॥श्री नारायणी चरित मानस॥
॥श्री राणी सत्यै नमः॥
श्री नारायणी चरित मानस
卐 ॐ 卐
-: प्रथम स्कन्ध :-
देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥
॥भाषा-टीका॥
शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवी,
हम पर प्रसन्न होओ।
सम्पूर्ण जगत की माता! प्रसन्न होओ।
विश्वेश्वरी! विश्व की रक्षा करो।
देवी! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो॥
॥दोहा॥
प्रथम गौरिसुत गणपति का, मन में धर ध्यान।
राणी सती के चरित का, सुंदर करूं बखान॥१॥
मात शारदे कृपा करो, बुद्धि करो प्रदान।
आस मेरी पूरण करो, दे सुंदर वरदान॥२॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश के, चरण कमल सिरनाय
माँ ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी करो सहाय॥३॥
दादी के कुलगुरू प्रभु, कृष्णचन्द्र भगवान।
तिनके चरणकमल नऊँ, महादानि अनुमान॥४॥
नमन करूं गुरूदेव का, जपूं निरंतर नाम।
पास रहो हरदम सदा, निशदिन आठों याम॥५॥
मात पिता के पदकमल, सुमिरूं चित्त लगाय।
जिनकी सेवा से सभी, भवबन्धन कट जाय॥६॥
देव, दनुज, नर, नाग, अरू सतियों को सिरनाय।
जड़, चेतन, चर, अरू अचर, सबको शीश नवाय॥७॥
राणी सती के पदकमल, का मन में धर ध्यान।
नारायणी के चरित का, मन से करूं बखान॥८॥
॥चौपाई॥
सत की महिमा अमित अपारा।
वेद शास्त्र पाये नहीं पारा॥
पारवती, लक्ष्मी, ब्रह्माणी।
सत के बल पर बनी भवानी॥
सावित्री ने सत के बल से।
छीन लिया था पति को यम से॥
सती सुलोचना रामादल से।
पती शीश लाई रघुवर से॥
सीता सतवंती गुण खानी।
तेज पुंज रघुवर महारानी॥
सतभामा, रुकमण, राधाजी।
सत से वाम भाग हरि राजी॥
सत की महिमा सदा सुहाई।
बार-बार कवियों ने गाई॥
सत की महिमा रघुवर जानी।
अपने मुख से आप बखानी॥
॥दोहा॥
सत की महिमा अगम है, कैसे करूँ बखान।
शेष, शारदा, शचिपति, भी न कर सके गान॥९॥
॥चौपाई॥
तदपि सकल सतियन सिर नाई।
मन में दृढ़ विश्वास बनाई॥
शारद गणपति करो सहाई।
कृपा करो राणी सती माई॥
कलयुग में प्रगटी मेरी माई।
सबको सत की राह दिखाई॥
नाम लेत उतरहि नर पारा।
मुद मंगलमय नाम तिहारा॥
मंगल खानि, अमंगल हारी।
नाराणी तेरो नाम सुखारी॥
बहुरि सबहि सादर सिरुनाई।
करउँ कथा मुद मंगल दाई॥
कवि न होऊ नहीं वचन प्रवीना।
दादीजी का शरणा लीना॥
तुलसीदास चरण सिर नाऊँ।
जाकी कृपा चरित लिखपाऊँ॥
॥दोहा॥
पुनि नाराणी पद कमल, का मन में घर ध्यान।
विमल कथा सत की कहूँ, भक्त सुनो दे ध्यान॥१०॥
॥चौपाई॥
सादर शिवहिं नाइ अब माथा।
बरनऊँ राणी सती गुणगाथा॥
सम्वत् दो हजार बत्तीसा।
करहुँ कथा हरि पद धरि शीशा॥
सोमवार नवमीं का शुभ दिन।
दरस दिया दादी ने जिस दिन॥
मास पुनीत सुदी आश्विन का।
पूर्व दिवस विजयादशमी का॥
सकल सुमंगल दायक गाथा।
कहहुँ कथा धरनी धर माथा॥
पूर्व जन्म की कथा सुहाई।
बरनऊँ सती चरण सिर नाई॥
महाभारत विख्यात लड़ाई।
सकल जगत जानत मेरे भाई॥
दुर्योधन एक दिवस विचारा।
कैसे जीतूं रण दुस्तारा॥
चक्रब्यूह कल्पना बनाई।
तेहि पल अर्जुन थे घर नाई॥
अर्जुन संग कृष्ण भगवाना।
दुर्योधन मन में अनुमाना॥
पाण्डव दल में खबर कराकर।
रचा व्यूह योजना बनाकर॥
चक्रव्यूह को तोड़न रीती।
केवल अर्जुन को थी प्रतीति॥
धर्मराज मन चिंता छाई।
करहिं विचार करूँ क्या भाई॥
तेहि अवसर अभिमन्यु आया।
ताऊजी को शीश नवाया॥
॥दोहा॥
शीश नवाया तात को, क्यों कुम्हलाया गात।
धर्मराज किस सोच में, ऐसी क्या है बात॥११॥
॥चौपाई॥
कहहु तात चिंता केहि हेतू।
मुख पर ये ग्लानि केहि हेतू॥
धर्मराज कह सुनु चितलाई।
कठिन ब्यूह की रचना बनाई॥
केवल अर्जुन लड़ सकता था।
चक्रब्यूह भंग कर सकता था॥
अर्जुन करे सुदूर लड़ाई।
एहि कारण चिंता घिर आई॥
धर्मराज चिंतामय जाने।
अभिमन्यु ने वचन बखाने॥
तोड़न चक्र तात जाऊँगा।
रण कौशल अब दिखलाऊँगा॥
भीम कहे सुनु कहन हमारा।
अति कोमल है राजकुमारा॥
कृष्ण बहन का प्राण पियारा।
अर्जुन की आँखों का तारा॥
हाथ जोड़ बोला अभिमन्यु।
योद्धा का सुत है अभिमन्यु॥
॥दोहा॥
शीश नवा बोला तभी, अर्जुन पिता हमार।
कृष्ण बहन माता मेरी, गुरु है द्रोणाचार॥१२॥
॥चौपाई॥
सुनहु तात गुप्त एक बाता।
बैठे बतलाये पितु माता॥
तेहि दिन पितु द्रोण गुरु पाही।
रचना चक्रब्यूह पढ़ आही॥
चक्रब्यूह रचना समझाये।
माता सुनती ध्यान लगाये॥
मैं था मात गर्भ के मांई।
जब पितु ने यह कला बताई॥
ब्यूह को तोड़ बाहर आने की।
रीत बताई जब आगे की॥
सुनहु बात तेहि अवसर ताता।
आगई नींद सो गई माता॥
एहि कारण बाहर आने की।
रीत न सीख सका इस रण की॥
चक्र तोड़ वापस आऊँगा।
श्री चरणों में शिर नाऊँगा॥
विदा कीन्ह उत्तरा हरषकर।
माथे तिलक कियो माँ हंसकर॥
(तर्ज-राधेश्याम रामायण)
रथ किया तैयार सारथी ने, घोड़े सुन्दर जुतवाये हैं।
और सब प्रकार के अस्त्र शस्त्र, रथ के अन्दर रखवाये हैं॥
अभिमन्यु बना के वीर वेश, जब रथ के पास पधारे हैं।
जय घोष हुआ चहुँ ओर सभी ने, आशीर्वचन उचारे हैं॥
जय घोष सुना जब महलों में, उत्तरा बहुत हरषाई है।
पति रण को जाने वाले हैं, झट आरती थाल सजाई है॥
सब सोलह साज बदन पर है, मुख चमके चंदा की नाई।
दासी कर, आरति थाल थमा, वह मुख्य द्वार पर है आई॥
रथ रुका पति का आकर के, अभिमन्यु रथ से उतर पड़े।
देखा जब पति का वीर वेश, प्रेमाश्रु नयन से ढुलक पड़े॥
पति बोले हमको करो विदा, हे मृगलोचनि हरषा करके।
चढ़ गया वीर रस अबला पर, अरु वचन कहे मुसका करके॥
जावो स्वामी रणभूमि में, और विजय प्राप्त करके आना।
छक्के छुट जायें दुश्मन के, तुम ऐसे करतब दिखलाना॥
अभिमन्यु बोले सुनो प्रिये, मैं रण में प्रलय मचा दूँगा।
कौरव दल के महारथियों को, मैं नाकों चने चबा दूँगा॥
लाशों का ढेर लगा दूँगा, हे प्रिया आज रण भूमि में।
शोणित की नदी बहा दूँगा, हे प्रिया आज रण भूमि में॥
नहीं तेरी मांग लजाऊँगा, अर्जुन का पुत्र कहाऊँगा।
बलशाली भीम, युधिष्ठिर का, मैं आज नाम चमकाऊँगा॥
हे प्रिया करो मत तुम चिंता, नहीं माँ का दूध लजाऊँगा।
या तो आऊँगा युद्ध जीत, या वहीं खेत रह जाऊँगा॥
उत्तरा कहे जावो प्रियतम, और माथे तिलक लगाया है।
पति के चरणों का स्पर्श किया, और जय जयकार सुनाया है॥
प्यारी पत्नी से विदा होय, माता को शीश नवाया है।
पय धार लगी बहने माँ के, बेटे को गले लगाया है॥
फिर आशीर्वचन सुना करके, बोली जावो रण भूमि में।
रण देवी तुम्हें पुकार रहीं, जावो बेटा रण भूमि में॥
॥दोहा॥
माता बोली हरषकर, विजयी होकर आय।
बेटा मेरी कोख को, देना नहीं लजाय॥१३॥
॥चौपाई॥
चरण वन्दि कियो वीर पयाना।
संग लिया सारथी सुजाना॥
दौड़ वीर रण भूमि आयो।
रथ को वेग और बढ़वायो॥
रक्षक दल सब पीछे छूटा।
दौड़ लगाई घेरा टूटा॥
चक्रब्यूह के अन्दर जाकर।
मार काट करता बढ़ बढ़कर॥
हा-हाकार चहुँ दिसि माच्यो।
जीवित सन्मुख कोइ न बांच्यो॥
कट-कट मुंड धरण गिरते थे।
हा-हाकार सभी करते थे॥
कटे असंख्य मुंड तेहि काला।
रुंड मुंड शोणित बहनाला॥
छोड़ लड़ाई भागण लागे।
भगदड़ मची फौज भई आगे॥
सप्तरथी मन चिंता छाई।
केहि विधि काबू करें लड़ाई॥
॥दोहा॥
सबने मिल मंत्रणा करी, द्रोण कहे धरि धीर।
मिलकर चारों ओर से, सभी चलावो तीर॥१४॥
॥चौपाई॥
सप्त रथी ने छोड़ सभी को।
घेर लिया उस बाल रथी को॥
बालक एक और रथि साता।
फिर भी लड़ा वीर विख्याता॥
सातों ने मिल तीर चलाये।
अभिमन्यु के गात समाये॥
बालक वीर पड्यो धरनी पर।
शत्रु भी लौटे अति थककर॥
खबर युधिष्ठिर पहुँ तब आई।
कैसी अशुभ बात बतलाई॥
हाय दूत क्या खबर सुनाई।
कैसे कहूँ महल में जाई॥
भीम नकुल सहदेव बतावो।
अभिमन्यु से मुझे मिलावो॥
भीम कहाँ अतुलित बल तेरा।
कित छोड़ा अभिमन्यु मेरा॥
हाय देव मैं काह बिगारा।
काहे दीन्हा दुःख दुस्तारा॥
हाः सुत हाः आँखों के तारे।
पांडव कुल के राज दुलारे॥
धरती माँ मोहे तुमहि बतावो।
अपने अन्दर मुझे समावो॥
आँखों में आँसू की धारा।
सुबक भीम यह वचन उचारा॥
धीरज धारण कीजे भ्राता।
होता वहि जो करे विधाता॥
सुनत वचन बोले विकलाई।
कैसे धीरज धारूँ भाई॥
अर्जुन जब पूछेगा भ्राता।
कहाँ गया अभिमन्यु ताता॥
सुता उत्तरा जब पूछेगी।
अभिमन्यु मुझ से मांगेगी॥
रुदन महान महल में छायो।
तेहि अवसर अर्जुन घर आयो॥
कृष्ण कहे सबको समुझाई।
चिंता छोड़ उठो मेरे भाई॥
॥दोहा॥
अमर नाम अभिमन्यु ने, किया वीरगति पाय।
वंश नाम रोशन किया, सकल जगत के मांय॥१५॥
॥चौपाई॥
मात सुभद्रा तेहि पल आई।
जैसे बछड़ा ढूँढे गाई॥
धर्मराज व्याकुल भये भारी।
भीम, नकुल, अर्जुन, असुरारी॥
नयन नीर ढूंढे चहुँ ओरा।
कहाँ गया अभिमन्यु मोरा॥
कहाँ गया गाण्डीव तुम्हारा।
सौ गज का अतुलित बल सारा॥
चक्र सुदर्शन कहाँ तुम्हारा।
कित भाणज अभिमन्यु प्यारा॥
आ बेटा तेरी मात पुकारे।
क्यों रूठा कुछ तो बतलारे॥
हाय पुत्र तू प्यासा होगा।
नहिं कुछ खाया भूखा होगा॥
आ बेटा तेरा मुख धुलवादूँ।
अपने हाथों तुझे खिलादूँ॥
कैसे अब मैं धीरज धारूँ।
पुत्रवधू से काह उचारूँ॥
एकबार तो धीर बंधादे।
चंदा सा तेरा मुख दिखलादे॥
विकल होय कर होश गंवाई।
सुधि नहिं पड़ी धरण पर जाई॥
तेहि काल बहु रुदन मचाई।
सभा बीच उत्तरा सिधाई॥
बिखरे बाल मांग थी सूनी।
हाथ जोड़ बोली सुनु गुन्नी॥
पती सिधाये यमपुर लोका।
हमको केहि कारण से रोका॥
सति होने की आज्ञा दे दो।
हमको भी पति संग जाने दो॥
॥दोहा॥
बिना पति कुछ भी नहीं, सूना सब संसार।
मात-पिता, सुत, धन सभी, बिन उनके बेकार॥१६॥
॥चौपाई॥
सुनि सबके मुख गये सुखाई।
मुख पर बात एक नहिं आई॥
कठिन समय जाना भगवाना।
बोले वचन हृदय अनुमाना॥
गर्भवती तुम हो मेरी बेटी।
छोड़ो संग जाने की हेटी॥
चक्रवर्ती होगा सुत तेरा।
नाम परीक्षित वचन है मेरा॥
॥दोहा॥
अभिमन्यु से मिलन का, सुनलो सही उपाय।
कलियुग में लेगा जनम, एक वैश्य घर जाय॥१७॥
॥चौपाई॥
सति होने की आस तुम्हारी।
पूरी होगी राजकुमारी॥
कलियुग में जब तू जनमेगी।
शुभ नाराणी नाम धरेगी॥
अभिमन्यु भी कलियुग मांई।
जनमें तनधन नाम धराई॥
तनधन संग रचाय विवाहा।
सति होगी सैं दिन मुकलावा॥
जो जन मेरी भक्ति करेंगे।
मुझसे पहले तुझे नवेंगे॥
घर-घर तेरी पूजा होगी।
क्या गृहस्थ, क्या तापस जोगी॥
जो राणी सती नाम जपेगा।
सुख सम्पति से पूर्ण रहेगा॥
गाँव झुंझुनू वास करेगी।
घर-घर सत की ज्योत जलेगी॥
कन्या ध्यावे घर, वर पावे।
युवती सुन्दर पुत्र खिलावे॥
वृद्धा जपे अमर पद पावे।
व्यापारी धन खूब कमावे॥
॥दोहा॥
रोग, दोष सारे कटें, जो कोई तुझको ध्याय।
वैभव सकल मिले उसे, 'रमाकांत' गुणगाय॥१८॥
॥चौपाई॥
रोगी जपे, रोग छुट जावे।
भूत, पिशाच निकट नहिं आवे॥
मंगल उत्सव, ब्याह, सगाई।
पूजा, हवन, कथा सुखदाई॥
सकल काज पल में सवरेंगे।
जो नर तेरा ध्यान धरेंगे॥
पारवती, लक्ष्मी, ब्रह्माणी।
सन्तोषी माता गुण खानी॥
तेरे तन में वास करेगी।
जब तू अग्नि प्रवेश करेगी॥
जदपि अनेक नाम जग मांही।
मेरा वास तेरे मन मांही॥
एहि कारण यह नाम दिया है।
'नाराणी' कल्याण किया है॥
कह उत्तरा सुनहु गिरधारी।
शिरोधार्य आज्ञा प्रभु थारी॥
सकल सभा हर्षित भई भारी।
साधु-साधु की ध्वनि उचारी॥
एहि प्रकार कलियुग के मांई।
लियो जनम उत्तरा सुहाई॥
नाराणी सो नाम सुहायो।
कलियुग में आनंद बढ़ायो॥
कथा पुनीत सकल जग जानी।
तेहि ते मैं संक्षेप बखानी॥
पूर्व जन्म की कथा सुहाई।
'रमाकान्त' सेवक कह गाई॥
मुख्य कथा अब करूँ अरंभा।
शीश नवाय मात जगदम्बा॥
जेहि विधि किया चरित शुभकारी।
नाम राणीसती दादी धारी॥
बहुरि सकल देवन्ह सिर नाई।
कहहुँ चरित्र कवित्त बनाई॥
॥दोहा॥
भारत देश महान है, जग में है विख्यात।
उसी भूमि पर आयकर, जनम लियो सती मात॥१९॥
गुरु की आज्ञा मानकर, पति पद नेह लगाय।
छोटे से एक गांव में, जनम लिया है जाय॥२०॥