॥
आप न्हाय पति को नहलाया।
सकल भांति श्रृंगार बनाया॥
तनधन शीश अलग था धड़ से।
जोड़ दिया पल में निज सत से॥
ले पति गात चिता पे चढ़ गई।
राणा की तो हिचकी बंध गई॥
प्रथम चिता की पूजा कीन्ही।
माथे तिलक पति के दीन्ही॥
पद्मासन बैठी महारानी।
राणा से गठ जोड़ मंगानी॥
गांठ जोड़ घूँघटा निकाला।
जैसे दुल्हन बैठी डोला॥
पति के सकल शस्त्र मंगवाई।
सजा दिये पति शीश लगाई॥
॥दोहा॥
राणा था हतप्रभ खड़ा, समझ नहीं कुछ आय।
रोते रोते मात से, बोला अति विकलाय॥१९॥
॥चौपाई॥
हाथ जोड़ बोला सेवक को।
किसके सहारे छोड़ा मुझको॥
झुँझुनू जाय खबर क्या देऊँ।
क्या खुश खबरी माँ को देऊँ॥
बहुत रुदन राणा करता था।
बार बार चरणन पड़ता था॥
माता बोली हाथ उठाकर।
सुनो बात मेरी ध्यान लगाकर॥
चक्रब्यूह महाभारत मांई।
अभिमन्यु रथ हांका जाई॥
अभिमन्यु रण मांय गिराई।
तब तुमने की बहुत लड़ाई॥
तब तुम वीर गति को पाये।
मन में यह अभिलाष बनाये॥
जनम-जनम अभिमन्यु दासा।
हे भगवान यही है आशा॥
एहि कारण इस कलियुग मांई।
जनमे राणा नाम धराई॥
अब चिंता केहि कारण हेतू।
पार लगन हित बांधा सेतू॥
॥दोहा॥
सुनु राणा होनी प्रबल, सीख बताई मात।
हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ॥२०॥
॥चौपाई॥
अब मानो एक बात हमारी।
अमर नाम होगा बलकारी॥
सत की घर-घर पूजा होगी।
कलयुग का आधार बनेगी॥
मुझसे पहले नाम तुम्हारा।
कलयुग माँई सकल संसारा॥
'राणासती' नाम गूँजेगा।
मुझसे पहले तूँ पूजेगा॥
जब भस्मी बन जाय हमारी।
सुन राणाजी बात हमारी॥
तुम पति की घोड़ी ले जावो।
संग हमारी भस्म ले जावो॥
जाय जहाँ घोड़ी अड़ जाये।
वहीं मेरा मंदिर बन जाये॥
कोई न मूर्ति वहाँ पर होगी।
मेरा रूप त्रिशूल पुजेगी॥
भादो बदी अमावस्या को।
मेला लगे प्रति सम्वत् को॥
जो आज्ञा कह शीश नवाया।
आशीर्वाद सुहाना पाया॥
नवमी बदी माह मंगसिर का।
तेरह सौ बावन सम्बत् का॥
सायंकाल की बेला आई।
छै बज कर दस मिनट सुहाई॥
ब्रह्मा, विष्णु और त्रिपुरारी।
चढ़े सकल नभ में असुरारी॥
जय जयकार गगन भयो भारी।
सकल देव जय कार उचारी॥
नाराणी समय शुभ जानी।
याद किया जगदम्ब भवानी॥
अंबा कर त्रिशूल थमाई।
आशीर्वाद दिया हरषाई॥
मात, पिता, अरु सास ससुर को।
कर प्रणाम सब गुरु जनों को॥
हाथ जोड़ देवन्ह सिरु नाई।
शक्ति अनूठी तन में आई॥
मुख पर तेज अनोखा छाया।
दिव्य अनूप रूप बन आया॥
सूर्य देव को शीश नवाई।
चूड़े से अग्नि प्रगटाई॥
लौ निकली एक दिव्य सुहानी।
सकल चिता को ली लिपटानी॥
चिता भभक उठी पल भर में।
मिल गइ जोत जोत पल भर में॥
पति प्राणों में जाय समाई।
जय जय जय नाराणी माई॥
सब देवन्ह जयकार उचारी।
की फूलों की वर्षा भारी॥
तब नव दुर्गा रूप बनाकर।
दरश दिया राणा को आकर॥
ले विमान खुद शचिपति आये।
तनधन और सती बैठाये॥
गरुड़ चढ़े नारायण आये।
नीलकंठ चढ़ नन्दी आये॥
हंस चढ़े आये ब्रह्मा जी।
वाम भाग ब्रह्माणी राजी॥
आशीर्वाद दिये विधि नाना।
सकल देवता कियो पयाना॥
॥दोहा॥
दर्शन पा सती मात का, शीश नवा, कर जोङ।
भस्मी बांधी अश्व पर, तुरग लगाई दौड़॥२१॥
कैर का एक वृक्ष था बन में।
वहीं अड़ा घोड़ा जंगल में॥
अश्व रुका झुँझुनू के मांई।
तुरत भस्म तहँ दी पधराई॥
रोप त्रिशूल आरती उतारी।
घर जाने की बात बिचारी॥
जालीराम खबर जब पाई।
पड़े भूमि पर मुरछा खाई॥
बहु प्रकार माता बिलखानी।
छोटे सुत को गले लगानी॥
तब राणा सब चरित बखाना।
जेहि विधि शाह लड़ाई ठाना॥
बहु प्रकार सब चरित बखाने।
जेहि विधि शत्रु यम पहुँचाने॥
सती भई सो बात बताई।
आज्ञा दई सो मात बताई॥
गांव बाहेर वह स्थान बताया।
जहां सती तिरशूल लगाया॥
जालीराम बहुरि समझावा।
धीरज बहुत भाँति बंधावा॥
अब चलिए जहाँ भस्म बसाई।
हेतु सती मन्दिर बनवाई॥
॥दोहा॥
जालीराम आये जहाँ, भस्म त्रिशूल सुहाय।
मंदिर अति सुंदर बना, सबके मन को भाय॥२२॥
॥चौपाई॥
मंदिर देखि सकल हरषाने।
घंट घड़ावल धुनि सुहाने॥
नित्य आय पूजा जन करहिं।
पुष्प, नारियल, दूब चढ़ावहिं॥
सती जाय कर पति के पासा।
सेवा करने लगी सुपासा॥
द्वादश सती हुई कुल मांई।
सत की जोत अखंड जलाई॥
नाराणी थी सबसे पहली।
जिसकी जोत जगत में फैली॥
कछुक दिवस पति की सेवा कर।
हुई प्रगट झुँझुनू में आकर॥
वैश्य एक था झुँझुनू मांही।
था सम्पन्न व्यापार चलाही॥
एक रात डाकू घर आये।
बनिये को घर से हर लाये॥
जाय छोड़ दिया जंगल मांही।
एकल पड़ गया राह भुलाहीं॥
॥दोहा॥
तभी एक देवी सुभग, लालटेन ले हाथ।
बोली आ पीछे मेरे, नहीं छोड़ना साथ॥२३॥
॥चौपाई॥
बनिया कुशल गांव पहुँचाई।
सपने में दिया दरश सुहाई॥
पूजा करो नित्य मन लाई।
यह आज्ञा सती मात सुनाई॥
जो मन से मुझको ध्यायेगा।
नाना सुख सम्पत्ति पायेगा॥
रोग दुःख कुछ निकट न आये।
जो नर मेरा ध्यान लगाये॥
अंतर्ध्यान भई सती माता।
वैश्य सभी को बात बताता॥
बात सकल गांवों में आई।
सत की जीत चहुँ दिशि छाई॥
यात्री आने लगे झुँझुनू।
तीर्थ बन गया गांव झुँझुन॥
हर सम्वत् भादव महिना को।
मेला भरे प्रति मावस को॥
॥दोहा॥
पूजने लगि संसार में, सतियों की सिर मोर।
पाठ, भजन होने लगे, दुनियां में चहुँ ओर॥२४॥
॥चौपाई॥
'राणी सती' है नाम सुहाना।
'दादी' नाम सकल जग जाना॥
है प्रत्यक्ष कलियुग में माता।
जो ध्याता अभिमत फल पाता॥
आस सभी की पूरण वारी।
दादी माँ तेरो नाम सुखारी॥
प्रति मावस जो पाठ कराई।
दीपक ज्योत अखंड जलाई॥
मानस पाठ अखंड कराई।
घर में कभी अनिष्ट न आई॥
जो नर पाठ करे प्रति दिवसा।
विघ्न हरे पूरे सब मनसा॥
और गुप्त एक बात बताऊँ।
दादी के मन की दर्शाऊँ॥
नवमी जन्म, ब्याह नवमी का।
सती भई सो दिन नवमी का॥
लगता मुझे बहुत शुभकारी।
नवमी का दिन मंगल कारी॥
नवमी के दिन जो व्रत राखे।
घर में वास करूँ मैं ताके॥
कृष्ण जन्म मम जन्म एक तिथि।
जन्म राम का भी नवमी तिथि॥
॥दोहा॥
नवमी बदि प्रति मास को, व्रत का नियम निभाय।
सुंदर पुत्र खिलायसी, पति के मन को भाय॥२५॥
॥चौपाई॥
दादी जी की आज्ञा पाई।
बना चरित सुंदर सुख दाई॥
कहँ दादी का चरित अपारा।
कहँ मति मोरी अपढ़ गंवारा॥
सत की महिमा सकी न गाई।
शेष, शारदा गये थकाई॥
जय-जय-जय-नाराणी माता।
निशदिन तुमको शीश नवाता॥
भक्ति विमल देवो अब माता।
चरणों में तेरे शीश नवाता॥
मंगल कारण चरित तुम्हारा।
सकल सिद्धि का देवन हारा॥
आशा पूर्ण करो मेरे मन की।
विपदा हरो मात जन जन की॥
जय जय कार करे नर नारी।
लेत नाम जन होय सुखारी॥
जय जगदम्बे मात भवानी।
तनधन प्रिया मात नाराणी॥
नाम तेरो लक्ष्मी महाराणी।
एक जनम शंकर प्रिया जानी॥
एक जनम तेरो नाम भवानी।
रघुवर प्रिय सीता महाराणी॥
राधा, रुकमण नाम तुम्हारा।
कृष्ण प्रिया जाने संसारा॥
नाम कहाँ तक गिनूँ तुम्हारे।
और अनेक चरित्र सुखारे॥
सब विधि तुम हो पूरण कामा।
कलि अवलम्ब तुम्हारो नामा॥
नाम लेत उतरहीं नर पारा।
सज्जन मन में करो विचारा॥
नाराणी करुणामयी माता।
हाथ जोड़ कर शीश नवाता॥
कष्ट निवारणि विपद विदारणि।
रमा उमा दादी सुहासिनी॥
सुन्दर दयावान भय हारी।
भक्त बछल माता अधिकारी॥
॥दोहा॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश अरु, ब्रह्माणी गुण खानि।
रमा, उमा का रूप है, राणी सती महारानि॥२६॥
॥चौपाई॥
जय दुर्गे ब्रह्माण्ड निकाया।
अगम-निगम है तेरी माया॥
नखत तुम्हारा मुकुट सजाये।
सूर्य, चन्द्र बलिहारी जायें॥
परमानन्द ग्यान की दाता।
परम सती नाराणी माता॥
दरश सुकोमल शांति दाता।
सकल जगत की भाग्य विधाता॥
कर त्रिशूल अरु शंख बिराजे।
दरशन से दारुण दुख भाजे॥
रोग शोक सब कष्ट निवारिणि।
जग पालक माता नारायणि॥
गाँव झुँझुनू वास तिहारो।
कष्ट हरो मां दास तिहारो॥
मंदिर भव्य बरनि नहिं जाई।
दरशन दारुन दुःख नसाइ॥
माया तेरी अपरंपारा।
पावन तेरे सत की धारा॥
मैं सेवक मूरख अज्ञानी।
आया शरण जोड़ जुगपानी॥
मंगल रचा आयसू पाई।
जो सुनता सब कष्ट नसाई॥
घर बैठाय सुने नर नारी।
प्रेम सहित आरती उतारी॥
मनवांछित फल वो पायेंगे।
दादी की किरपा पायेंगे॥
सब प्रकार दादी सिरु नाई।
करहुँ समाप्त कथा सुखदाई॥
॥दोहा॥
इस मंगल को जो सुने, विधिवत पाठ बैठाय।
मन इच्छा पूरी करे, दादीजी खुद आय॥२७॥
सकल देव घर जाइये, रहिये देव गणेश।
रिद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धनद, करिये वास हमेश॥२८॥
नाराणी करुणामयी, तनधन जी संग आय।
कारज सबके सारियो, हे भय हारिणि माय॥२९॥
हाथ जोड़ विनती करें, खड़े तुम्हारे दास।
राणी सती दादी करो, मन मंदिर में वास॥३०॥
भक्त सभी घर जाइये, राणी सती चितलाय।
"रमाकांत" हे स्वामिनी! देवो वर मन भाय॥३१॥
卐 बोलो श्री राणी सती मात की जय 卐
॥इति शुभम्॥